क्या जानलेवा आपदाएं आती ही रहेंगी ?
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: December 11, 2025 07:38 IST2025-12-11T07:38:49+5:302025-12-11T07:38:54+5:30
विस्फोटकों को अवैध रूप से संग्रहित किया गया था, जिसके कारण यह भयानक विस्फोट हुआ.

क्या जानलेवा आपदाएं आती ही रहेंगी ?
अभिलाष खांडेकर
मैं भोपाल में रहता हूं, जहां दिसंबर 1984 में दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक दुर्घटना घटी थी. इसमें हजारों निर्दोष लोग मारे गए थे और कई हजार घायल हुए थे. यह घटना न केवल भोपालवासियों के मन में आज भी ताजा है, बल्कि पूरी दुनिया इसे एक दु:स्वप्न के रूप में याद करती है. यह मध्यप्रदेश की खूबसूरत राजधानी और भारत पर एक कलंक जैसा है.
सर्दी की आधी रात को अमेरिकी रसायन कंपनी यूनियन कार्बाइड के संयंत्र से गैस रिसाव और उसके बाद कई वर्षों तक घटी अकल्पनीय घटनाओं को अपनी आंखों से देखने वाले दुर्भाग्यशाली लोग कहते हैं कि यह मानव निर्मित त्रासदी थी. बचे हुए लोग आज भी इसके गंभीर दुष्प्रभावों की शिकायत करते हैं; मध्यप्रदेश सरकार और कई गैरसरकारी संगठनों द्वारा संचालित दवाखाने और अस्पताल आज भी उन लोगों का इलाज कर रहे हैं जो चार दशक पहले उस गैस की चपेट में आए थे.
हाल ही में गोवा के नाइट क्लब में हुई भीषण आग की घटना, जिसमें 25 लोगों की जान चली गई, मुझे उस त्रासदी की याद दिला देती है. क्या दोनों घटनाओं में कोई समानता है? कुछ लोग कहेंगे कि मृतकों की संख्या में बहुत फर्क है!
हां, दोनों दुर्घटनाएं अलग-अलग पैमाने की थीं, लेकिन दोनों को स्पष्ट रूप से टाला जा सकता था. एक पुराने संयंत्र से घातक गैस का रिसाव और गोवा में हुआ विस्फोट, दोनों में निर्दोष लोगों की जान गई. यह सब जिम्मेदार अधिकारियों द्वारा मजबूत सुरक्षा मानकों की आपराधिक अवहेलना का मामला था - 2025 में पणजी में और 1984 में भोपाल में. दोनों मामलों में मुख्य आरोपी फरार हो गए!
आपदाएं प्राकृतिक और मानव निर्मित, दोनों प्रकार की हो सकती हैं. प्राकृतिक आपदाओं को भी, जिनकी परिभाषा बहुत व्यापक है, उचित सावधानियों से रोका जा सकता है या उनके प्रभाव को कम किया जा सकता है. हमने देखा है कि कैसे कुछ राज्य सरकारों ने सुनामी का कुशलतापूर्वक प्रबंधन किया जिससे लोगों पर इसका प्रभाव कम पड़ा.
भारत में लोगों की जान बचाने के लिए बनी व्यवस्थाएं किस तरह विफल हो गईं, यह जानने के लिए कुछ प्रमुख आपदाओं पर एक नजर डालना उचित होगा. अगर यह किसी काल्पनिक कहानी की तरह लगे तो क्षमा करें, क्योंकि ऐसा बिल्कुल नहीं है.
मैं इन घटनाओं को इसलिए दोहरा रहा हूं ताकि एक बार फिर तथ्य को रेखांकित किया जा सके: यदि व्यवस्थाओं को सुदृढ़ किया जाए, कार्य संस्कृति को बहाल किया जाए, अपराधियों को कड़ी सजा दी जाए और भ्रष्टाचार पर नियंत्रण रखा जाए, तो असमय होने वाली मौतों को रोका जा सकता है.
क्या आपको वायनाड भूस्खलन याद है? पश्चिमी घाट पर माधव गाडगिल समिति ने कई साल पहले एक विस्तृत रिपोर्ट के माध्यम से इसके खतरों के बारे में चेतावनी दी थी. समिति ने नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र पर दबाव डालने के खिलाफ आगाह किया था. पश्चिमी घाट में खनन और दोहन पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं किया गया. जुलाई 2024 में भारी बारिश के कारण यह त्रासदी हुई और 400 लोगों की जान चली गई.
अत्यधिक बारिश के कारण भूस्खलन हुआ, लेकिन अगर विशेषज्ञों की सलाह मानी गई होती तो मरने वालों की संख्या कम हो सकती थी.
गुजरात के मोरबी में 2022 में एक पुराना झूलता पुल टूट गया, जिसमें कई स्थानीय पर्यटक मारे गए. मृतकों की संख्या 135 बताई गई, जिनमें से कई अपने परिवारों के साथ नदी का नजारा देखने गए थे. मृतकों में 50 बच्चे भी शामिल थे. एक अनुभवहीन ठेकेदार द्वारा किए गए अधूरे जीर्णोद्धार के बाद, दुर्घटना से कुछ सप्ताह पहले ही पुल को लोगों के लिए फिर से खोल दिया गया था. सुरक्षा नियमों की पूरी तरह से अनदेखी की गई थी.
तीन साल बाद, खराब रखरखाव के कारण गुजरात में एक और विशाल ‘गम्भीरा पुल’ ढह गया, जिसमें 22 लोगों की जान चली गई.
मध्यप्रदेश में, 2015 में जिलेटिन स्टिक्स से भरे एक गोदाम में तड़के आग लग गई और विस्फोट हो गया, जिसमें लगभग 90 लोग मौके पर ही मारे गए. ये लोग सड़क किनारे एक छोटे से रेस्तरां में नाश्ता कर रहे थे. मृतकों में स्कूली छात्र भी शामिल थे. यह घटना झाबुआ जिले के आदिवासी बहुल गांव पेटलावाद की थी, जो पणजी के पॉश नाइट क्लबों से बिल्कुल अलग थी. विस्फोटकों को अवैध रूप से संग्रहित किया गया था, जिसके कारण यह भयानक विस्फोट हुआ.
कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि जनसंख्या में लगातार वृद्धि के साथ, आपदाएं तो होती ही रहेंगी. सबसे दुखद और अक्षम्य बात यह है कि भ्रष्टाचार, अक्षमता और अधिकारियों की लापरवाही भरी निगरानी के कारण ये आपदाएं साल दर साल और भी भयावह होती जा रही हैं.
स्थानीय अधिकारी मौतें होने के बाद कुछ कार्रवाई करते हैं, लेकिन पहले नहीं, जैसा कि गोवा में देखा गया है, और हम सब आगे बढ़ जाते हैं... किसी और आपदा के होने का इंतजार करते हुए.
कोई यह नहीं कह सकता कि भविष्य में भारत में भोपाल या गोवा जैसी कोई घटना नहीं होगी. रेल पटरियों पर, सड़कों पर, कुंभ मेले में, पुल या होर्डिंग गिरने से, कोचिंग कक्षाओं में छात्रों की मौत जैसी असामयिक मौतें होती रहेंगी. क्या यही ‘अमृत काल’ है?
सभी क्षेत्रों में तकनीकी सहायता में सुधार के साथ, बहुमूल्य मानव जीवन की हानि को निश्चित रूप से न्यूनतम स्तर तक कम किया जा सकता है. बेहतर शासन व्यवस्था से यह संभव है.