ब्लॉग: लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा के खिलाफ सभी विपक्षी दलों का गठबंधन मुश्किल है...ये हैं बड़े कारण
By राजेश बादल | Published: March 21, 2023 11:00 AM2023-03-21T11:00:05+5:302023-03-21T11:10:14+5:30
लोकसभा चुनाव अगले साल है. इससे पहले भाजपा के खिलाफ विपक्षी पार्टियों के एक साथ आने की कवायद भी जारी है. हालांकि, क्या सभी पार्टियां एक साथ आ सकेंगी, इसे लेकर संशय है.
अगले लोकसभा निर्वाचन में अब ज्यादा वक्त नहीं बचा है. सरकार और विपक्षी दलों के लिए चुनावी तैयारी की घंटी बज गई है. पार्टियों के अंदर सुगबुगाहटें सियासी सरगर्मियों के तेज होने का संकेत देने लगी हैं. वैचारिक ध्रुवीकरण के चलते राजनीतिक दलों के दो खेमे साफ-साफ बनते दिखाई दे रहे हैं. एक भारतीय जनता पार्टी और सहयोगी पार्टियों का और दूसरा कांग्रेस तथा उसके साथ समान वैचारिक आधार वाले दलों का है.
इसी बीच, कुछ क्षेत्रीय दलों ने भी दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों से फासला बनाए रखते हुए तीसरा मोर्चा बनाने का ऐलान किया है. ये दल सिर्फ बड़े दलों से दूरी बनाए रखने के लिए गठबंधन संवाद कर रहे हैं. कोई तीसरी विचारधारा उनके पास नहीं है और न वे उसके आधार पर करीब आ रहे हैं. एक जमाने में वाम दल और समाजवादी पार्टियां सोच के आधार पर राष्ट्रीय परिदृश्य में उपस्थित थीं. लेकिन इन दिनों ये आधार भारतीय समाज से करीब-करीब गैरहाजिर हैं.
एक-दो दिन पहले बंगाल की तृणमूल कांग्रेस और उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी ने आगामी लोकसभा चुनाव साझा मंच से लड़ने की घोषणा की है. समाजवादी पार्टी ने इसी मकसद से कोलकाता में अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलाई थी. दरअसल अखिलेश अभी भी अपना राजनीतिक चिंतन और सोच का दर्शन विकसित नहीं कर पाए हैं. पिता की विरासत तो उन्होंने संभाल ली, लेकिन मुलायम सिंह यादव ने जिस माहौल में अपनी समाजवादी सोच को परिपक्व किया था, वह अखिलेश को नहीं मिला. इसलिए राष्ट्र की समाजवादी जमीन के संस्कार स्वाभाविक ढंग से पल्लवित नहीं हो सके.
पिछले कुछ चुनाव इसका गवाह हैं. कभी वे कांग्रेस के साथ गठबंधन करते हैं तो कभी बसपा के साथ मिलकर चुनावी मैदान में उतरते हैं. कभी वे राष्ट्रीय जनता दल से प्रभावित दिखाई देते हैं तो कभी अचानक सबसे दूरी बना लेते हैं और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के मूड में नजर आते हैं.
जब राष्ट्रीय क्षितिज पर तीन दशक पुरानी एक पार्टी का मुखिया इतना अस्थिर हो तो उससे लोकतांत्रिक मजबूती के यज्ञ में आहुति की अपेक्षा कैसे की जा सकती है. उन्हें आने वाले आम चुनाव के लिए विपक्षी एकता का सूत्रधार बताया जा रहा है, मगर यह सूत्रधार ठोस काम करेगा, इसमें संशय है.
समाजवादी पार्टी को सूत्रधार की भूमिका सौंपने के बारे में भी अन्य पार्टियां एकमत नहीं हैं. अनेक दल अपने स्तर पर खुद को सूत्रधार के रूप में पहले ही प्रस्तुत कर चुके हैं. इनमें सबसे महत्वपूर्ण बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल यूनाइटेड के अगुआ नीतीश कुमार हैं. वे ऐलान कर चुके हैं कि भाजपा सरकार को शिकस्त देने के लिए विपक्षी अश्वमेध का घोड़ा लेकर चल रहे हैं. इसमें वे राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के अलावा द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (डीएमके) जैसी पार्टियों को अपने साथ मान रहे हैं.
चूंकि राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी के शिखर परिवारों में रिश्तेदारी भी है, इस कारण नीतीश समाजवादी पार्टी की संभावना अपने गठबंधन में देख रहे होंगे, मगर यदि अखिलेश ममता बनर्जी के पाले में हैं तो नीतीश कुमार के लिए कोई अवसर नहीं है. नीतीश कुमार और ममता बनर्जी की अदावत सबको पता है.
ममता कभी भी नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले मोर्चे में शामिल नहीं हो सकतीं. वे एक बार भाजपा के साथ जा सकती हैं, मगर जेडीयू के साथ उनका मेल संभव नहीं है. पर इस मोर्चे में ममता के शामिल होने पर कांग्रेस असहज रहेगी. ममता अनेक मौकों पर सार्वजनिक रूप से कांग्रेस की खिल्ली उड़ा चुकी हैं. इस नजरिये से इस मोर्चे या गठबंधन की भ्रूणहत्या तय है.
विपक्षी एकता के एक सूत्रधार के रूप में तेलंगाना के मुख्यमंत्री और तेलंगाना राष्ट्र समिति के सर्वेसर्वा केसीआर भी अपने को सियासी मंच पर पेश कर चुके हैं. इसी उद्देश्य से उन्होंने अपनी पार्टी को अखिल भारतीय स्वरूप देने का निर्णय लिया है. अब उनकी पार्टी भारत राष्ट्र समिति के बैनर तले चुनाव मैदान में उतरने की तैयारी कर रही है. लेकिन सवाल है कि क्या वे अपने पड़ोसी प्रदेश आंध्र में सरकार चला रही वायएसआर से इस मामले में गले मिल सकते हैं?
यह नामुमकिन सा है क्योंकि दोनों दलों के राजनीतिक हित एक-दूसरे के राज्य में टकराते हैं. क्या दो प्रतिद्वंद्वी पार्टियां अपने ही निर्वाचन क्षेत्रों में सीटों पर तालमेल कर सकती हैं? ऐसी सूरत में केसीआर भी बेहद कमजोर सूत्रधार दिखाई देते हैं. अलबत्ता वे डीएमके के साथ जाकर कांग्रेस गठबंधन में शामिल हो सकते हैं. ऐसी स्थिति में उनके मोर्चे को या व्यक्तिगत रूप से उन्हें कोई शिखर भूमिका मिल सकेगी - इसमें संदेह है.
यह दिलचस्प समीकरण है कि विपक्षी एकता के तीन सूत्रधारों के इस गठबंधन की व्यावहारिक उपयोगिता शून्य है. इसलिए कि इन सभी दलों का अस्तित्व उनके अपने अपने प्रदेशों से बाहर नहीं है. अगर उनके गठबंधन बनते भी हैं तो वे नहीं होने के बराबर हैं. उदाहरण के लिए समाजवादी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस का आपसी गठबंधन देखें तो लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी तृणमूल कांग्रेस से मिलकर बंगाल में भारतीय जनता पार्टी को क्या नुकसान पहुंचा सकती है? उसका तो कोई वोट बैंक ही वहां नहीं है. न ही ममता बनर्जी प्रयोग के तौर पर समाजवादी पार्टी को कोई लोकसभा सीट तालमेल के तहत दे सकती हैं.
यही हाल केसीआर का है. वे तेलंगाना में किसी अन्य दल का वोट प्रतिशत क्यों बढ़ने देंगे? और यदि उनके राज्य में उस दल का कोई अस्तित्व ही नहीं है तो वह भारतीय जनता पार्टी को कैसे क्षति पहुंचा सकते हैं. राष्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेस विपक्षी एकता के इन सूत्रधारों को सिर्फ मनोरंजन के दृष्टिकोण से ले सकते हैं. गंभीरता से उनका कोई अर्थ ही नहीं है.