अश्वनी कुमार का ब्लॉगः कृषि बिल पर खुली चर्चा से क्यों बच रही सरकार?
By अश्वनी कुमार | Published: September 23, 2020 02:42 PM2020-09-23T14:42:07+5:302020-09-23T14:42:07+5:30
पंजाब के मुख्यमंत्री का एक कथित बयान कि संसद में बहुमत के बल पर थोपे गए कानूनों को अदालत में चुनौती दी जाएगी, हमारे संघीय राजनीति के कामकाज पर एक बड़ा सवाल उठा रहा है. अगर एक मुख्यमंत्री खुद को एक संवेदनशील मुद्दे पर गैर-जिम्मेदार केंद्र सरकार के खिलाफ कानूनी सहायता लेने के लिए खुद को मजबूर पाता है, तो हमारे भारतीय संघवाद के भविष्य के लिए यह अच्छी बात नहीं है.

फाइल फोटो।
जिस अविवेकपूर्ण जल्दबाजी में विभाजनकारी कृषि विधेयकों को कानून का रूप दिया गया है, वह हमारे लोकतंत्र के भविष्य के बारे में कई बेचैन कर देने वाले सवाल खड़े करता है. विपक्ष की आवाज को दबाया गया और बिना किसी सार्थक बहस के संसद के दोनों सदनों में विधेयकों को पारित कर दिया गया. संसदीय प्रक्रियाओं को जिस ढिठाई के साथ दरकिनार किया गया, वह लोकतंत्र को विकृत किए जाने की एक ऐतिहासिक घटना के रूप में लोगों की स्मृति में बनी रहेगी. अपनी घोषणाओं को उपयोगी बताने का सरकारों के पास अपना तर्क हो सकता है, लेकिन विपक्ष के पास उस पर संदेह जताने का अधिकार है क्योंकि संसदीय प्रक्रियाओं के उल्लंघन को रोकना और उस पर निगरानी रखना उसका दायित्व है.
कृषि विधेयकों को अधिनियमित करते समय इस लोकतांत्रिक और नैतिक वैधता का उल्लंघन किया गया है. स्पष्ट रूप से, एक प्रभावी लोकतंत्र में कोई भी कानून, जिसे जनसमर्थन हासिल न हो और जनभावनाओं के खिलाफ जिसे सरकार द्वारा थोपा जाए, उसे लोगों द्वारा स्वीकृति देने और मानने का कोई दावा नहीं किया जा सकता. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के नेतृत्व में निर्विवाद रूप से इसे ही दार्शनिक आधार बनाया गया था. दुखद रूप से, औपनिवेशिक शासन के तहत सीखे गए पाठों को वर्तमान सत्तारूढ़ दल को याद दिलाने का काम स्वतंत्र भारत के हमारे बहादुर और आदरणीय कृषक समुदाय के कंधे पर आ गया है.
हम जानते हैं कि कानूनों की प्रभावकारिता उनके होने की धारणा पर निर्भर करती है. कोरोना के इस कठिन समय में भी नए कृषि कानूनों के खिलाफ जनसमूह का सड़कों पर उतरना बताता है कि जनधारणा ऐसी नहीं है कि जिन कानूनों को उनके हित में बताते हुए पारित किया गया है, वे उनके हित में हैं.
पंजाब के मुख्यमंत्री का एक कथित बयान कि संसद में बहुमत के बल पर थोपे गए कानूनों को अदालत में चुनौती दी जाएगी, हमारे संघीय राजनीति के कामकाज पर एक बड़ा सवाल उठा रहा है. अगर एक मुख्यमंत्री खुद को एक संवेदनशील मुद्दे पर गैर-जिम्मेदार केंद्र सरकार के खिलाफ कानूनी सहायता लेने के लिए खुद को मजबूर पाता है, तो हमारे भारतीय संघवाद के भविष्य के लिए यह अच्छी बात नहीं है.
विचाराधीन कानूनों के प्रति किसानों का तीव्र विरोध एक चिंताजनक सवाल है. देश में अन्य राज्यों सहित सीमावर्ती पंजाब के प्रमुख समुदाय में अलगाव की भावना का पैदा होना, जो पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के आघात को सहन कर चुका है, राज्य में शांति व्यवस्था को अस्थिर कर सकता है और राष्ट्रीय सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है. विधेयकों का व्यापक विरोध हो रहा है जो कि कांग्रेस, टीएमसी, अन्नाद्रमुक, द्रमुक, बीजद, आप, राजद, टीआरएस, अकाली दल और वाम दलों द्वारा इसके खिलाफ आवाज उठाने से स्पष्ट है, जो मांग कर रही हैं कि विधेयकों को राज्यसभा की प्रवर समिति के पास विचारार्थ भेजा जाना चाहिए.
अगर सरकार यह मानते हुए विधेयकों को अधिनियमित कर रही है कि वे किसानों के हित में हैं तो वह राज्य सरकारों सहित हितधारकों को समझाते हुए उनके वैध सवालों का जवाब क्यों नहीं दे रही है? भारत की राजनीतिक वास्तविकताओं की न्यूनतम समझ रखने वाला कोई भी व्यक्ति यह स्वीकार करेगा कि कोई भी पार्टी किसानों के हितों के विरोध में दिखाई देना नहीं चाहेगी.
किसानों के लिए बने इन कानूनों का विरोध करने वालों द्वारा इनको ‘कठोर’ और ‘डेथ वारंट’ के रूप में इसलिए वर्णित किया जा रहा है क्योंकि उनका मानना है कि इससे एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) की सुरक्षा कमजोर पड़ेगी, जो विशेष रूप से कृषक समुदाय के अस्तित्व, निर्वाह और आर्थिक सुरक्षा से जुड़ी है. पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में जहां मंडी व्यवस्था और एमएसपी पर किसानों का हित निर्भर है, इस कानून को खतरे के रूप में देखा जा रहा है. किसान संगठन कृषि के निगमीकरण की दिशा में इसे एक प्रारंभिक कदम के रूप में देख रहे हैैं जिसके अगले कदम की तार्किक परिणति एमएसपी के खात्मे के रूप में होगी. कृषि उपज के मूल्य निर्धारण को बाजार के मुक्त हाथों में खेलने के लिए छोड़ दिए जाने के बारे में किसान आशंकित हैं.
अगर सरकार मानती है कि इन कानूनों के प्रति जनता की धारणा गलत है तो सरकार का यह कर्तव्य था कि वह इस गलत धारणा को दुरुस्त करने के लिए कदम उठाती. लेकिन ऐसा नहीं किया गया है. इसके बजाय, सरकार संसद के बाहर और भीतर, दोनों जगह इस विवादित और विभाजनकारी कानून पर खुली चर्चा से बच रही है. राष्ट्र के किसानों का विरोध झेलने वाली सरकार को निश्चित रूप से शासन करने का नैतिक अधिकार नहीं रह जाता है, यह बात सरकार को समझ लेनी चाहिए.