पंकज चतुर्वेदी का ब्लॉग: वादों में ही क्यों डूब जाते हैं तालाब?
By पंकज चतुर्वेदी | Published: May 11, 2022 11:51 AM2022-05-11T11:51:20+5:302022-05-11T11:54:09+5:30
आपको बता दें कि सरकारी रिकॉर्ड के हिसाब से मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। लेकिन उन में से आज कितनी सही हालत में है और कितनी खत्म ही हो गए, यह एक गौर करने की बात है।
जैसे ही अफसरों तक यह संदेश गया कि आजादी के 75वें साल में अब हर जिले में 75 तालाब खोदे जाने हैं, लाल बस्तों में बंद तालाबों को जिलाने के कई पुराने दस्तावेज नए सिरे से नई राशि के साथ टाइप होने लगे. ईमानदारी की बात तो यह है कि तालाबों के बगैर पानी के संकट से पार पाना मुश्किल है. बीते कई दशकों में इस दिशा में योजनाएं भी बनती दिखीं, नारे व इश्तेहार भी चमके, लेकिन न जाने क्या होता है कि क्रियान्वयन स्तर पर पानी की दौड़ भूजल की ओर ही दिखती है.
2016 में 5 लाख तलाबें बनाने की कही गई थी बात
शायद ही याद हो कि सन् 2016 के केंद्रीय बजट में खेतों में पांच लाख तालाब बनाने की बात की गई थी. उ.प्र. में योगी सरकार-प्रथम के पहले सौ दिनों के कार्य संकल्प में तालाब विकास प्राधिकरण का संकल्प या फिर राजस्थान में कई साल पुराना झील विकास प्राधिकरण या फिर म.प्र. में सरोवर हमारी धरोहर या जल अभिषेक जैसे नारों के साथ तालाब-झील सहेजने की योजनाएं, हर बार लगता है कि अब ताल-तलैयों के दिन बहुरेंगे.
गर्मियां आते ही पानी के किल्लत दिखने लगती है
तभी जब गर्मी शुरू होते ही देश में पानी की मारा-मारी, खेतों के लिए नाकाफी पानी और पाताल में जाते भूजल के आंकड़े उछलने लगते हैं तो समझ आता है कि असल में तालाब को सहजने की प्रबल इच्छा शक्ति में या तो सरकार का पारंपरिक ज्ञान का सहारा न लेना आड़े आ रहा है या फिर तालाबों की बेशकीमती जमीन को धन कमाने का जरिया समझने वाले ज्यादा ताकतवर हैं.
यह अब सभी के सामने है कि सिंचाई की बड़ी परियोजनाओं के व्यय, समय और नुकसान की तुलना में छोटी व स्थानीय सिंचाई इकाई ज्यादा कारगर है. इसके बावजूद तालाबों को सहेजने का जज्बा कहीं नजर नहीं आता. अभी फिर घोषणा हो गई कि आजादी के 75 साल के उपलक्ष्य में हर जिले में 75 तालाब खोदे जाएंगे. लेकिन क्या सोचा गया कि हमें फिलहाल नए तालाबों की जरूरत है या फिर क्या हमारी नई.
अभियांत्रिकी तालाब खोदने के पारंपरिक जोड़-घटाव को समझती है?
एक तो कागजों पर पानी के लिए लोक लुभावना सपना गढ़ने वालों को समझना होगा कि तालाब महज एक गड्ढा नहीं है, जिसमें बारिश का पानी जमा हो जाए और लोग इस्तेमाल करने लगें. तालाब कहां खुदेगा, इसको परखने के लिए वहां की मिट्टी, जमीन पर जल आगमन व निगमन की व्यवस्था, स्थानीय पर्यावरण का खयाल रखना भी जरूरी होता है. वर्ना यह भी देखा गया है कि ग्रेनाइट संरचना वाले इलाकों में कुएं या तालाब खुदे, रात में पानी भी आया और कुछ ही घंटों में किसी भूगर्भ की झिर से कहीं बह गया.
सोच समझकर सही जगह पर ही खोदे तलाब
दूसरा, यदि बगैर सोचे-समझे पीली या दुरमट मिट्टी में तालाब खोदेंगे तो धीरे-धीरे पानी जमीन में बैठेगा, फिर दल-दल बनाएगा और फिर उससे न केवल जमीन नष्ट होगी, बल्कि आसपास की जमीन के प्राकृतिक लवण भी पानी के साथ बह जाएंगे. ऐसे बेतरतीब खोदे कथित तालाबों के शुरुआत में भले ही अच्छे परिणाम आएं, लेकिन यदि नमी, दलदल, लवण बहने का सिलसिला महज पंद्रह साल भी जारी रहा तो उस तालाब के आसपास लाइलाज बंजर बनना वैज्ञानिक तथ्य है.
यदि तालाबों पर ध्यान दें तो यह महज ऐसी प्राकृतिक संरचना मात्र नहीं थे जहां जल जमा हो जाता था. पानी को एकत्र करने के लिए इलाके की जलवायु, न्यूनतम बरसात का आकलन, मिट्टी का परीक्षण, भूजल की स्थिति, सदानीरा, उसके बाद निर्माण सामग्री का चयन, गहराई का गणित जैसी कई बातों का ध्यान रखा जाता है. यह कड़वा सच है कि अंग्रेजीदां इंजीनियरिंग की पढ़ाई ने युवा को सूचनाओं से तो लाद दिया लेकिन देशज ज्ञान उसकी पाठ्यपुस्तकों में कभी रहा नहीं.
नए तालाब के साथ पुराने तालाब पर भी हो सोच-विचार
नए तालाब जरूर बनें, लेकिन आखिर पुराने तालाबों को जिंदा करने से क्यों बचा जा रहा है? सरकारी रिकॉर्ड कहता है कि मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे. सन् 2000-01 में जब देश के तालाब, पोखरों की गणना हुई तो पाया गया कि हम आजादी के बाद कोई 19 लाख तालाब-जोहड़ पी गए. देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढ़े पांच लाख से ज्यादा है, इसमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं.