गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: जातिगत राजनीति की मानसिकता से कब उबरेंगे हम!

By गिरीश्वर मिश्र | Published: February 13, 2023 01:02 PM2023-02-13T13:02:25+5:302023-02-13T13:03:26+5:30

हमारे राजनेता जाति को लेकर बड़े ही संवेदनशील रहते हैं क्योंकि वे एक ओर जाति का विरोध करते नहीं थकते क्योंकि वह विषमताओं का कारण मानी जाती है, दूसरी ओर एक सामाजिक समस्या के रूप में जाति का भरपूर विरोध किया जाता है. 

When will we overcome the mentality of caste politics? | गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: जातिगत राजनीति की मानसिकता से कब उबरेंगे हम!

(प्रतीकात्मक तस्वीर)

Highlightsराजनीतिक जनों को मीडिया में भी सनसनी के नाते अपनी व्याख्या-कुव्याख्या देने का अवसर मिलता है.इन सबके बीच अभिव्यक्ति की आजादी अज्ञान पर टिके वैचारिक प्रदूषण का एक जरिया भी बनती जा रही है.गैरजिम्मेदार, तथ्यहीन बयानबाजी करते रहना राजनीति के खिलाड़ियों का जन्मजात अधिकार जैसा होता जा रहा है.

लोकतंत्र की व्यवस्था में राजनीति की संस्था समाज की उन्नति के लिए एक उपाय के रूप में अपनाई गई. इसलिए सिद्धांततः उसकी प्रतिबद्धता और जिम्मेदारी जनता और देश के साथ ही बनती है. दुर्भाग्यवश दलगत राजनीति के चलते एक-दूसरे के साथ उठने वाली वर्चस्व की तीखी प्रतिस्पर्धा के बीच नेतागण राजनीति के इस बड़े प्रयोजन से आंख मूंद लेते हैं. 

दूसरी ओर वे ऐसे मुद्दों और प्रश्नों को लेकर चिंताओं और विमर्शों को जीवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते जिनके सहारे उनके अपने पक्ष की कुछ भी पुष्टि होती दिखती है या फिर मीडिया में चर्चा के बीच बने रहने के लिए जगह मिल जाती है. इस सिलसिले में ताजी हलचल जाति की प्रतिष्ठा को लेकर मची हुई है. हमारे राजनेता जाति को लेकर बड़े ही संवेदनशील रहते हैं क्योंकि वे एक ओर जाति का विरोध करते नहीं थकते क्योंकि वह विषमताओं का कारण मानी जाती है, दूसरी ओर एक सामाजिक समस्या के रूप में जाति का भरपूर विरोध किया जाता है. 

पर यह बात वे सिर्फ सिद्धांत में ही स्वीकार करते हैं. व्यवहार के स्तर पर जमीनी हकीकत में वे जाति को एक राजनीतिक हथियार की तरह से इस्तेमाल करते हैं. वे जानते हैं कि चुनाव में वोट उसी के आधार पर बटोरना होगा. विचार और व्यवहार की यह कठिन दुविधा अब देश की नियति हो चुकी है. यह एक ऐसी खाई है जिसे भारतीय राजनीति पार करने या पाटने के लिए अपने को तैयार नहीं कर पाती. 

ऐसे में जातिविरोधी जाति की जयकार करते भी नहीं अघाते. उनका असमंजस यही है कि जाति ठीक तो नहीं है पर जाति जाए भी नहीं और इस तरह जाति-विरोध और जाति-सुरक्षा दोनों पर एक ही वक्ता सजधज कर मंच पर बैठे मिलते हैं. जाति को आसानी से 'धर्म' से जोड़ दिया जाता है, फिर जाति और वर्ण को इच्छानुसार मिला दिया जाता है और उसे पाप मानते हुए अपनी सुविधानुसार किसी के भी ऊपर ठीकरा फोड़ा जाता है. 

यह कहानी जब तब दुहराई जाती रहती है, खास तौर पर तब जब हाथ में कुछ नहीं रहता और चुनाव आदि की आहट के बीच बढ़ते वैचारिक शून्य को भरने की उतावली रहती है. इस बीच गोस्वामी बाबा तुलसीदास पर हाथ साफ किया जा रहा है. राजनीतिक जनों को मीडिया में भी सनसनी के नाते अपनी व्याख्या-कुव्याख्या देने का अवसर मिलता है. 

इन सबके बीच अभिव्यक्ति की आजादी अज्ञान पर टिके वैचारिक प्रदूषण का एक जरिया भी बनती जा रही है. व्यक्ति के रूप जो कोई कुछ करना और कहना चाहे उसके लिए वह जरूर स्वतंत्र है लेकिन यह चिंता का विषय है कि आज हवा-हवाई बात करना एक राजनीतिक शगल होता जा रहा है. गैरजिम्मेदार, तथ्यहीन बयानबाजी करते रहना राजनीति के खिलाड़ियों का जन्मजात अधिकार जैसा होता जा रहा है.

Web Title: When will we overcome the mentality of caste politics?

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