Karbi-Anglong peace accord 2021: शांति समझौते से असम के कार्बी इलाके में बहाल हो पाएगी शांति?
By दिनकर कुमार | Published: September 11, 2021 09:28 AM2021-09-11T09:28:26+5:302021-09-11T09:30:11+5:30
. समझौते का उद्देश्य दशकों पुराने संकट को समाप्त करना और असम की क्षेत्नीय अखंडता को सुनिश्चित करना है.
केंद्र, असम सरकार और असम के उग्रवादी समूहों ने राज्य के कार्बी-आंगलोंग जिले में शांति लाने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं. इसका एक ऐतिहासिक कदम के रूप में स्वागत किया गया है. समझौते का उद्देश्य दशकों पुराने संकट को समाप्त करना और असम की क्षेत्नीय अखंडता को सुनिश्चित करना है.
महीनों बाद सशस्त्न संगठनों के 1000 से अधिक सदस्य आत्मसमर्पण करने और हिंसा का रास्ता छोड़ने के लिए आगे आए. लेकिन समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद कार्बी आंगलोंग में विरोध प्रदर्शन भी शुरू हो गए हैं.
समझौते का मुख्य आकर्षण राज्य के लिए पांच साल की अवधि के लिए 1000 करोड़ रु पए के विशेष विकास पैकेज का निर्माण है जो ‘कार्बी क्षेत्नों के विकास के लिए विशिष्ट परियोजनाओं’ को निधि देगा.
कार्बी-आंगलोंग भौगोलिक क्षेत्न के मामले में असम का सबसे बड़ा जिला है और मुख्य रूप से एक जनजातीय आबादी का घर है जिसमें कार्बी, बोडो, कुकी, डिमासा, हमार, गारो, रेंगमा नागा, तिवा और मैन समुदायों के सदस्य शामिल हैं.
2011 की जनगणना के अनुसार जिले की 10 लाख की आबादी में 46 प्रतिशत से अधिक लोग कार्बी समुदाय के हैं. एक ऐसे राज्य और क्षेत्न में जो इस प्रकार बहुसंख्यक जातियों का घर है, सशस्त्न संगठनों का उदय हुआ जिसका उद्देश्य न केवल भारतीय राज्य को चुनौती देना था बल्कि समूह के हितों और पहचान की रक्षा करना भी था.
केंद्रीय महिला एवं बाल विकास (डब्ल्यूसीडी) मंत्नालय की एक रिपोर्ट में कहा गया है, ‘भारत के पूर्वोत्तर में अशांति न केवल विभिन्न जातीय समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाले सशस्त्न अलगाववादी समूहों द्वारा केंद्रीय या स्थानीय सरकारों या उनके प्रतीकों से लड़ने के कारण या तो पूर्ण स्वतंत्नता या स्वायत्तता के लिए दबाव डालने के कारण होती है, बल्किविभिन्न जातीय समूहों के बीच क्षेत्नीय वर्चस्व के लिए लड़ाई के कारण भी होती है.’
असम में पहला सशस्त्न विद्रोह 1979 में अलगाववादी यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) द्वारा शुरू किया गया था, जो एक अलग ‘संप्रभु, समाजवादी असम’ की मांग कर रहा था. फिर, 1980 के दशक में, नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ असम के नेतृत्व में बोडोलैंड आंदोलन सामने आया. इसने बोडो के लिए एक स्वतंत्न राज्य बनाने की मांग की.
उल्फा और बोडो विद्रोह के अलावा, असम कार्बी और डिमासा जनजातियों और आदिवासियों द्वारा शुरू किए गए विद्रोही आंदोलनों से प्रभावित हुआ है. कार्बी और डिमासा ने अपनी मातृभूमि के लिए स्वायत्तता की मांग की है जबकि आदिवासियों ने अपने अधिकारों की अधिक मान्यता की मांग की है.
कार्बी के लिए एक अलग राज्य की मांग कई दशकों से चली आ रही है, इस आंदोलन ने 1990 के दशक के मध्य में हिंसक रूप ले लिया. दो समूह-कार्बी नेशनल वालंटियर्स (केएनवी) और कार्बी पीपुल्स फोर्स (केपीएफ)-का गठन 1996 में किया गया था, जिनका 1999 में यूनाइटेड पीपुल्स डेमोक्रेटिक सॉलिडेरिटी (यूपीडीएस) के बैनर तले विलय हो गया था. हालांकि 2002 तक यूपीडीएस ने भारत सरकार के साथ युद्धविराम समझौता किया था और 2011 तक औपचारिक रूप से भंग कर दिया था.
1995 में भारतीय संविधान की छठी अनुसूची के तहत कार्बी आंगलोंग स्वायत्त परिषद की स्थापना की गई, जिसमें असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के आदिवासी क्षेत्नों के प्रशासन के प्रावधान शामिल हैं.
हालांकि, जैसा कि पूर्वोत्तर में कई विद्रोहों के मामले में हुआ है, वार्ता की मेज पर आने और एक समूह के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने से अक्सर उस समूह के भीतर विभाजन हो जाता है और एक नए गुट का निर्माण होता है जो बातचीत का विरोध करता है. इस तरह के कदम व्यावहारिक रूप से शांति समझौते के प्रभाव को समाप्त कर देते हैं.
यूपीडीएस 2004 में विभाजित हो गया और वार्ता विरोधी गुट कार्बी लोंगरी नॉर्थ कछार हिल्स लिबरेशन फ्रंट (केएलएनएलएफ) का गठन किया गया. फिर केएलएनएलएफ ने 2010 में हथियार डाल दिए. उसकी जगह एक अन्य विद्रोही समूह कार्बी पीपुल्स लिबरेशन टाइगर्स (केपीएलटी) का जन्म हुआ.
4 सितंबर को समझौते पर हस्ताक्षर के बाद कार्बी-आंगलोंग जिले की रिपोर्टो में कहा गया है कि कार्बी-आंगलोंग में जातीय समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाले 24 से अधिक संगठन यह कहते हुए समझौते के खिलाफ सामने आए हैं कि वे संविधान के अनुच्छेद 244 (ए) के प्रावधान के तहत एक स्वायत्त राज्य के निर्माण की मांग पर अडिग बने हुए हैं.