ब्लॉग: व्लादिमीर पुतिन का भारत दौरा, रूस के लिए भारत भी एक स्वाभाविक जरूरत

By राजेश बादल | Published: December 7, 2021 08:50 AM2021-12-07T08:50:28+5:302021-12-07T08:52:29+5:30

भारत की विदेश नीति के नजरिये से देखें तो बीते सात-आठ साल चिंता में डालने वाले रहे हैं. आमतौर पर सत्ता परिवर्तन के साथ कभी भी हिंदुस्तान की विदेश नीति में कोई बड़ी तब्दीली या विचलन नहीं हुआ करता था.

Vladimir Putin short visit to India and its what are its strategic meaning | ब्लॉग: व्लादिमीर पुतिन का भारत दौरा, रूस के लिए भारत भी एक स्वाभाविक जरूरत

भारत और रूस के रिश्तों मे फिर आ रही है गर्माहट! (फोटो- ट्विटर)

कभी-कभी झटके भी जिम्मेदार बनाते हैं. वे इंसान की जिंदगी में हों या किसी देश की. हिंदुस्तान और रूस के बारे में कुछ ऐसा ही है. दशकों तक मित्रता और भरोसेमंद साथी बने रहने के बाद रिश्तों में ठंडापन और ठहराव सा आ गया था. दोनों मुल्क एक-दूसरे के स्वाभाविक प्रतिद्वंद्वियों के साथ निकटता दिखाने लगे थे. 

भारत खुल्लम-खुल्ला अमेरिका के पाले में चला गया तो रूस ने भी चीन और पाकिस्तान के साथ पींगें बढ़ानी शुरू कर दी थीं. लेकिन समय रहते दोनों ताकतवर देशों को अहसास हो गया कि प्रेम की यह नई डगर कांटों भरी है और उन्होंने अपने बढ़े कदमों पर अंकुश लगा लिया. बेमेल ब्याह कामयाब भी नहीं होते. इस प्रसंग में राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा एक तरह का विश्वास यज्ञ है, जिसकी लौ भारत और रूस को जलाए रखनी पड़ेगी. 

भले ही आज के विश्व में दक्षिणपंथी ताकतों का दबदबा है मगर यह भी सच है कि आज की दुनिया में अंतरराष्ट्रीय संबंधों में वैचारिक आधार का कोई अर्थ नहीं रहा है. इन दिनों व्यापारिक हित ही संबंधों की धुरी में होते हैं.

भारत की विदेश नीति के नजरिये से देखें तो बीते सात-आठ साल चिंता में डालने वाले रहे हैं. आमतौर पर सत्ता परिवर्तन के साथ कभी भी हिंदुस्तान की विदेश नीति में कोई बड़ी तब्दीली या विचलन नहीं हुआ करता था. लेकिन हालिया वर्षो में वैदेशिक संतुलन से हटते हुए भारत का पलड़ा अमेरिका की ओर झुकता दिखाई दिया. इससे लाभ कम, नुकसान अधिक हुआ है. 

अपवाद छोड़ दें तो आजादी के बाद से ही अमेरिका और भारत के रिश्ते सामान्य ही रहे हैं. उनमें बहुत गर्मजोशी और खुलापन कम ही रहा है. अमेरिकी नीति शुरू से ही पाकिस्तान को समर्थन देने की रही. कश्मीर समस्या को उलझाने में सबसे बड़ा हाथ उसी का रहा है. इसके अलावा भारत जब जबरदस्त खाद्यान्न संकट से जूझ रहा था तो उसका रवैया बहुत सकारात्मक नहीं था. 

इंदिरा गांधी ने जब पहला परमाणु परीक्षण किया तो अमेरिकी प्रतिक्रिया भारत के अनुकूल नहीं थी. वह भारत को पिछलग्गू बनाना चाहता था, लेकिन नेहरू, इंदिरा, मोरारजी देसाई, राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे प्रधानमंत्रियों ने राष्ट्रीय स्वाभिमान का ध्यान रखते हुए उसकी मंशा पूरी नहीं होने दी. इंदिरा गांधी ने तो हमेशा अमेरिका की हेकड़ी बंद करके रखी. 

इधर हाल के दौर में संभवतया पाकिस्तान को अलग-थलग करने और चीन पर एक दबाव बनाए रखने के कूटनीतिक प्रयासों के चलते हिंदुस्तान अमेरिका की ओर झुक गया. अमेरिका ने थोड़े समय तो कुछ संयम दिखाया, मगर अफगानिस्तान से अपना पिंड छुड़ाने और तालिबान से समझौता करने के लिए पाकिस्तान पर भरोसा किया और भारत की सारी मेहनत पर पानी फिर गया. 

इस पृष्ठ पर मैंने अनेक विश्लेषणों में अमेरिका को एक अविश्वसनीय देश माना है. वह सदैव अपना स्वार्थ देखता है. वह एशिया में रूस और चीन की घेराबंदी के लिए भारत के कंधे से बंदूक चलाना चाहता था. जाहिर है कि यह संभव नहीं था. इसके उलट दिवालियेपन के कगार पर खड़े पाकिस्तान को अपने प्रभाव में लेना आसान था. जिस देश में बहस का यह मुद्दा बन जाए कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुने जाने के बाद जो बाइडेन ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को फोन नहीं किया तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान के लिए अमेरिका क्या मायने रखता है. 

दशकों तक वह अमेरिकी आर्थिक मदद से सांस लेता रहा है. चतुर व्यापारी चीन तक उसे इस तरह सहायता नहीं करता. चीन ने उसे शर्तो के मकड़जाल में फांस रखा है और पाकिस्तान उससे चाहकर भी नहीं निकल सकता इसलिए उसने तालिबान से समझौता कराकर अमेरिका की गोद में बैठने का एक और प्रयास किया है.

रूस को स्वाभाविक दोस्त इसलिए भी मान सकते हैं कि भौगोलिक और ऐतिहासिक स्थितियां उसे भारत के निकट लाती हैं. दोनों देशों के बीच सामाजिक, सांस्कृतिक, सैनिक और आर्थिक सहयोग का एक लंबा सिलसिला है. बांग्लादेश जन्म के समय पाकिस्तान-भारत जंग के दौरान अमेरिका खुलकर पाकिस्तान के संग खड़ा था और रूस ने हिंदुस्तान का साथ दिया था. 

खाद्यान्न संकट के समय भी रूस ने भरपूर अनाज मुहैया कराया था. इसके अलावा भिलाई स्टील प्लांट से लेकर कलपक्कम संयंत्न तक रूस का सहयोग एक परंपरा बना हुआ है. सुरक्षा के मद्देनजर ताजा समझौते से भले ही अमेरिका खफा हो जाए लेकिन यह हिंदुस्तान की आवश्यकता है और इस प्रणाली को पाने के बाद भारत की रक्षा और मजबूत हुई है. यह तथ्य भारतीय कभी नहीं भूल पाते. 

इसके अलावा चीन से रूस का जंगी अतीत रहा है. भले ही एक जमाने में रूस ने जापान के हमले के समय चीन की भरपूर सैनिक मदद की थी, लेकिन उसी चीन ने रूस के साथ युद्ध भी लड़ा. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी रूस की गोद में पली-बढ़ी है. पर आज का चीन उन उपकारों को भूल चुका है. 

रूस नहीं भूल सकता कि युद्ध के बाद उसे चीन को अपने कई द्वीप देने पड़े थे. तब कोसिगिन ने इंदिरा गांधी के साथ रक्षा संधि की थी. इसलिए रूस कितना ही चीन से संबंधों में मधुरता बनाए, दिलों की कड़वाहट दूर नहीं हो सकती.

बीते दिनों रूस ने भारत की तुलना में अधिक संयम और समझदारी से काम लिया. उसने पाकिस्तान के साथ निकटता की चाल तो चली लेकिन पाकिस्तान को पास नहीं आने दिया. वह सिर्फ भारत के लिए एक संदेश था. भारत और रूस के संबंधों की गहराई क्या इस बात से साबित नहीं होती कि व्लादिमीर पुतिन नौ बार भारत आ चुके हैं और पाकिस्तान उनके लिए अभी तक पलक पांवड़े बिछाए बैठा है.

Web Title: Vladimir Putin short visit to India and its what are its strategic meaning

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