विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: देश को बांटने की नहीं, जोड़ने की कोशिश करें
By विश्वनाथ सचदेव | Published: June 11, 2020 01:48 PM2020-06-11T13:48:09+5:302020-06-11T13:48:09+5:30
पिछले 3 महीनों में हमने देखा है कि उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी अपने राज्य के प्रवासी मजदूरों को लेकर इसी तरह की मानसिकता का परिचय दिया है. राज्यों की सीमाएं सील कर दी गर्इं. कोविड-19 के संक्रमण के खतरे के नाम पर इन मजदूरों के आवागमन पर रोक लगा दी गई.
दिल्ली देश की राजधानी है, पर देश के नागरिक दिल्ली के नागरिक नहीं हैं. नहीं, यह कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है, यह तो मतलब है उस बात का जो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में इलाज के लिए आए मरीजों के बारे में कही है. कोविड-19 से राजधानी दिल्ली को उबारने के लिए अपनी अब तक की विफलता के दाग को अपने चेहरे से मिटाने के लिए कोई राजनेता क्या कर सकता है, उसका एक उदाहरण है राजधानी दिल्ली के मुख्यमंत्री का इस आशय का बयान. उनका कहना-मानना है कि दिल्ली सरकार के अस्पतालों में दिल्ली के मरीजों के लिए पर्याप्त जगह नहीं है, इसलिए दिल्ली के बाहर से आए मरीजों को इलाज के लिए भर्ती नहीं किया जा सकता. वे चाहें तो दिल्ली में केंद्र सरकार के अस्पतालों में इलाज करा सकते हैं. आंकड़े देकर बताया गया है कि दिल्ली के कोविड-19 संक्रमितों के इलाज के लिए जून के अंत तक 15 हजार अतिरिक्त बिस्तरों की आवश्यकता होगी, जबकि दिल्ली सरकार द्वारा संचालित अस्पतालों में वर्तमान व्यवस्था 10 हजार बिस्तर की है!
एक कहानी पढ़ी थी बचपन में. गणित के एक अध्यापक अपने बेटे को साथ लेकर नदी पार कर रहे थे. उन्होंने नदी की औसत गहराई नापी. 4 फुट थी. उनका बेटा 5 फुट का था. गणित के हिसाब से वह सुरक्षित नदी पार कर सकता था. पर नदी के मध्य तक ही पहुंच पाया वह और डूब गया. अध्यापक महोदय ने फिर हिसाब लगाया. औसत गहराई 4 ही फुट थी. उन्होंने अपने आप से कहा कि बेटा गया तो गया, पर मेरा हिसाब गलत नहीं था!
मुझे लग रहा है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री का हिसाब भी गलत नहीं है, पर इसके चलते देश की नागरिकता का अर्थ खतरे में पड़ रहा है. सवाल दिल्ली सरकार या केंद्र सरकार का नहीं है, सवाल देश के उस बीमार नागरिक का है जिसे देश के संविधान ने देश में कहीं भी जाने, रहने, बसने का अधिकार दिया है. इसके साथ ही समानता का अधिकार हमारे संविधान के चार पायों में से एक है. ‘मेरी जिम्मेदारी दिल्ली के नागरिकों के प्रति है’ कह कर राज्य के मुख्यमंत्री देश के नागरिकों के प्रति अपने कर्तव्य से मुंह चुरा रहे हैं. यह गलती नहीं, अपराध है. हालांकि दिल्ली के राज्यपाल ने मुख्यमंत्री के आदेश को निरस्त कर दिया है, पर इससे अपराध की गंभीरता कम नहीं होती.
फिर, बात सिर्फ मरीजों के इलाज तक ही सीमित नहीं है और दिल्ली के मुख्यमंत्री ही इस संदर्भ में अपराधी नहीं हैं. पिछले 3 महीनों में हमने देखा है कि उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी अपने राज्य के प्रवासी मजदूरों को लेकर इसी तरह की मानसिकता का परिचय दिया है. राज्यों की सीमाएं सील कर दी गर्इं. कोविड-19 के संक्रमण के खतरे के नाम पर इन मजदूरों के आवागमन पर रोक लगा दी गई.
महाराष्ट्र में बसा मजदूर बिहार लौटना चाहता था, पर रास्ते में ही उत्तर प्रदेश या मध्य प्रदेश की सीमा पर उसे रोक दिया गया. यूपी की सरकार अपने विद्यार्थियों को राजस्थान से लाने के लिए बसें कोटा भेजती है, गुजराती मजदूरों को उत्तराखंड से वापस लाने के लिए गुजरात की सरकार बसें भेजती है, पर वह यह जरूरी नहीं समझती कि इन्हीं बसों से गुजरात में फंसे उत्तराखंड के मजदूरों को ले जाया जाए. यह सब उसी बीमार मानसिकता के उदाहरण और परिणाम हैं जो भारत को टुकड़ों में बांट कर देखती है.
पहले भी इस तरह के उदाहरण देखने को मिलते रहे हैं. रोजगार की कमी के नाम पर उत्तर भारत से महाराष्ट्र में आए प्रवासियों को रोकने की कोशिशें और उसके परिणाम देश देख चुका है, बंगाल और तमिलनाडु में भी इसी तरह परप्रांतियों को अवांछित घोषित किया गया था. असम और मणिपुर में भी इस मानसिकता को देखा जा चुका है.
दिल्ली के मुख्यमंत्री ने मरीजों के संदर्भ में एक बात और कही है. उनका दावा है कि उन्होंने दिल्ली के लोगों से पूछा था और 95 प्रतिशत दिल्ली वालों ने इस बात का समर्थन किया है कि दिल्ली के बाहर से आने वाले मरीजों को दिल्ली सरकार के अस्पतालों में इलाज की सुविधा नहीं मिलनी चाहिए. यदि यह सच है तो सवाल दिल्ली के नागरिकों पर भी उठता है. अच्छा होता कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अपने मतदाताओं से इस तरह का सवाल नहीं पूछते. अच्छा होता कि यदि देश की राजधानी के नागरिक देश के हर नागरिक के अधिकार की दुहाई देकर अपने मुख्यमंत्री से कहते कि देश को बांटने की मानसिकता का परिचय न दें.
धर्म, जाति, क्षेत्रीयता, भाषा के नाम पर देश का कोई भी बंटवारा स्वीकार्य नहीं होना चाहिए. होना तो यह चाहिए था कि हमारी राजधानी के नागरिक दिल्ली राज्य और केंद्र की सरकारों से यह मांग करते कि हर मरीज का इलाज व्यवस्था का कर्तव्य है. राज्यों का गठन भले ही किसी भी आधार पर हुआ हो, उसका एक महत्वपूर्ण उद्देश्य व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाना है. अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए, या फिर अपनी विफलताओं का ठीकरा किसी और के सिर पर फोड़ने के लिए किसी भी रूप में क्षेत्रीयता की भावना को बढ़ावा देने का मतलब भारत को कमजोर बनाना है.
तर्कों का गणित और गणित के तर्कठीक हो सकते हैं, पर सवाल उस बच्चे की जिंदगी बचाने का है जो औसत के चक्कर में बीच नदी में डूब गया. हमारे नेताओं को और हमारी राजनीति के कर्णधार होने का दावा करने वालों को इस बात को समझना होगा कि देश के हर नागरिक का हित उनके स्वार्थों से कहीं ऊंचा है. कब समझेंगे वे?