विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: मानवीय संवेदना की यह मिसाल पूरे समाज में दिखे
By विश्वनाथ सचदेव | Published: August 22, 2019 05:50 AM2019-08-22T05:50:51+5:302019-08-22T05:50:51+5:30
क्या धर्म जाति आदि के नाम पर हाथ उठाते समय व्यक्ति सचमुच यह भूल जाता है कि मारने वाले हाथ भी इंसान के हैं और जो अपने हाथों से वार बचाने का प्रयास कर रहा है वह भी इंसान है? क्यों भूल जाता है व्यक्ति इंसानियत को?
खबर तो पहले कहीं पढ़ी थी, पर वह चित्र मैं पहली बार देख रहा था. चित्र एक अफगान सैनिक का था जिसके दोनों हाथ एक बम विस्फोट में चले गए थे. 30 वर्षीय कैप्टन अब्दुल रहीम भारत के कोच्चि में इलाज के लिए आया था और कोच्चि के अमृता इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिसिन के डॉक्टरों की टीम ने उसे नए हाथ देकर एक नया जीवन दे दिया. खबर के अनुसार रहीम को यह हाथ मैथ्यू जॉर्ज नाम के एक व्यक्ति से मिले थे.
एक बाइक दुर्घटना में घायल होने के बाद मैथ्यू जॉर्ज को ‘ब्रेन डेड’ घोषित कर दिया गया था. मैथ्यू की बेटी पत्नी और भाई ने अंगदान का निर्णय लिया और तभी डॉक्टरों ने उन्हें बताया कि एक मरीज को दो हाथों की आवश्यकता है यदि उन्हें स्वीकार्य हो तो मैथ्यू के हाथ उस मरीज को नया जीवन दे सकते हैं.
परिवार की सहमति के बाद एक दुरूह ऑपरेशन करके रहीम को 28 डॉक्टरों की एक टीम ने नया जीवन दे दिया. डॉक्टरों की टीम का नेतृत्व डॉक्टर सुब्रह्मण्यम अय्यर कर रहे थे. उनके लिए यह अपने ढंग का दूसरा ऑपरेशन था. वैसे दुनिया भर में इस तरह के कुल 80 ऑपरेशन हो चुके हैं. हाथ प्रत्यारोपण का पहला ऑपरेशन 17 साल पहले हुआ था.
कैप्टन अब्दुल रहीम ऑपरेशन के बाद लगभग सालभर भारत में रहे थे और अब पूर्ण स्वस्थ होकर अपने देश अफगानिस्तान लौट गए हैं. भारत में इलाज के दौरान वे मैथ्यू जॉर्ज की पत्नी और बेटी से भी मिले थे और तब एक चुप्पी ने वहां जैसे सब को घेर लिया था. जिस चित्र की चर्चा मैंने ऊपर की है वह इसी भेंट का था. चित्र में रहीम की आंखों में झलकती कृतज्ञता बहुत कुछ कहती दिख रही थी. मैथ्यू की पत्नी और बेटी की आंखों में आंसू थे पर एक मुस्कान भी झलक रही थी उन आंसुओं में.
साथ ही डॉ. सुब्रह्मण्यम अय्यर भी मुस्कुराते खड़े थे. तब इन सब ने क्या बात की होगी पता नहीं, पर उस समय के चित्र को देखना भी एक अनुभव था. मैथ्यू की बेटी की निगाहें रहीम के नए हाथों पर थीं. उन निगाहों में मृत पिता के शरीर के जीवित अंग को देखने के संतोष का भाव स्पष्ट झलक रहा था.
खुशी भरी एक हैरानी भी थी वहां. कुछ ऐसा ही मैथ्यू की पत्नी के चेहरे से भी झलक रहा था. रहीम की आंखों में कृतज्ञता थी, बेटी और पत्नी की आंखों में संतोष और डॉक्टर की आंखों में कुछ अनोखा कर पाने की खुशी. लेकिन यह कृतज्ञता, यह संतोष, यह खुशी, मेरे उन भावों को व्यक्त नहीं कर पा रहे हैं जो उस चित्र को देखकर मेरे मन में उठे थे. मानवीय करुणा और संवेदना उस सारे चित्र पर छायी थी.
चित्र के कैप्शन ने अनायास एक और तथ्य की तरफ ध्यान दिलाया. अब्दुल रहीम, मैथ्यू जॉर्ज और सुब्रह्मण्यम अय्यर- एक मुसलमान, एक ईसाई और एक हिंदू. मानवीय संवेदनाओं और मानवीय उपलब्धि की इस जय-गाथा में धर्म नाम की किसी चीज के लिए, कहीं जगह नहीं थी. फिर भी यह हकीकत कुछ कह रही थी. हकीकत यह भी है कि ऑपरेशन से पहले किसी के ध्यान में तीन धर्मों वाली बात नहीं आई. न मैथ्यू के परिवार ने सोचा कि वह एक मुसलमान के लिए अंगदान कर रहा है और न रहीम को यह लगा कि एक ईसाई का अंग उसे नया जीवन दे रहा है और डॉक्टर ने भी जो कुछ किया वह एक मनुष्यता के नाते ही किया. मानवीय एकता, समानता और मानवीय संवेदनाओं की महत्ता का एक शानदार उदाहरण है यह पूरा किस्सा. रहीम को हर पल यह याद आता रहेगा कि उसके हाथ, एक ईसाई का उपहार हैं उसे. और वह यह कभी नहीं भूल पाएगा कि नए जीवन का यह चमत्कार एक हिंदू की देन है.
इस घटना का यह सत्य वस्तुत: हमारे जीवन का सच है. समूचे जीवन का सच. जाति, धर्म, वर्ग, वर्ण, ऊंच-नीच, यह सब वह सच नहीं है जो जीवन को अर्थ देता है. वह सच तो इस भाव को जीने में है कि हम सब मनुष्य हैं और मनुष्य होने के नाते समान हैं. और हमारी विडंबना है कि इस सच को समझना नहीं चाहते.
मैंने रहीम का वह चित्र फेसबुक पर देखा था. उसी के साथ एक और चित्र भी था. वह किसी अलग व्यक्ति ने डाला था और संदर्भ भी अलग था. वह चित्र भीड़ की हिंसा वाले कांड से संबंधित था जिसमें अलवर के पहलू खान को मारते हुए दिखाया गया था. संदर्भ न्यायालय द्वारा कांड के अभियुक्तों को संदेह का लाभ देते हुए निरपराध घोषित करने वाले निर्णय का था. अलवर में हुई यह अमानुषिक घटना भीड़ की हिंसा के उदाहरणों में से एक है जिनमें धर्म के नाम पर किसी की जान ले लेने को अनुचित या अपराध नहीं माना गया. निश्चित रूप से इस तरह की घटनाओं के लिए किसी सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं होना चाहिए.
इस कांड में न्यायालय के निर्णय को लेकर देश में बहस चल रही है. चलनी भी चाहिए. पहलू खान की हत्या हुई है. किसी न किसी ने हत्या की ही होगी. उसे सजा मिलनी ही चाहिए. अब तक ऐसा न हो पाने के लिए हमारे समाज और हमारी व्यवस्था दोनों को दोषी ठहराया जाना चाहिए. लेकिन यहां सवाल यह है कि क्या पहलू खान को पीट-पीटकर मार देने वालों को यह कतई नहीं लगा होगा कि वह मुसलमान होने के अलावा एक इंसान भी है?
क्या धर्म जाति आदि के नाम पर हाथ उठाते समय व्यक्ति सचमुच यह भूल जाता है कि मारने वाले हाथ भी इंसान के हैं और जो अपने हाथों से वार बचाने का प्रयास कर रहा है वह भी इंसान है? क्यों भूल जाता है व्यक्ति इंसानियत को?
हमारी विडंबना यह है कि हम धर्म का नाम तो लेते हैं पर उसे समझते नहीं. जब हम धर्म को समझ लेंगे तो हमारी आंखों में भी जॉर्ज की बेटी की आंखों वाली चमक होगी- मनुष्यता की चमक. मनुष्यता ही मनुष्य का धर्म है.