लाइव न्यूज़ :

विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः ‘जंगल-राज’ की हिमायत करना ठीक नहीं

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: July 25, 2019 13:36 IST

यह विडंबना ही है कि ऐसी ‘गलत बात’ और ‘गलत सोच’ को प्रधानमंत्नी तक के हस्तक्षेप के बावजूद स्वीकार्यता मिली रहती है. सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर द्वारा महात्मा गांधी के हत्यारे को ‘देशभक्त’ कहे जाने पर प्रधानमंत्नी ने कहा था, वे ऐसा कहने वाले को कभी मन से क्षमा नहीं कर पाएंगे. फिर क्या हुआ? कुछ भी नहीं.

Open in App

उस दिन देश में दो घटनाएं एक साथ हुईं: पहली भारत के चंद्रयान की सफल उड़ान की, और दूसरी जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल द्वारा आतंकवादियों को यह सलाह देने की कि पुलिस और सेना के लोगों को मारने के बजाय वे भ्रष्टाचारियों पर गोलियां चलाएं. वैसे देखा जाए तो इन दो घटनाओं को एक साथ रखकर देखने का कोई तुक दिखाई नहीं देता, पर दोनों का विरोधाभास कुछ कहता-सा लगता है. एक ओर ‘चंदा मामा’ को नजदीक लाने की कोशिश है जो हमें विज्ञान की विकास-यात्ना में शानदार भागीदारी का प्रमाणपत्न देती है और दूसरी ओर है वह आदिम सोच जो हमें मनुष्य की विकास-यात्ना में सदियों पीछे धकेल रही है. यह आदिम सोच नहीं तो और क्या है कि देश का एक राज्यपाल भ्रष्टाचारियों के खिलाफ लड़ाई को इक्कीसवीं सदी में ‘जंगल-राज’ में बदलने की सलाह दे रहा है.

जंगल-राज से कानून के शासन तक पहुंचने में मनुष्य को युगों लग गए हैं. यह कानून का शासन एक व्यवस्था देता है. इस व्यवस्था में अपराधी को सजा देने की एक निश्चित प्रणाली है. आरोप के संदर्भ में पक्ष-विपक्ष की बात सुनी जाती है, आरोप प्रमाणित होने पर ही कानून के अनुसार सजा सुनाई जाती है. नागरिकों में कानून के प्रति सम्मान का भाव सभ्य समाज की एक पहचान माना जाता है और यह विश्वास कि कानून के शासन में अपराधी को सजा मिलेगी, एक स्थापित व्यवस्था और निश्चित प्रक्रिया को सामने लाता है. कानून के शासन का तकाजा है कि व्यक्ति कानून को अपने हाथ में न ले, व्यवस्था को अपना काम करने दे. लेकिन जब राज्यपाल जैसे जिम्मेदार पद पर बैठा व्यक्ति खुलेआम यह सलाह देने लगे कि भ्रष्टाचारियों को गोली मार दो, तो यह सोचना जरूरी हो जाता है कि राज्यपाल महोदय कानून के शासन में विश्वास करते भी हैं या नहीं?

गुस्से में कभी-कभी मुंह से कुछ अनुचित भी निकल जाता है, पर ऐसे में विवेकशील व्यक्ति गलती का अहसास होने या कराए जाने पर क्षमा मांग लेता है. जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल महोदय को भी जब यह अहसास हुआ तो उन्होंने अपनी बात पर खेद व्यक्त किया है, पर उनका यह खेद भी दिखावा मात्न लग रहा है. उन्होंने कहा कि एक राज्यपाल के रूप में उन्हें यह बात नहीं कहनी चाहिए थी, वे गुस्से और निराशा में आतंकवादियों से यह कह बैठे कि वे भ्रष्टाचारियों को अपना निशाना बनाएं. पर उन्होंने इसके साथ यह जोड़ना जरूरी समझा कि एक व्यक्ति के रूप में अब भी उनकी यही राय है.   गलत है यह. कानून के शासन का तकाजा है कि आरोप प्रमाणित हो जाने के बाद ही तय प्रक्रिया के अनुसार अपराधी को सजा दी जाए. सभ्य समाज में ऐसा ही होना चाहिए. ‘मॉब लिंचिंग’ यानी आरोपी को पीट-पीट कर मार देना जिस मानसिकता का उदाहरण है उसमें कानून के शासन को अक्षम और अपर्याप्त समझा जाता है. आए दिन हम भीड़-तंत्न की इस मानसिकता के उदाहरण देख रहे हैं. जम्मू-कश्मीर में यदि भ्रष्टाचार फैला हुआ है, यदि नौकरशाह और राजनेता भ्रष्टाचारी हैं तो उनके खिलाफ कठोर से कठोर कार्रवाई होनी चाहिए. सजा भी मिलनी चाहिए उन्हें. पर यदि कोई राज्यपाल आतंकवादियों को खुलेआम यह संकेत दे कि ऐसे अधिकारियों और नेताओं को गोली मार सकते हैं, तो यह न केवल अराजकता का स्वीकार है, बल्कि यह कानून के शासन की अक्षमता को भी स्वीकारना होगा.

 इस प्रवृत्ति को रेखांकित किया जाना जरूरी है जिसके चलते अक्सर हमारे राजनेता कुछ भी कहने की आजादी को अपना विशेषाधिकार समझ लेते हैं. बात यहीं नहीं थमती. जब उन्हें यह अहसास कराया जाता है कि ऐसा कहकर उन्होंने गलत काम किया है, तो वे इसे अपना ‘निजी विचार’ कह कर बच निकलने की कोशिश करते हैं. मान लिया जाता है कि बात यहीं खत्म हो गई. जबकि ऐसा होता नहीं. अक्सर वह गलत बात, जिसे ‘व्यक्तिगत विचार’ कहकर महत्वहीन मान लिया जाता है, एक गलत सोच को प्रश्रय देने वाली होती है.

यह विडंबना ही है कि ऐसी ‘गलत बात’ और ‘गलत सोच’ को प्रधानमंत्नी तक के हस्तक्षेप के बावजूद स्वीकार्यता मिली रहती है. सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर द्वारा महात्मा गांधी के हत्यारे को ‘देशभक्त’ कहे जाने पर प्रधानमंत्नी ने कहा था, वे ऐसा कहने वाले को कभी मन से क्षमा नहीं कर पाएंगे. फिर क्या हुआ? कुछ भी नहीं. एक मंत्नी ने डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत को गलत घोषित किया था, सरकार की ओर से इसे अस्वीकारा तो गया, पर फिर क्या हुआ? एक और मंत्नी ने मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या को लेकर अनर्गल बयान दिया था, वे आज भी सम्माननीय सांसद हैं. ये सब उदाहरण भी उसी मानसिकता को प्रकट करने वाले हैं जो मानती है कि किसी को भी कुछ भी कहने का अधिकार है. आप कुछ भी कह सकते हैं, बशर्ते यह ‘कुछ’ तर्कसंगत हो, कानून के शासन की मर्यादाओं के अनुकूल हो. जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल की ‘गुस्से’ और ‘निराशा’ में कही गई बात न तर्कसंगत है और न ही कानून के शासन का सम्मान करने वाली. यह जंगल-राज के आदिम कानून की याद दिलाने वाली बात है. चांद तक जाने की कोशिश में लगे देश को यह जंगल राज वाली मानसिकता शोभा नहीं देती.

टॅग्स :नरेंद्र मोदीसाध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर
Open in App

संबंधित खबरें

भारतPariksha Pe Charcha 2026: 11 जनवरी तक कराएं पंजीकरण, पीएम मोदी करेंगे चर्चा, जनवरी 2026 में 9वां संस्करण

कारोबारIndiGo Crisis: 7 दिसंबर रात 8 बजे तक सभी यात्रियों को तत्काल पैसा वापस करो?, मोदी सरकार ने दिया आदेश, छूटे हुए सभी सामान अगले 48 घंटों के भीतर पहुंचाओ

भारतPutin Visit India: भारत का दौरा पूरा कर रूस लौटे पुतिन, जानें दो दिवसीय दौरे में क्या कुछ रहा खास

भारत‘पहलगाम से क्रोकस सिटी हॉल तक’: PM मोदी और पुतिन ने मिलकर आतंकवाद, व्यापार और भारत-रूस दोस्ती पर बात की

भारतModi-Putin Talks: यूक्रेन के संकट पर बोले पीएम मोदी, बोले- भारत न्यूट्रल नहीं है...

भारत अधिक खबरें

भारतकथावाचक इंद्रेश उपाध्याय और शिप्रा जयपुर में बने जीवनसाथी, देखें वीडियो

भारत2024 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव, 2025 तक नेता प्रतिपक्ष नियुक्त नहीं?, उद्धव ठाकरे ने कहा-प्रचंड बहुमत होने के बावजूद क्यों डर रही है सरकार?

भारतजीवन रक्षक प्रणाली पर ‘इंडिया’ गठबंधन?, उमर अब्दुल्ला बोले-‘आईसीयू’ में जाने का खतरा, भाजपा की 24 घंटे चलने वाली चुनावी मशीन से मुकाबला करने में फेल

भारतजमीनी कार्यकर्ताओं को सम्मानित, सीएम नीतीश कुमार ने सदस्यता अभियान की शुरुआत की

भारतसिरसा जिलाः गांवों और शहरों में पर्याप्त एवं सुरक्षित पेयजल, जानिए खासियत