विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: महिलाओं की आवाज को दबाना खतरनाक
By विश्वनाथ सचदेव | Published: January 23, 2020 07:35 AM2020-01-23T07:35:07+5:302020-01-23T07:35:07+5:30
आज किसी न किसी रूप में सारा देश उद्वेलित है. जिस तरह जगह-जगह महिलाएं प्रदर्शन कर रही हैं, वह व्यवस्था के लिए एक चेतावनी भी है, और एक चुनौती भी.
न्याय-व्यवस्था के संदर्भ में ‘कानूनी तरीके’ से किसी काम के किए जाने का भले ही कुछ भी मतलब होता हो, पर कड़ाके की सर्दी वाले मौसम में आधी रात को खुले में बैठे किसी शख्स के शरीर से जबरन कंबल उतार लेने का एक ही मतलब हो सकता है- नृशंसता. उस रात लखनऊ के घंटाघर इलाके में नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन करने वाली महिलाओं के ओढ़े कंबलों को जिस तरह उठा लिया गया और सर्दी से बचाव के लिए जलाए गए अलावों पर पुलिस ने पानी डाला, वह इसी नृशंसता का उदाहरण था.
पुलिस का कहना है कि उसने कोई गैर-कानूनी काम नहीं किया. इलाके में धारा 144 लगी हुई थी, किसी भी तरह के प्रदर्शन की इजाजत न दी गई थी, न ली गई थी. चेतावनी देने के बावजूद महिला-प्रदर्शनकारी वहां से हट नहीं रही थीं. लिहाजा उनके ओढ़े कंबल उठा लिए गए. पुलिस को इस बात पर भी ऐतराज था कि कुछ संगठन प्रदर्शनकारियों को कंबल बांट रहे थे और मुफ्त कंबलों के लालच में गैर-प्रदर्शनकारी भी वहां एकत्र हो गए थे.
यदि यह सही भी है तब भी कड़कड़ाती सर्दी वाले मौसम में आधी रात को खुले में बैठे प्रदर्शनकारियों (या गैर-प्रदर्शनकारियों) के कंबल छीन लेना, जिन चद्दरों-दरियों पर वे बैठे थे, उन्हें हटा लेना, जो आग वे ताप रहे थे उस पर पानी डाल देना- और फिर कानून का हवाला देकर अपनी कार्रवाई को उचित बताना पुलिस की किस मानसिकता को दर्शाता है?
क्या अपराध था उन महिला-प्रदर्शनकारियों का? यही नहीं, उस जगह की बिजली भी काट दी गई, सार्वजनिक मूत्रालयों को ताला लगा दिया गया. यह अमानवीयता नहीं तो और क्या है?
देश के लगभग हर हिस्से में सरकार द्वारा पारित नागरिकता संशोधन कानून का विरोध हो रहा है. इस विरोध की दो बातें महत्वपूर्ण हैं- पहली तो यह कि देशभर में इस विरोध का नेतृत्व सामान्य महिलाओं के हाथ में है. राजनीतिक दलों और राजनीतिक विचारों वाले लोग भी इसको समर्थन तो दे रहे हैं, पर नेतृत्व उनके हाथों में नहीं है. विरोध कर रही महिलाओं में बहुमत मुस्लिम महिलाओं का है और इनमें से अधिसंख्य महिलाएं पहले कभी इस तरह मैदान में नहीं उतरीं. आज वे पर्दे और घर की देहरी की सीमाएं लांघकर एक नागरिक के अधिकारों की लड़ाई लड़ रही हैं.
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि लड़ाई संविधान और ‘भारत के विचार’ की रक्षा की है. यह सही है कि आज इस लड़ाई में मुस्लिम महिलाएं आगे दिख रही हैं. ऐसा इसलिए कि वे ज्यादा भयभीत हैं. और यह भय अकारण नहीं है.
नागरिकता संशोधन कानून को लेकर जिस तरह के बयान सत्तारूढ़ दल के कुछ नेताओं ने दिए और जिस तरह ‘क्रोनोलॉजी’ समझाने की कोशिशें की गईं, उससे मुस्लिम समाज का आशंकित होना स्वाभाविक था. लेकिन यह बात केवल नागरिकता कानून तक ही सीमित नहीं है, और न ही बात एक समाज विशेष तक सीमित है. असल मुद्दा उस संविधान की रक्षा का है जो देश के हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है और जिसमें धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं है.
सत्तारूढ़ पक्ष भले ही कुछ भी सफाई देता रहे, अपनी नीतियों का कैसे भी बचाव करता रहे, पर उसकी नीयत को लेकर जो संदेह उठ रहे हैं, उनका निराकरण नहीं हो पा रहा.
आज किसी न किसी रूप में सारा देश उद्वेलित है. जिस तरह जगह-जगह महिलाएं प्रदर्शन कर रही हैं, वह व्यवस्था के लिए एक चेतावनी भी है, और एक चुनौती भी.
महिलाओं का इस तरह आगे आना उस आशंका और असंतोष को सामने लाता है जो घर की चारदीवारी में पनप रहा है. सवाल सिर्फ आशंकाओं और असंतोष का ही नहीं है, सवाल ‘जनतांत्रिक समाजवादी पंथ निरपेक्ष गणतंत्र’ की रक्षा का है. चिंगारी भले ही राजधानी दिल्ली के शाहीन बाग से भड़की हो, पर देश के अलग-अलग हिस्सों में हाथों में तिरंगा लेकर संविधान की रक्षा की लड़ाई इस बात का स्पष्ट संकेत है कि हमारी व्यवस्था में कहीं न कहीं कोई ऐसी कमी है जो जन-मानस को उद्वेलित कर रही है.
शाहीन बाग में तीन महीने की बच्ची को गोद में लेकर बैठी सलमा जब मुट्ठी बांधकर नारा लगाती है, या फिर लखनऊ के घंटाघर के इलाके में कंबल छीन लिए जाने के बाद भी जब जमील यह कहती है कि ‘यह जुल्म भी सह लेंगे’ तो यह प्रतिनिधि आवाज है जो देश के एक बड़े वर्ग के असंतोष और उसके आक्रोश को उजागर कर रही है.
जगह चाहे कोलकाता का पार्क सर्कस मैदान हो या पुणे में ‘अस्मिता आंदोलन’, आवाज गुवाहाटी से उठी हो या रांची से, बात लखनऊ की हो या तिरुअनंतपुरम की... एक बात सब जगह है- सब जगह महिलाएं आगे आ रही हैं. इसी के साथ इन आवाजों में जुड़ रही है युवाओं की आवाज.
देश में गंभीर मुद्दों की कोई कमी नहीं है. आज बात संविधान की रक्षा की हो रही है. कल बेरोजगारी की होगी. महंगाई की होगी. शिक्षा-संस्थानों में पनपती अराजकता की होगी. आर्थिक मंदी की होगी. सत्य तो यह है कि स्थितियां असामान्य होती जा रही हैं. महिलाओं और युवाओं का आक्रोश व जोश मिलकर अशक्त व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौती है. या तो स्थिति की गंभीरता को समझा नहीं जा रहा या फिर व्यवस्था इस गंभीरता को समझाने में असमर्थ है. दोनों ही स्थितियां खतरनाक की हद तक चिंताजनक हैं.