लाइव न्यूज़ :

विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: वोटों के धार्मिक विभाजन की कोशिशें घातक

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: February 14, 2020 05:26 IST

जहां तक मतदाता की समझ का सवाल है, उसने अपनी राय साफ कर दी है. लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं है कि भाजपा के अभियान को कोई प्रतिसाद नहीं मिला. देखा जाए तो ‘आप’ के काम और भाजपा के ‘शाहीन बाग’, दोनों पर मतदाता की नजर रही है और भाजपा को जितनी सफलता मिली है, उसमें इस ‘शाहीन बाग’ का निश्चित हाथ रहा है.

Open in App

हरियाणा और झारखंड के चुनावों में भाजपा ने यह माहौल बनाने की कोशिश की थी कि उसे मिले या दिए गए समर्थन का मतलब राष्ट्रभक्ति मान लिया जाए. आश्चर्य ही है कि राष्ट्रभक्ति की इस परिभाषा को मतदाता द्वारा नकारे जाने के बावजूद दिल्ली विधानसभा के चुनावों में भी भाजपा ने अपनी यह टेक नहीं छोड़ी. परिणाम सामने है. दिल्ली के मतदाता ने भी आम आदमी पार्टी के ‘काम’ के दावे को भाजपा के राष्ट्रभक्ति के ‘फार्मूले’ से अधिक महत्वपूर्ण माना है.

सच तो यह है कि भाजपा के नेतृत्व को यह सोचना पड़ेगा कि सबके विकास की बात करने और विकास कर के दिखाने में अंतर होता है. हालांकि, सिर्फ दिल्ली के चुनाव-परिणाम के आधार पर यह कहना भी पूरा सही नहीं होगा कि देश का मतदाता राष्ट्रभक्ति के भाजपा के फार्मूले को पूर्णतया नकार चुका है, फिर भी इससे यह संकेत तो मिल ही जाता है कि स्थिति वैसी नहीं है जैसी भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व समझ रहा था. देखना यह है कि भाजपा इस संकेत का क्या अर्थ निकालती है.

जहां तक मतदाता की समझ का सवाल है, उसने अपनी राय साफ कर दी है. लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं है कि भाजपा के अभियान को कोई प्रतिसाद नहीं मिला. देखा जाए तो ‘आप’ के काम और भाजपा के ‘शाहीन बाग’, दोनों पर मतदाता की नजर रही है और भाजपा को जितनी सफलता मिली है, उसमें इस ‘शाहीन बाग’ का निश्चित हाथ रहा है. बड़ी सोची-समझी रणनीति के तहत भाजपा के नेतृत्व ने चुनाव-प्रचार के आखिरी दौर में कथित राष्ट्रभक्ति वाला यह दांव चला था. सच तो यह है कि धर्म के आधार पर मतदाता को विभाजित करने की इस तरह की कोशिशें हमारी राजनीति का एक स्थायी भाव बनती जा रही हैं. यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है, खतरनाक भी.

नागरिकता संशोधन कानून के संदर्भ में देश के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे आंदोलन को राष्ट्र-विरोधी गतिविधि कहकर न केवल अपने राजनीतिक विरोधियों पर आरोप लगाया जा रहा है, बल्कि इस समूचे आंदोलन को, कहना चाहिए विरोध की आवाज को, कठघरे में खड़ा किया जा रहा है. होना तो यह चाहिए था कि इस जन-असंतोष को शांत करने के लिए भाजपा और सरकार, दोनों ईमानदार कोशिश करते दिखाई देते, पर दिखा यह कि कोशिश असहमति की आवाज को दबा कर उसका राजनीतिक लाभ उठाने की हो रही है.

भाजपा के नेताओं ने ‘शाहीन बाग’ में चल रहे आंदोलन को क्या-क्या नहीं कहा-  इसे पाकिस्तान-समर्थक बताया गया, राष्ट्र-विरोधी घोषित किया गया, शहरी नक्सलियों की करतूत नाम दिया गया. दिल्ली के शाहीन बाग की तर्ज पर देशभर में कई जगहों पर होने वाले आंदोलन की यह एक विशेषता रही है कि राजनीतिक दलों का समर्थन भले ही रहा हो, पर प्रदर्शनकारियों के हाथों में झंडा तिरंगा ही था. नारे वे संविधान की रक्षा के ही लगा रहे थे. स्वयं प्रदर्शनकारी ही अपने नेता थे. स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह अपने ढंग का पहला जन-प्रदर्शन है.

जनता के वोटों से चुनी हुई सरकार का दायित्व बनता था कि वह जनता की इस आवाज को सुनती. समस्या के समाधान की दिशा में ईमानदार कोशिश करती दिखाई देती. आखिर एक कानून के प्रति अपने संदेहों का इजहार ही तो कर रहे थे ये लोग. संदेह के निराकरण के बजाय, प्रदर्शनकारियों के इरादों पर सवालिया निशान लगाकर चुनावी लाभ उठाने की यह नीति जनतांत्रिक मूल्यों का नकार है. प्रधानमंत्री या गृह मंत्री न सही, सत्तारूढ़ पार्टी का कोई अन्य बड़ा नेता ही चला जाता प्रदर्शनकारियों को समझाने. आखिर वे देश के नागरिक ही तो हैं जो जनवरी की ठंडी रातों में खुले आसमान के नीचे अपनी चिंताओं की पोटली लेकर बैठे थे.

अब चुनाव बीत गए हैं. संभव है सरकार कुछ ठोस कार्रवाई करे. संभव है न्यायालय का हस्तक्षेप कुछ काम आए. संभव है शाहीन बागों  की विवशताओं को समझने की कोई सकारात्मक कोशिश हो. संभव है, समूची स्थिति को राजनीतिक नफे-नुकसान से उबरकर देखने की आवश्यकता किसी को लगे. पर नागरिकता संशोधन कानून के संदर्भ में देश में पिछले दो महीनों में जिस तरह नागरिकों की उपेक्षा हुई है और जिस तरह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के सहारे राजनीति की रोटियां सेंकने की कोशिश हुई है, वह जनतंत्र और जनतांत्रिक मूल्यों का अपमान ही है.

वस्तुत: इस समूचे आंदोलन को एक सकारात्मक जनतांत्रिक कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए. इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि गलत तत्व ऐसी स्थितियों का गलत लाभ उठाने की कोशिश करते हैं. पर इस आशंका में पूरे आंदोलन को नकार देने की प्रवृत्ति जनतांत्रिक कसौटियों के संदर्भ में एक चिंता की ही बात है. देश की एकता को खतरा असहमति की आवाज या इस आवाज को उठाने वालों से नहीं है, खतरा उन प्रवृत्तियों और इरादों से है जो असहमति की आवाज उठाने के अधिकार को चुनौती दे रही हैं. आवश्यकता इन आवाजों को सुनने की है. यह दुर्भाग्य ही है कि इस दिशा में अबतक कुछ ठोस होता दिखाई नहीं दिया. उम्मीद की जानी चाहिए कि असंतोष और संदेह को दबाने के बजाय हमारी सरकार और हमारे नेता जनता के जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के प्रति सजग होंगे. यह समझेंगे कि असहमति की आवाज जनतंत्र की ताकत होती है.

टॅग्स :दिल्ली विधान सभा चुनाव 2020दिल्लीभारतीय जनता पार्टी (बीजेपी)आम आदमी पार्टी
Open in App

संबंधित खबरें

क्राइम अलर्टदाहिने जांघ पर धारदार हथियार से हमला कर 22 वर्षीय युवक की हत्या, कई घाव और तीन चोटों की पुष्टि, आखिर किसने ली जान

भारतIndiGo Flight Cancellations: इंडिगो संकट, 7वें दिन 400 फ्लाइट कैंसिल, हालात से लाचार हजारों पैसेंजर, देखिए दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु और चेन्नई एयरपोर्ट हाल, वीडियो

भारतIndiGo Crisis: 6 दिन में 2000 से अधिक फ्लाइट कैंसिल, दिल्ली एयरपोर्ट ने यात्रियों के लिए एडवाइज़री जारी की, एयरपोर्ट जाने से पहले लेटेस्ट स्टेटस चेक कर लें

भारतदिल्ली-एनसीआर में जहरीले स्मॉग की चादर, कई इलाकों में एयर क्वालिटी बहुत खराब, देखिए लिस्ट

भारतPutin India Visit: ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे...!

भारत अधिक खबरें

भारतमेरे सम्मानित प्रदेश वासियों?, सीएम योगी लिखी चिट्ठी, क्या है इसमें खास?, पढ़िए

भारतबिहार विधानसभा चुनावः 243 में से 202 सीट पर जीत, सभी 30 NDA सांसदों से मिलेंगे पीएम मोदी, राजनीतिक दिशा, विकास रणनीति और केंद्र-राज्य समन्वय पर चर्चा

भारतनागपुर विधानमंडल शीतकालीन सत्रः 8000 से अधिक पुलिस कर्मी तैनात, पक्ष-विपक्ष में इन मुद्दों पर टकराव

भारतSIR Registered: एसआईआर पर राजनीतिक विवाद थमने के नहीं दिख रहे आसार

भारतसिकुड़ता नागपुर विधानसभा सत्र और भंग होतीं अपेक्षाएं!