विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: हमारे मन-मस्तिष्क से कब दूर होगी अस्पृश्यता?

By विश्वनाथ सचदेव | Published: June 25, 2021 02:02 PM2021-06-25T14:02:53+5:302021-06-25T14:03:18+5:30

बाबासाहब आंबेडकर की अगुवाई में बने संविधान में दलितों के संरक्षण की हरसंभव कोशिश की गई. देश का हर नागरिक चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, वर्ग या वर्ण का हो, किसी भी तरह से किसी से छोटा या बड़ा नहीं है.

Vishwanath Sachdev blog about When will untouchability be removed from our minds | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: हमारे मन-मस्तिष्क से कब दूर होगी अस्पृश्यता?

प्रतीकात्मक तस्वीर। (फाइल फोटो)

 तीन समाचार हैं मेरे सामने- पहला गुजरात के अरावली जिले के एक गांव का जहां दलितों की एक बारात को सवर्णो ने इसलिए घंटों रोके रखा क्योंकि दूल्हा घोड़े पर बैठकर जा रहा था. दूसरा समाचार मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले के एक गांव का है. यहां भी परिगणित जाति का एक दूल्हा अपनी बारात में घोड़े पर चढ़कर जाने की हसरत पूरी करने की कोशिश कर रहा था. 

यहां भी तथाकथित ऊंची जाति वालों को यह कोशिश हिमाकत लगी थी. तीसरा समाचार ओडिशा के एक गांव का है जिसमें दलितों की बारात पर इसीलिए पत्थर फेंके गए कि दूल्हा घोड़े पर सवार था. तीनों ही घटनाओं में पुलिस की मदद लेकर दलितों की बारात को आगे बढ़ाया गया था. पर घंटों लग गए इसमें. कहीं बारातियों को पत्थर लगे, कहीं उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया.

ये तीनों समाचार पिछले एक-दो महीनों के हैं. यानी 21वीं शताब्दी के. सन् 2021 के. सदियों से दलित हमारे देश में कथित ऊंची जाति वालों के अत्याचार सहते आ रहे हैं. शायद ही कोई हिस्सा होगा देश का जहां दलितों के साथ गलत व्यवहार न होता रहा हो. लेकिन समता, स्वतंत्नता, न्याय और बंधुता की नींव पर खड़े किए गए स्वतंत्न भारत में इस तरह के समाचारों का सामने आना सचमुच भीतर तक हिला जाता है. 

बाबासाहब आंबेडकर की अगुवाई में बने संविधान में दलितों के संरक्षण की हरसंभव कोशिश की गई. देश का हर नागरिक चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, वर्ग या वर्ण का हो, किसी भी तरह से किसी से छोटा या बड़ा नहीं है. इस समानता के अधिकार के अंतर्गत बहुत कुछ बदला भी है हमारे समाज में. पर यह बहुत कुछ भी कितना कम है, इसका एक उदाहरण हैं ये तीन घटनाएं जो बता रही हैं कि सामाजिक समानता के संदर्भ में हमारा समाज सन् 2021 में भी कहां खड़ा है. आए दिन इस तरह के समाचार दिख जाते हैं जो आदमी और आदमी के बीच की दूरी का शर्मनाक अहसास कराते हैं. पर सवाल उठता है हममें से कितनों को शर्म महसूस होती है इस आशय के समाचार देखकर?

आसान नहीं है इस सवाल का जवाब. आसान इसलिए नहीं है कि इसका रिश्ता किसी कानून का पालन न करने अथवा पालन करने से नहीं है, सवाल हमारी सोच से जुड़ा है. संवैधानिक दृष्टि से, और राजनीतिक संदर्भो में, देश का हर नागरिक समान है. इसके चलते बदलाव भी आया है. पर सवाल यह है कि वह कौन सी सोच है जो किसी दलित की बारात में दूल्हे को घोड़े पर बैठकर जाते हुए नहीं देख सकती. 

अनुमान है कि देश में लगभग सोलह प्रतिशत आबादी दलितों की है. देश के छह लाख से अधिक गांवों में आज भी गांव के बाहरी हिस्से में कहीं दलितों की बस्ती होती है. इन दलितों के उद्धार की बातें बहुत होती हैं. चुनावों के मौके पर अक्सर हम सवर्ण नेताओं को किसी दलित के घर पर जाकर खाना खाते देखते हैं. पर फिर उसे अगले चुनाव तक के लिए भुला दिया जाता है. अर्थात् दलित को सत्ता तक पहुंचने का साधन तो बना दिया गया है, राजनीतिक सत्ता में भागीदारी के नाम पर उन्हें कुछ कुर्सियां भी मिल जाती हैं, पर सामाजिक सोच में हमारा दलित समुदाय आज भी विषमता की मार सह रहा है. और इस विषमता को देखते हुए भी कथित सवर्ण समाज को किसी प्रकार की ग्लानि नहीं होती.

कुछ अरसा पहले एक लेख पढ़ा था मैंने कहीं. किसी लघु फिल्म के लिए एक सवर्ण को दलित की भूमिका के लिए चुना गया. पर उसने इंकार कर दिया, वह ऊंची जाति का होकर नीची जाति वाले की भूमिका कैसे निभा सकता था? ऐसा नहीं है कि सवर्णो ने ऐसी भूमिकाएं नहीं की हैं. कई फिल्में बन चुकी हैं इसी थीम पर, कई कहानियां लिखी जा चुकी हैं इस बारे में. पर इस सबके बावजूद ऊंची-नीची जाति का यह भाव हमारे समाज में कहीं न कहीं जिंदा है, पल रहा है. अस्पृश्यता भले ही आज कानूनी अपराध हो, पर आज भी यह भाव हमारे मन-मस्तिष्क में है. 

देखा जाए तो दलित दूल्हे के घोड़े पर बैठकर शादी के लिए जाने को अपराध मानने वाली मानसिकता इसी अस्पृश्यता का ही एक रूप है. यही मानसिकता हमें किसी दलित की बारात पर पत्थर फेंकने के लिए उकसाती है और यही मानसिकता दलितों को गांव की किसी सीमा पर बसने योग्य होने का अहसास कराती है. बीमार मानसिकता है यह, और यह तब तक हमारा पीछा नहीं छोड़ेगी जब तक हम स्वयं इससे पीछा न छुड़ाना चाहें. इसका मतलब है जब तक हम अपनी मानसिकता नहीं बदलते, यह आपराधिक बीमारी हमारे साथ रहेगी.

सवाल मनुष्य को मनुष्य के रूप में स्वीकार करने का है. यह तभी हो सकता है जब दलितों के जीवन की पीड़ा का अहसास हमें होने लगे, जब हम इस बात को समङों कि क्यों किसी दलित में घोड़े पर बैठकर शादी के लिए जाने की इच्छा जागती है. हमें इस इच्छा का सम्मान करना सीखना होगा. यह तभी संभव है जब दलित भी हमें यानी स्वयं को सवर्ण अथवा कुछ ऊंचा मानने वालों को अपने जैसा प्राणी लगेगा. दलित शापित नहीं हैं, और न ही वे वोट बैंक हैं. वे भी मनुष्य हैं. उन्हें मनुष्यता के अधिकार से वंचित करने, वंचित रखने की कोई भी कोशिश किसी अपराध से कम नहीं है.

Web Title: Vishwanath Sachdev blog about When will untouchability be removed from our minds

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