कृष्णप्रताप सिंह का ब्लॉग: विक्रम साराभाई ने अंतरिक्ष में छलांग का पथ किया था प्रशस्त, स्वतंत्रता दिवस पर ISRO को दिया गया था रूप
By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: August 12, 2024 09:31 AM2024-08-12T09:31:22+5:302024-08-12T09:33:56+5:30
आज की तारीख में हम जब भी भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की अगुआई में अपने देश को अंतरिक्ष में ऊंची छलांगें लगाते देखते हैं, गर्व से अपना सीना जरूर चौड़ा करते हैं.
आज की तारीख में हम जब भी भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की अगुआई में अपने देश को अंतरिक्ष में ऊंची छलांगें लगाते देखते हैं, गर्व से अपना सीना जरूर चौड़ा करते हैं.
लेकिन क्या ऐसे अवसरों पर हमें इसरो की नींव की ईंट रहे अपने लब्धप्रतिष्ठ वैज्ञानिक स्मृतिशेष विक्रम अम्बालाल साराभाई की याद भी आती है? दरअसल, यह विक्रम ही थे, जिनकी कमान में 1962 में गठित भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति को 15 अगस्त, 1969 को इसरो का रूप दिया गया.
अनंतर उसके वैज्ञानिकों ने बेहद विपरीत परिस्थितियों में, कहना चाहिए उस ‘बैलगाड़ियों के युग’ में अपनी कड़ी मेहनत से अंतरिक्ष में हमारी छलांगों की आधारशिला रखी. फिर तो स्वाभाविक ही विक्रम ‘भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के पितामह’ कहलाए. इससे पहले 1963 में 21 नवंबर को केरल में तिरुअनंतपुरम के पास थुम्बा में देश का पहला राकेट लांच करके वे ‘राकेट पिता’ भी बन चुके थे.
दुनिया के महान भौतिक विज्ञानियों में शुमार विक्रम अप्रतिम खगोलशास्त्री और उद्योगपति भी थे. इससे भी बड़ी बात यह कि वे जीवन भर प्रयासरत रहे कि विज्ञान के विभिन्न प्रयोग आम आदमी के काम आएं और उसकी चेतना का विकास व विस्तार करें. वे चाहते थे कि अंतरिक्ष अभियानों में दुनिया के धनी देशों से अंधस्पर्धा से बचते हुए देश को उन्नत प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल में अग्रणी बनाकर उसकी समस्याओं से निजात दिलाई जाए.
1975 में भारत ने एक रूसी कास्मोड्रोम से अपने आर्यभट्ट नामक उपग्रह को सफलतापूर्वक प्रक्षेपित कर दुनिया को चकित कर डाला तो उसे विक्रम की बनाई परियोजना की सफलता के रूप में ही देखा गया था. थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो 24 जनवरी, 1966 को हुई एक भीषण विमान दुर्घटना में अपने परमाणु कार्यकम के जनक होमी जहांगीर भाभा को गंवाकर देश ठगा-सा रह गया था.
उनके रहते हमारा परमाणु कार्यक्रम दुनिया की कई शक्तियों की आंखों की किरकिरी बना हुआ था, जिसके चलते उक्त विमान दुर्घटना को लेकर यह संदेह भी जताया गया कि कहीं उसके पीछे भाभा की हत्या का षड्यंत्र तो नहीं था. वे नहीं रहे तो यह सवाल बहुत बड़ा हो गया था कि उनकी जगह किसे दी जाए जो उक्त कार्यक्रम को उनकी ही तरह समर्पित भाव से आगे बढ़ा सके.
अंतत: यह तलाश विक्रम साराभाई पर ही खत्म हुई और मई, 1966 में उन्होंने परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष पद का कार्यभार संभाला. उनका यह कार्यभार संभालना इस अर्थ में उनकी बहुत बड़ी देशसेवा सिद्ध हुआ कि जब तक वे रहे, भाभा का अभाव नहीं महसूस होने दिया. न ही यह स्थिति आने दी कि देश के परमाणु कार्यक्रम को अपने लक्ष्यों से समझौता करना पड़े.