कारगिल युद्ध: गुंजन सक्सेना और श्रीविद्या राजन ने जब पहली बार भारतीय सेना के लिए लिखी शौर्य गाथा

By विकास मिश्रा | Published: June 18, 2021 11:49 AM2021-06-18T11:49:53+5:302021-06-18T11:49:53+5:30

1999 में कारगिल की जंग के दौरान एयरफोर्स की पायलट गुंजन सक्सेना और श्रीविद्या राजन ने दिखा दिया कि महिलाएं क्या कुछ कर सकती हैं।

Vikas Mishra Blog Kargil story of Gunjan Saxena and Srividya Rajan | कारगिल युद्ध: गुंजन सक्सेना और श्रीविद्या राजन ने जब पहली बार भारतीय सेना के लिए लिखी शौर्य गाथा

फोटो- यूट्यूब (वीडियो ग्रैब)

1999 में कारगिल की जंग से पहले तक सेना में मान्यता यही थी कि महिलाओं को वार जोन में न भेजा जाए क्योंकि जंग के दौरान बहुत तनाव की स्थिति होती है, हालात बहुत खराब होते हैं. लेकिन जब जून 1999 आते-आते यह तय हो गया कि कारगिल की चोटियों पर आंतकवादी नहीं बल्कि पाकिस्तानी सेना के जवान युद्ध लड़ रहे हैं तब यह फैसला किया गया कि इंडियन एयर फोर्स को भी जंग में उतारा जाए. 

पाकिस्तानी सैनिक चोटियों पर थे और भारतीय सैनिकों की पोजीशन नीचे थी जिसके कारण हमारे सैनिक लगातार जख्मी हो रहे थे. घायल सैनिकों को बाहर निकाल पाना भी मुश्किल हो रहा था.

ऐसे कठिन वक्त में एयरफोर्स की पायलट गुंजन सक्सेना और श्रीविद्या राजन को आदेश मिला कि वे हेलिकॉप्टर लेकर जंग के मैदान में जाएं. वहां ऐसे इलाकों में उड़ान भरें जहां से दुश्मन सैनिकों के ठिकानों के बारे में सुनिश्चित जानकारी एकत्रित कर सकें. उन्हें जंग की अग्रिम चौकियों तक रसद और हथियार पहुंचाने के साथ ही घायलों को बाहर निकालने का अत्यंत कठिन कार्य भी सौंपा गया. 

जंग में तोप के गोले बरस रहे थे. दुश्मन काफी ऊंचाई पर बैठा था और हर पल यह खतरा था कि उनका हेलिकॉप्टर दुश्मन की गोलियों का कहीं शिकार न हो जाए लेकिन इन दोनों ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए अपना दायित्व पूरा किया. ऐसा माना जाता है कि करीब 900 घायलों और शहीद जवानों के पार्थिव शरीर को उन्होंने जंग के बीच से बाहर निकाला. 

आज बहुत से जवान जीवित हैं तो उसका बहुत सारा श्रेय गुंजन और श्रीविद्या को जाता है. यदि वो घायल सैनिक समय पर बाहर नहीं निकाले जाते तो शायद उनकी जान न बच पाती. गुंजन ने एक जगह कहा भी था कि उन्हें अपने घायल साथियों को बचा कर जो सुकून मिला वह किसी और काम में मिल ही नहीं सकता था.

वॉर जोन में विमान उड़ाना कितना कठिन था इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके हेलिकॉप्टर को मार गिराने की हरसंभव कोशिश पाकिस्तानियों ने की लेकिन गुंजन और श्रीविद्या खुद को और हेलिकॉप्टर को बचाने में सफल रहीं. वे चीता हेलिकॉप्टर उड़ा रही थीं जिसमें ज्यादा हथियार भी नहीं होते हैं कि वे दुश्मन को माकूल जवाब दे पातीं. 

गुंजन ने अपने हेलिकॉप्टर को एक मिसाइल से भी बचाया था. इसके अलावा कारगिल में पहाड़ों के टेढ़े-मेढ़े रास्तों से गुजरते हुए कई बार उनका विमान क्रैश होते-होते बचा. इन सारी क¨ठनाइयों के बावजूद इन महिलाओं ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने साबित कर दिया कि भारतीय महिलाएं शौर्य की प्रतिमूर्ति होती हैं और वे किसी से भी कम नहीं हैं.

जंग में अदम्य साहस प्रदर्शित करने के लिए गुंजन सक्सेना को शौर्य चक्र से सम्मानित किया गया. तब गुंजन की उम्र महज 25 साल थी. गुंजन पहली भारतीय महिला थीं, जिन्हें ये अवॉर्ड मिला था. इसके बाद उन्हें कारगिल गर्ल भी कहा जाने लगा. यह साहस उनके परिवार से विरासत में उन्हें मिला है. उनके पिता और भाई दोनों ही सेना में थे. जब जंग में जाने का मौका मिला तो गुंजन ने बड़े उत्साह के साथ हां कहा था. उनके परिवार ने भी उनका हौसला बढ़ाया. 

कारगिल युद्ध के दौरान वे 13 हजार फुट की ऊंचाई पर अपना हेलिकॉप्टर उतारती थीं जो निश्चय ही कोई आसान काम नहीं था. जंग का यह उनका पहला अनुभव था लेकिन वे सफल रहीं.

गुंजन की बचपन से ही इच्छा थी कि वे पायलट बनें. जब वे पांचवीं कक्षा में थीं तब उन्हें एक विमान का कॉकपिट देखने का मौका मिला और उसी दिन उन्होंने ठान लिया कि पढ़ाई पूरी करने के बाद विमान उड़ाने का प्रशिक्षण प्राप्त करेंगी और उन्होंने इसी रास्ते पर कदम बढ़ा दिए. 

ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल करने के बाद उन्होंने दिल्ली के सफदरजंग फ्लाइंग क्लब में विमान उड़ाने की प्रारंभिक ट्रेनिंग ली. 1994 में जब सेना ने उन्हें ट्रेनी पायलट के लिए चुना तो जैसे उन्हें पंख लग गए. गुंजन ने सात साल तक वायु सेना में अपनी सेवाएं दीं.

श्रीविद्या के पिता भी भारतीय सेना में थे इसलिए सेना में वे भी जाना चाहती थीं लेकिन पायलट की बेसिक ट्रेनिंग के लिए उनके पास पैसे नहीं थे. पायलट बनने का उनका सपना तो वायु सेना की परीक्षा ने ही पूरा किया. जब भारतीय वायु सेना ने ट्रेनी पायलट के लिए महिलाओं का चयन किया तो श्रीवद्या राजन ने वह परीक्षा पास कर ली. 

जब कारगिल की जंग में जाने का मौका आया तो उन्होंने बिल्कुल ही झिझक नहीं दिखाई. उन्हें जो काम दिया गया था उसे उन्होंने पूरे समर्पण और साहस के साथ पूरा किया. इन दोनों का शौर्य देश हमेशा याद रखेगा.

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