एन. के. सिंह का ब्लॉगः जहरीले पौधे को पेड़ बनने से पहले क्यों नहीं काटा

By एनके सिंह | Published: July 11, 2020 06:07 AM2020-07-11T06:07:43+5:302020-07-11T06:07:43+5:30

हैदराबाद में महिला चिकित्सक के बलात्कार और हत्या के बाद पुलिस द्वारा चार गिरफ्तार आरोपियों को ‘‘मुठभेड़’’ में मारा गया, तब भी देश ऐसे ही खुश हुआ था. हम किसी विकास के मारे जाने पर खुश तो होते हैं लेकिन यह नहीं सोचते कि विकास पैदा कैसे होते हैं और कैसे देश के गली-कूचों में ‘‘विकासों’’ के  पौध पुष्पित-पल्लवित होती हैं.

vikas dubey encounter: this is a "vengeance" drama of the police, kanpur | एन. के. सिंह का ब्लॉगः जहरीले पौधे को पेड़ बनने से पहले क्यों नहीं काटा

विकास दुबे पुलिस मुठभेड़ में मारा गया है। (फाइल फोटो)

मानवाधिकार को लेकर बौद्धिक जुगाली करने वालों के लिए खूंखार विकास दुबे का पुलिस द्वारा मारा जाना ‘‘एक्स्ट्रा-ज्यूडिशियल किलिंग’’ है. जिस तरह एनकाउंटर हुआ, औसत ज्ञान वाला व्यक्ति भी कह सकता है कि यह पुलिस का एक ‘‘प्रतिशोध’’ ड्रामा है. फिर भी आम लोग इस बात से खुश हैं कि ‘‘अतातायी’’ मारा गया. वे भूल रहे हैं कि राजनीतिक और आला पुलिस का बड़ा तबका इस बात से खुश है कि अगर जिंदा रहता तो सत्ता और विपक्ष में बैठे नेताओं और अफसरों के साथ अपनी ‘‘दुरिभसंधि’’ का खुलासा करता. 

भले ही लोगों की खुशी इस बात की तस्दीक है कि उनका विश्वास न्याय प्रक्रिया में नहीं है, लेकिन सिस्टम से बाहर समाधान अंतत: एक खतरनाक स्थिति की ओर ले जाता है. सिस्टम को चलाने वालों ने ही नहीं, इसके प्रभाव के बढ़ते क्षेत्र के लोगों ने इसकी जघन्यता को ‘‘टैलेंट’’ माना. खुद विकास का कुछ साल पहले मीडिया को दिया गया बयान है ‘‘बहन जी (बहुजन समाज पार्टी प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश) मुझे 500 लोगों के बीच नाम से बुलाती हैं. सत्ताधारी पार्टी भाजपा सहित कई पार्टियां मुझे बुला रही हैं, लेकिन मैं बहन जी को नहीं छोड़ सकता’’. यानी सिस्टम बनाने -बिगाड़ने वाले इसकी ‘‘प्रतिभा’’ से बेहद मुतास्सिर थे. कोई ताज्जुब नहीं कि आने वाले दिनों में विकास की ‘‘प्रतिभा’’ को देख तमाम राजनीतिक वर्ग उसे टिकट देकर प्रजातंत्र के मंदिर लोकसभा और विधानसभा में कानून बनाने और बिगड़ने के लिए बैठा देता. इतिहास गवाह है कि ऐसे दर्जनों लोगों ने जेल से चुनाव जीता और कई मंत्री रहे.  

अपने ट्विटर और फेसबुक पर उसने अपने को ‘‘ब्राह्मण शिरोमणि पंडित विकास दुबे ’’ लिखवाया. कुछ ही दिनों में वह ‘‘पंडित जी’’ कहलाने लगा. राजनीतिज्ञों में पैठ देख अफसर उसके चाकर हो गए. लिहाजा उसकी जाति के लोगों ने उसे अपना ‘‘रॉबिनहुड’’ समझना शुरू किया.  अगर सिस्टम ने इसके द्वारा 17 साल की उम्र में की गई पहली हत्या के समय ही पहचान लिया होता तो यह बबूल का पेड़ आज कांटों का जंगल न बन पाता. आज उस इलाके का हर युवा ‘‘विकास’’ बनना चाहता है और एक भी पुलिस उपाधीक्षक या दरोगा या सिपाही नहीं, जो इसकी गोली के शिकार हुए. सिस्टम हमारे आइकॉन भी बदल देता है. क्या अब समय नहीं है कि सिस्टम दुरु स्त कर प्रदेश के सभी ‘‘विकासों’’ को पहचाना जाए? 
       
क्या बेहतर न होता कि जनता और मीडिया इस बात के लिए दबाव डालता कि विकास को ‘‘सच बोलने की दवा’’ यानी ‘‘ट्रुथ सीरम’’ (सोडियम पेंटोथाल) देकर किसी स्वतंत्र जांच एजेंसी से पूछताछ करवाई जाए और पूरा बयान सार्वजनिक किया जाए. विकास 30 सालों तक हत्या-दर-हत्या करता रहा और आतंक का साम्राज्य खड़ा करता रहा लेकिन तब यही पुलिस नहीं जागी, बल्किपुलिस ही नहीं राजनीतिक वर्ग इसका इस्तेमाल करता रहा. इन्हीं खुश होने वालों में एक वर्ग ‘‘ब्राह्मण शिरोमणि’’ बनाकर विकास का ‘‘विकास’’ करता रहा.

 इस बार भी अगर विकास उस उपाधीक्षक को, जिसने इसे गिरफ्तार करने का बीड़ा उठाया था, व्यक्तिगत तौर पर न मार दिया होता तो शायद न तो सरकार और उसकी पुलिस में गुस्सा होता, न ही आज खुश होने वाली जनता को विकास पर गुस्सा आता. वह अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में लगी रहती है ‘‘कोऊ नृप होहि हमें का हानि’’ के शाश्वत भाव में.

हैदराबाद में महिला चिकित्सक के बलात्कार और हत्या के बाद पुलिस द्वारा चार गिरफ्तार आरोपियों को ‘‘मुठभेड़’’ में मारा गया, तब भी देश ऐसे ही खुश हुआ था. हम किसी विकास के मारे जाने पर खुश तो होते हैं लेकिन यह नहीं सोचते कि विकास पैदा कैसे होते हैं और कैसे देश के गली-कूचों में ‘‘विकासों’’ के  पौध पुष्पित-पल्लवित होती हैं. उन्हें खाद-पानी देने वाला तंत्र क्यों नहीं एनकाउंटर में मारा जाता? 

जनाक्रोश हो लेकिन विकास के ‘‘आकाओं’’ को खत्म करने के लिए, न कि मोहरे को मारने के लिए. विकास तो खत्म हो गया लेकिन विकास को पहचान दिलाने वाली दूषित सोच, जो अपराधी में भी अपनी जाति देखता है और उसे वोट देने लगता है, बदलना होगा. बिहार का शहाबुद्दीन स्वयं जब सजा पाने के कारण चुनाव नहीं लड़ पाता तो अपनी पत्नी को टिकट दिलवा देता है. दोषी है हमारी और उस राजनीतिक वर्ग की सोच जो अपराधी में भी ‘‘जीतने की क्षमता’’ देखती है. और ‘‘अपराध के कानून और कानून के अपराध’’ के बीच एक अलिखित समझौता हो जाता है जिसमें अंतत: हार जनता की होती है. 

Web Title: vikas dubey encounter: this is a "vengeance" drama of the police, kanpur

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