विजय दर्डा का ब्लॉग: कांग्रेस के समक्ष नई चुनौतियां, मल्लिकार्जुन खड़गे योग्य नेता हैं लेकिन सिसकती कांग्रेस को चंगा कर पाना इतना आसान नहीं
By विजय दर्डा | Published: October 24, 2022 02:31 PM2022-10-24T14:31:48+5:302022-10-24T14:39:45+5:30
कांग्रेस में यह ताकत है कि वह भाजपा का विकल्प बन सके। इन बुरी परिस्थितियों में भी कांग्रेस के पास 19 प्रतिशत वोट बैंक है। कांग्रेस को मुख्य धारा में लाना जरूरी है। कांग्रेस के भीतर हमें लोकतंत्र स्थापित करना ही पड़ेगा और दिखाना पड़ेगा कि हमारी पार्टी में लोकतंत्र है।
इस वक्त कांग्रेस के आम कार्यकर्ताओं के मन में बस एक ही सवाल है कि कांग्रेस के नए अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे क्या ऐसा कोई चमत्कार दिखा पाएंगे कि कांग्रेस आईसीयू से बाहर आ जाए! कांग्रेस में निश्चित ही कई पावर सेंटर बने रहेंगे। कॉकस भी कमजोर होने के आसार नहीं दिख रहे हैं। इस सबसे निपटना निश्चय ही आसान काम नहीं है।
निश्चय ही कांग्रेस में चुनाव एक बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम है और निस्संदेह इसका सारा श्रेय जी-23 के नेताओं को है। यदि वे मसला नहीं उठाते, कठोर बात नहीं करते, चर्चा नहीं करते, नाराजगी व्यक्त नहीं करते तो ये चुनाव संभव नहीं था क्योंकि कांग्रेस में इंटरनल कॉकस हमेशा हावी रहता है। यह केवल मौजूदा दौर की बात नहीं है बल्कि हर दौर में कॉकस हावी रहा है। उस कॉकस के चंगुल से बाहर निकाल कर चुनाव तक मामले को लाना बहुत कठिन काम था लेकिन जी-23 नेताओं ने आवाज बुलंद की क्योंकि हर किसी नेता की नाक में पानी जा चुका था। कांग्रेस को बचाने के लिए ये सारे नेता खुद को न्यौछावर करने के मूड में थे।
जी-23 के नेताओं ने बड़े साफ शब्दों में कहा कि कांग्रेस अपना काम ठीक से नहीं कर रही है, जिस कारण आज लोकतंत्र खतरे में है। केवल कांग्रेस में ही यह ताकत है कि वह भाजपा का विकल्प बन सके। इन बुरी परिस्थितियों में भी कांग्रेस के पास 19 प्रतिशत वोट बैंक है। कांग्रेस को मुख्य धारा में लाना जरूरी है। कांग्रेस के भीतर हमें लोकतंत्र स्थापित करना ही पड़ेगा और दिखाना पड़ेगा कि हमारी पार्टी में लोकतंत्र है। एक घर के भीतर सिमटी हुई पार्टी नहीं है।
आंतरिक चुनाव कांग्रेस की परंपरा रही है। गांधीजी के समय भी चुनाव हुए, नेहरूजी, इंदिराजी और राजीव गांधी ने भी इस परंपरा को कायम रखा। मौजूदा दौर में हमें यह बताना पड़ेगा कि कांग्रेस में लोकतंत्र जिंदा है। अंतरिम प्रेसिडेंट दो-तीन या चार महीने के लिए हो सकता है। सालों तक ऐसा नहीं चल सकता, इसलिए चुनाव होना ही चाहिए। जी-23 के नेताओं ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि हम कांग्रेस की खिलाफत करने वाले लोग नहीं हैं जैसा कि बताया जा रहा है। हम सोनिया गांधी, राहुल गांधी या प्रियंका गांधी के खिलाफ नहीं हैं। नेताओं ने सोनियाजी से कहा कि यह कितनी बड़ी विडंबना है कि बड़े कद के नेता भी आपसे मिल नहीं पाते हैं। राहुलजी से मिल नहीं पाते हैं। फोन करते हैं तो उधर से पूछा जाता है कि कौन गुलाम नबी?
जी-23 के नेताओं ने कहा कि हम एक के बाद एक चुनाव हारते जा रहे हैं लेकिन उसकी मीमांसा नहीं हो रही है। गोवा, मध्यप्रदेश, पंजाब में आखिर क्या हुआ? क्यों हुआ? जो हमारे बलशाली राज्य थे हम वहां से क्यों खिसक गए? बड़े कद के नेता भी हमें छोड़कर क्यों जा रहे हैं? इस पर सोनियाजी ने कहा कि इन बातों को लेकर चिंतन शिविर होना चाहिए क्योंकि सोनियाजी लोकतांत्रिक परंपराओं में गहरा विश्वास रखती हैं। जयपुर में जो आयोजन हुआ उसमें कॉकस ने चिंतन को अलग रखकर भारत जोड़ो यात्रा का प्रस्ताव रख दिया। चिंतन की बात को दरकिनार इसलिए किया गया क्योंकि बात होती तो सुई की नोक राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की ओर मुड़ जाती। इसलिए जानबूझ कर विषय ही बदल दिया।
जी-23 के नेता इस बात से हतप्रभ थे कि राहुल गांधी कोई भी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं हैं। जब मौका आया तो प्रधानमंत्री नहीं बने, न विपक्ष के नेता बने और न अध्यक्ष पद स्वीकार किया। यहां तक हुआ कि कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में राहुल गांधी ने कहा कि चुनाव मेरे कारण से नहीं हारे हैं! चुनाव आप सब नेताओं की वजह से हारे हैं क्योंकि प्रधानमंत्री को लेकर जो स्लोगन मैंने दिया था। जिस ‘शब्द’ का मैंने उपयोग किया था, उसमें आप सबने सुर नहीं मिलाया! हाथ उठाकर बताइए कि कितने लोगों ने मेरे शब्द का उपयोग किया। उस वक्त वरिष्ठ नेताओं की स्पष्ट राय थी कि प्रधानमंत्री किसी पार्टी के नहीं बल्कि देश के होते हैं और उनके लिए ‘ऐसे शब्द’ का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।
जी-23 के नेताओं ने थक हार कर खुद को अलग कर लिया या वे अलग कर दिए गए लेकिन तारीफ करनी पड़ेगी कि शशि थरूर ने दबाव बनाए रखा। उनके कारण चुनाव अपने परिणाम तक पहुंचा। हालांकि सभी जानते थे कि शशि थरूर का चुनकर आना संभव नहीं था क्योंकि उनकी राह में बहुत से अड़ंगे बिछा कर रखे गए थे। वे यदि अध्यक्ष बनते तो अपने एजेंडे को लागू करते। कांग्रेस को नए विश्वास और नई उम्मीदों के साथ आगे बढ़ाते। वे दबंग अध्यक्ष साबित होते। आश्चर्यजनक है कि जी-23 के नेताओं ने भी शशि थरूर का साथ नहीं दिया।
कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए पहले राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का नाम आया लेकिन वहां जिस तरह से अजय माकन द्वारा एक पंक्ति का प्रस्ताव लाकर सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने की चाल चली गई उससे विधायक नाराज हो गए। उनका कहना था कि जो व्यक्ति भाजपा के साथ जाकर मुख्यमंत्री बनने को तैयार हो गया था उसे हम मुख्यमंत्री के रूप में कैसे स्वीकार करें? उसके बाद मुकुल वासनिक, पृथ्वीराज चव्हाण और भूपेंद्रसिंह हुड्डा से पूछा गया लेकिन उन्होंने भी मना कर दिया। फिर दिग्विजय सिंह आए और गए। अंतत: खड़गे साहब आए और चुनाव जीते।
एक और महत्वपूर्ण बात है कि जब कांग्रेस के चुनाव हुए तो उससे देश में कांग्रेस को लेकर एक अच्छा वातावरण बन रहा था। भारत जोड़ो यात्रा को लेकर भी बेहतरीन वातावरण बना है। यदि ये दोनों कार्यक्रम अलग-अलग वक्त में होते तो निश्चय ही कांग्रेस को ज्यादा लाभ होता। यात्रा को लेकर भी जो मार्ग गूगल महाशय की मदद से तय किया गया, वह यदि जानकारों की मदद से तैयार किया जाता तो अधिक फलदायी होता।
निश्चित रूप से खड़गे साहब एक सच्चे कांग्रेसी हैं। कांग्रेस विचारधारा से आए हुए हैं। वे पिछड़े वर्ग से हैं लेकिन हर किसी का एक समय होता है। वे इस समय अस्सी साल के ऊपर के हैं। निश्चित रूप से वे वैसी भागदौड़ नहीं कर पाएंगे जिसकी आज जरूरत है। कांग्रेस कार्यकर्ताओं के मन में सवाल है कि खड़गे साहब पार्टी में जान फूंकने में कितने सफल होंगे यह समय ही बताएगा क्योंकि कई पावर सेंटर रहेंगे ही रहेंगे। पहले का इतिहास बताता है कि चाहे वे नरसिंह राव रहे हों या फिर सीताराम केसरी, किसी को भी सफल नहीं होने दिया गया। चलिए फिर भी विश्वास करें कि खड़गे साहब को इतनी शक्ति मिले कि वे चुनौतियों से निपट सकें और 2024 में कोई कमाल दिखा दें..!