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विजय दर्डा का ब्लॉग: भूकंप से निपटने में हम कितने सक्षम...?

By विजय दर्डा | Updated: February 13, 2023 07:16 IST

तुर्की में बहुमंजिला इमारतें भूकंपरोधी नहीं थीं, इसलिए विनाश का मंजर इतना ज्यादा खतरनाक हो गया। जरा सोचिए कि कभी अत्यंत घनी आबादी वाले भारत के शहरों में 7 से ऊपर तीव्रता वाला भूकंप आ जाए तो हालात कितने खतरनाक होंगे! इसलिए चिंता करना जरूरी है कि भूकंप के खिलाफ हमारी तैयारी कितनी है?

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तुर्की में 7.8 तीव्रता वाले भूकंप ने जो विनाशकारी रूप दिखाया उसने पूरी दुनिया को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि भूकंप से निपटने की किसकी तैयारी कैसी है? भारत का करीब 59 फीसदी हिस्सा भूकंप की जद में आता है इसलिए भारत के लिए तो यह और भी गंभीर प्रश्न है. जरा ध्यान दीजिए कि तुर्की की आबादी का घनत्व केवल 110 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है जबकि भारत में यह आंकड़ा 430 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है. 

मुंबई की बात तो छोड़ ही दीजिए जहां प्रति वर्ग किमी क्षेत्र में 25 हजार से भी ज्यादा लोग रहते हैं. ऐसे में यदि 8 या उससे ज्यादा तीव्रता का भूकंप आ जाए तो क्या होगा? मैंने महाराष्ट्र के लातूर, गुजरात के भुज और जबलपुर में भूकंप की भयावहता को देखा है. मैंने, मेरे भाई राजेंद्र और लोकमत की पूरी टीम ने वहां हरसंभव सहायता भी की थी.

अब इस बात पर भरोसा नहीं किया जा सकता कि जो क्षेत्र भूकंप के लिए संवेदनशील माने जाते हैं, भूकंप वहीं आते हैं. आंकड़े बताते हैं कि पिछले 15 वर्षों के दौरान हमारे देश ने कम से कम 10 बड़े भूकंपों को झेला है और हजारों लोगों की जान गई है. 

वैज्ञानिक मानते हैं कि हिमालय का संपूर्ण इलाका 8 या उससे ज्यादा तीव्रता वाले भूकंप का केंद्र बनने की प्रवृत्ति रखता है. इसके उदाहरण भी हमें मिलते रहे हैं. 1897 में शिलांग में 8.7 तीव्रता, 1905 में कांगड़ा में 8 तीव्रता, 1934 में बिहार में 8.3 तीव्रता तथा 1950 में असम में 8.6 तीव्रता के भूकंप आ चुके हैं. यदि हम आज के संदर्भ में बात करें तो वैज्ञानिक लगातार कह रहे हैं कि हिमालयीन क्षेत्र में कभी भी अत्यंत शक्तिशाली भूकंप आ सकता है. देश के दूसरे हिस्सों में भी भूकंप की तबाही हम देख चुके हैं. 1993 में लातूर में आया भूकंप तो वैज्ञानिकों के लिए भी अप्रत्याशित था. 20 हजार से ज्यादा लोग मौत के मुंह में समा गए. 

2001 में गुजरात के भुज में 7.7 तीव्रता तथा 2005 में कश्मीर में 7.6 की तीव्रता का भूकंप आया था. उसके बाद भी गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखंड और पूर्वोत्तर के राज्यों में भूकंप के झटके लगातार आते रहे हैं.

जरा सोचिए कि यदि कोई भीषण भूकंप दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता या अन्य बड़े शहरों को झकझोर दे तो क्या होगा? इन शहरों की आबादी का घनत्व खतरनाक रूप से बहुत ज्यादा है. मैं मानता हूं कि बढ़ती आबादी के लिहाज से बहुमंजिला इमारतें ही एकमात्र विकल्प हैं लेकिन सवाल यह है कि इनमें से कितनी भूकंपरोधी हैं. 

जापान जैसे देश ने हर मकान का भूकंपरोधी होना अनिवार्य कर रखा है. उसे इसका फायदा भी मिलता है. 2011 में 9 की तीव्रता वाले भूकंप से पैदा हुई सुनामी को छोड़ दें तो सामान्यत: जापान में भूकंप से जनहानि न्यूनतम होती है. न केवल जापान बल्कि यूरोप, अमेरिका और दुबई में भी जो गगनचुंबी इमारतें बनी हैं उनमें ऐसी तकनीक का इस्तेमाल किया गया है कि भीषण भूकंप में भी इमारतें हिलें लेकिन गिरें नहीं.

नेशनल सेंटर फॉर सिस्मोलॉजी के अधिकारियों ने कई बार चेतावनी दी है कि हमारे देश के शहरों में जिस तरह की इमारतें बनी हैं, यहां 7 से ऊपर तीव्रता वाला कोई भी भूकंप बहुत खतरनाक साबित हो सकता है. ऐसा कोई भी सख्त नियम नहीं है जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि भूकंपरोधी मकान का निर्माण सुनिश्चित हो सके. 

हमारे यहां तो निर्माण के दौरान ही किसी मकान की छत गिर जाती है, कोई पुल गिर जाता है और ठेकेदार का बाल भी बांका नहीं होता. नियम तो यह भी है कि भवन निर्माण के हर स्तर पर नगर निगम के अधिकारी निरीक्षण करें. निर्माण की गुणवत्ता सुनिश्चित करें और आगे का निर्माण तभी हो. जिस देश में अवैध तौर पर बहुमंजिला इमारतें खड़ी हो जाती हों, वहां हम भूकंपरोधी मकान की कल्पना कैसे करें? भूकंपरोधी मकान बनाने में 10 से 15 प्रतिशत खर्च ज्यादा आता है. जहां सस्ता मकान और मुनाफा कमाना ही सबसे बड़ी चाहत हो वहां ज्यादा खर्च कौन करे?

देखिए, भूकंप के झटकों को तो रोक पाना मनुष्य के बूते में नहीं है लेकिन उसकी विभीषिका से निपटने की व्यवस्था तो की ही जा सकती है! सबसे पहली जरूरत पूरे देश में सख्ती के साथ बिल्डिंग निर्माण कोड का पालन कराने की है. इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि कम से कम शहरों में तो मकान भूकंपरोधी ही बनें. 

यदि देश का हर नया मकान भूकंपरोधी हो तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है. एक और बड़ी जरूरत है लोगों को भूकंप से बचने के लिए शिक्षित करने की. सौभाग्य से हमारे पास नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट फोर्स जैसा बल है जिसे शक्तिशाली बनाएं. युवाओं को एनडीआरएफ से वॉलेंटियर के रूप में जोड़ें, स्कूली शिक्षा में भूकंप और दूसरी प्राकृतिक आपदा से बचने का तरीका सिखाने वाले पाठ शामिल करें ताकि आड़े वक्त वे काम आ सकें. और हां, अपने मेडिकल सिस्टम को साधन संपन्न बनाना बहुत जरूरी है. 

यदि हम ठान लें तो कुछ भी मुश्किल नहीं है. मैं खासतौर पर ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का जिक्र करना चाहूंगा जिन्होंने समुद्री साइक्लोन की विभीषिका को अपनी तैयारियों से मात दे दी है. प्राकृतिक आपदा के खिलाफ पूरे देश में ऐसी ही तैयारियों की जरूरत है. प्रकृति से खिलवाड़ से भी हमें बचना होगा. यदि हम नहीं संभले तो हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की तरह इतिहास में दफन हो जाएंगे.

उत्तराखंड में जब बादल फटने से तबाही हुई थी तो संसदीय समिति ने आपदा प्रबंधन के वैज्ञानिकों को बुलाया था. मैं उस संसदीय समिति में था. वैज्ञानिकों ने बताया था कि वे तो कई बार चेतावनी दे चुके थे लेकिन सरकार ने सुनी ही नहीं! ऐसा नहीं होना चाहिए. हर चेतावनी पर ध्यान देना जरूरी है.और अंत में...

तुर्की में भूकंप की त्रासदी के बाद जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्देश के बाद भारत ने तत्काल सहयोग का हाथ बढ़ाया वह काबिले-तारीफ है. नेपाल में भी इसी तरह भारत ने सहयोग का हाथ बढ़ाया था. यही भारत की संस्कृति है. मानवता का भी यही तकाजा है.

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