विजय दर्डा का ब्लॉग: बजट का अमृत आम आदमी तक पहुंचना चाहिए
By विजय दर्डा | Published: January 31, 2021 05:14 PM2021-01-31T17:14:35+5:302021-01-31T18:21:39+5:30
बजट के आंकड़ों से आम आदमी का कोई लेना-देना नहीं होता. उसकी उम्मीद केवल इतनी सी होती है कि बजट ऐसा हो जो उसकी बुनियादी जरूरतों को पूरा करे और जिंदगी को सुगम बनाए. पिछला साल बहुत कठिन रहा है. बजट ऐसा हो कि उसका अमृत आम आदमी तक पहुंचे.
इस साल का बजट बनाना निश्चय ही कोई आसान काम नहीं रहा होगा, क्योंकि महामारी ने देश की अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया है. महीनों तक चौपट रहे उद्योग-धंधे अभी भी उबर नहीं पाए हैं. करोड़ों लोगों को उनकी नौकरी वापस नहीं मिल पाई है और रोजगार तो बुरी हालत में है ही. जाहिर सी बात है कि हर घर की उम्मीदें इस बात पर टिकी हैं कि मोदी जी का जादुई कलम बजट में ऐसा कमाल दिखाए कि जिंदगी का संघर्ष कम हो. कम से कम रोजी-रोटी की कमी न पड़े, बच्चों की पढ़ाई और स्वास्थ्य की देखभाल ठीक से हो जाए!
कुछ घंटों बाद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण संसद में बजट पेश कर रही होंगी और पूरा देश टकटकी लगाकर उन्हें सुन रहा होगा कि उनके पिटारे से इस बार क्या निकलता है. मैं यह जानता हूं कि इस बार सरकार के सामने भी बड़ा संकट है. धन की उपलब्धता की अपनी सीमाएं हैं लेकिन सरकार होती ही इसलिए है कि वह कठिन परिस्थितियों में भी अपने देशवासियों को सहूलियत दे सके. उनमें विश्वास जगा सके कि जिसे उन्होंने चुना है उसके पास भंवर से बाहर निकलने का हुनर मौजूद है.
मैं उम्मीद कर रहा हूं कि बजट तैयार करते वक्त निर्मला सीतारमण और उनकी टीम ने हर जरूरत का खयाल जरूर रखा होगा. यदि उसमें कुछ कमी रह गई होगी तो यह हर सांसद की जिम्मेदारी है कि वह उस कमी को पूरा करने में सरकार की मदद करे और सरकार को भी दिल-दिमाग खुला रखकर सुझावों को स्वीकार करना चाहिए. भले ही वे सुझाव किसी विपक्षी सांसद की ओर से क्यों न आए हों. इसके अलावा विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों के साथ भी गहन विचार-विमर्श किया जाना चाहिए. आखिर हर किसी का लक्ष्य देश को आगे ले जाने का ही तो है!
एक पत्रकार के नाते मैं आम आदमी के निरंतर संपर्क में रहता हूं और उनकी जरूरतों को समझता भी हूं. इस महामारी के दौरान जिन समस्याओं का सामना आम लोगों को करना पड़ा वे अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और बजट के माध्यम से इसका समाधान निकाला जाना चाहिए. सबसे पहले तो आम आदमी की जेब की बात करें. हर कोई इस बात से सहमत होगा कि महामारी ने हर जेब पर डाका डाला है चाहे वो कोई नौकरीपेशा हो, कोई रेहड़ी लगाने वाला या दुकान चलाने वाला व्यक्ति हो या फिर कोई उद्योगपति!
उद्योगों की खराब हालत ने नौकरियों में भारी कमी कर दी. इसलिए यह जरूरी है कि सरकार उद्योगों के साथ ही एमएसएमई के लिए भी रास्ता सुगम करे जो बड़े पैमाने पर नौकरी और रोजगार का सृजन करते हैं. उद्योग पनपेंगे तो नौकरियां पनपेंगी और रोजगार बढ़ेगा.निजी क्षेत्रों में जिन लोगों के पास नौकरियां बची हैं वे कटौती का सामना कर रहे हैं. जेब भारी संकट में है. ऐसे में स्वाभाविक तौर पर लोगों की इच्छा है कि इनकम टैक्स में रिबेट मिले.
खासकर जो लोग कोरोना के शिकार हुए हैं और उन्हें अस्पतालों में भारी भरकम राशि खर्च करनी पड़ी है उसे छूट के दायरे में रखा जाना चाहिए. इसके साथ ही महंगाई पर हर हाल में काबू पाने की जरूरत है. सरकारी आंकड़ा चाहे जो भी हो लेकिन हकीकत यही है कि हर चीज के भाव तेजी से बढ़े हैं. अनाज से लेकर खाना पकाने के गैस तक की कीमतों में उछाल आया है. पेट्रोल और डीजल की कीमतें आसमान छू रही हैं.
डीजल की कीमत बढ़ने से तो महंगाई में तेजी से उछाल आता है. आखिर आम आदमी को राहत देने की जिम्मेदारी किसकी है? सरकार की ही तो है! कंस्ट्रक्शन सेक्टर भी बुरी हालत में है. सीमेंट और सरिया की कीमतें काफी बढ़ गई हैं. जाहिर है कि किसी के लिए भी मकान खरीदना या बनाना बहुत महंगा हो गया है. जब मकान नहीं बनेंगे तो श्रमिकों को रोजगार कहां से मिलेगा. सरकार को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि स्टील उद्योग और फूड इंडस्ट्रीज ने बेतहाशा कमाई की है. आश्चर्यजनक है कि फसल की बंपर पैदावार के बावजूद अनाज की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं. महंगाई पर जब तक काबू नहीं पाया जाएगा तब तक आम आदमी परेशान ही रहेगा.
..और सबसे बड़ी जरूरत है देश के स्वास्थ्य को सुधारना. महामारी के दौरान हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था बौनी साबित हुई है. हम खासतौर पर महाराष्ट्र की बात करें तो सरकार का आर्थिक सव्रेक्षण ही बता रहा है कि कोरोना से लड़ने में महाराष्ट्र अक्षम साबित हुआ है. यदि यह बात गलत थी तो महाराष्ट्र के सांसदों ने कोई आवाज क्यों नहीं उठाई. बहरहाल यह बीती बात है. हमें अब भविष्य को ध्यान में रखते हुए स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए अब तेजी से और सार्थक कदम उठाने होंगे.
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि भारत अपनी जीडीपी का केवल 1.4 प्रतिशत ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है. जबकि वैश्विक स्तर 6 प्रतिशत माना गया है. अब यह अत्यावश्यक है कि सरकारी अस्पतालों को सक्षम बनाने के लिए बजट में पर्याप्त प्रावधान हों. 2017 की स्वास्थ्य नीति में लक्ष्य निर्धारित किया गया था कि 2025 तक जीडीपी की 2.5 प्रतिशत राशि स्वास्थ्य सेवाओं के लिए खर्च होने लगेगी लेकिन इस महामारी के बाद सरकार को लक्ष्य फिर से निर्धारित करना चाहिए.
कितनी शर्मनाक बात है कि स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच और गुणवत्ता की वैश्विक रैंकिंग में 159 देशों की सूची में हम 120वें पायदान पर हैं. श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल भी हमसे ऊपर हैं. हमें यह उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार इन सारी समस्याओं के समाधान का लेखाजोखा इस बजट में जरूर पेश करेगी.