विजय दर्डा का ब्लॉग: दुनिया के लिए नई रोशनी है लिश्टेनश्टाइन..!
By विजय दर्डा | Published: November 22, 2021 08:14 AM2021-11-22T08:14:23+5:302021-11-22T08:15:36+5:30
मध्य यूरोप में ऑस्ट्रिया और स्विट्जरलैंड के बीच बसे अत्यंत छोटे से देश लिश्टेनश्टाइन की कहानी बेहद दिलचस्प है. इस देश ने दिखाया है कि महिलाओं के खिलाफ अत्याचार को जड़ से मिटाया जा सकता है.
हाल ही में मैं अपनी स्विट्जरलैंड यात्र के दौरान इसके पड़ोस में बसे एक छोटे से देश लिश्टेनश्टाइन भी गया था और वहां के लोगों से मिला. यूरोप के इस अत्यंत छोटे से देश की प्रेरणादायी कहानी बताने से पहले मैं आपको याद दिला दूं कि 25 नवंबर को पूरी दुनिया महिलाओं पर अत्याचार का निषेध दिवस मनाने जा रही है.
यूनाइटेड नेशन जनरल असेंबली के एक प्रस्ताव के तहत 1993 से इस दिवस की शुरुआत हुई थी. इस बार कार्यक्रम 10 दिसंबर को मानवाधिकार दिवस तक आयोजित होंगे. लक्ष्य यही है कि पूरी दुनिया में लड़कियों और महिलाओं पर विभिन्न प्रकार के होने वाले हमले रुकें. उन्हें अपना मुकद्दर लिखने की आजादी मिले और उनके अधिकारों का कोई हनन न करे!
महिलाओं पर अत्याचार का निषेध दिवस मनाते हुए हमें करीब 28 साल हो चुके हैं इसलिए इस बात का आकलन बहुत जरूरी है कि इसमें कहां तक सफलता मिली है या नहीं मिली है? इसी सिलसिले में मैं मध्य यूरोप में ऑस्ट्रिया और स्विट्जरलैंड के बीच बसे अत्यंत छोटे से देश लिश्टेनश्टाइन की कहानी सुनाना चाहता हूं जिसने पूरी दुनिया को दिखाया है कि महिलाओं के खिलाफ अत्याचार को जड़ से मिटाया जा सकता है.
वहां की आबादी 40 हजार से भी कम है और प्रति 100 लड़कियों की तुलना में 126 लड़के हैं. इसके बावजूद पिछले साल यानी 2020 में बलात्कार की एक भी घटना नहीं हुई! निश्चय ही लिंगानुपात में यह अंतर भीषण है और यह लड़कों के प्रति चाहत का परिणाम है लेकिन अब लिश्टेनश्टाइन ने गर्भपात के खिलाफ कड़ा कानून बना रखा है.
बलात्कार का आंकड़ा शून्य होने का यह कारण कतई नहीं है कि वहां हर गली-मोहल्ले में पुलिस रहती है! हकीकत तो यह है कि 160 वर्ग किलोमीटर के पूरे देश में महज 125 पुलिसकर्मी ही हैं जिनमें करीब 90 तो अधिकारी हैं. लिश्टेनश्टाइन ने महिलाओं के खिलाफ अपराध खत्म करने को लेकर जीरो टॉलरेंस नीति अपना रखी है.
इसके साथ ही महिलाओं के प्रति सम्मान को समाज में स्थापित करने में भी सफलता हासिल की है. इसका एक बड़ा कारण उस देश की शैक्षणिक गतिविधियां भी हैं. वहां साक्षरता की दर 100 फीसदी है. निश्चय ही लिश्टेनश्टाइन की इस सफलता से पूरी दुनिया को नई रोशनी मिल सकती है. यदि हम सामाजिक स्तर पर, सरकारी स्तर पर और निजी स्तर पर यह ठान लें कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले हर अत्याचार को समाप्त करेंगे तो कोई कारण नहीं कि सफलता न मिले!
निश्चय ही हम भारतीयों के लिए भी यह विषय गंभीर चिंता का कारण है क्योंकि हमारा रिकॉर्ड ठीक नहीं है. अभी भी हर रोज बलात्कार की 80 से ज्यादा घटनाएं होती हैं और हर दूसरे-तीसरे मिनट महिलाओं के खिलाफ कोई न कोई अपराध हो ही जाता है. वैसे तो दुनिया के विकसित मुल्कों में भी हालात कोई खास बेहतर नहीं हैं. रूस, अमेरिका, चीन, जापान जैसे विकसित देश हों या पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश जैसे हमारे पड़ोसी मुल्क, मैंने हर जगह परिस्थिति को नजदीक से देखा है और कह सकता हूं कि महिलाओं को लेकर हालात कहीं भी ठीक नहीं हैं.
हमारे देश में भी महाभारत काल से ही महिलाओं पर अत्याचार और अपमान की कहानी है. लेकिन वर्तमान में खास तौर पर अफगानिस्तान की घटना ने विभीषिका को बढ़ा दिया है. जाहिल और बर्बर तालिबान ने पूरे देश की महिलाओं की जिंदगी को नरक में ढकेल दिया है और दुनिया खामोश बैठी हुई है. आज के सभ्य काल में आदिम काल की बर्बरता बरती जा रही है और बेसहारा महिलाएं जुल्म का शिकार हो रही हैं.
जरा सोचिए कि 25 नवंबर को जब पूरी दुनिया ‘महिलाओं पर अत्याचार का निषेध दिवस’ मना रही होगी तब अफगानी महिलाएं या तो अंधेरे बंद कमरे में सिसक रही होंगी या फिर सड़क पर निकलने के जुर्म में किसी तालिबानी के खौफनाक कोड़े खा रही होंगी! जिस यूनाइटेड नेशन ने ‘महिलाओं पर अत्याचार का निषेध दिवस’ मनाने के लिए प्रेरित किया है, क्या अफगानी औरतों के लिए उसका कोई फर्ज नहीं बनता है? वहां तो महा अत्याचार हो रहा है!
जहां तक दुनिया के दूसरे मुल्कों का सवाल है तो यूनाइटेड नेशन का ही समग्र आंकड़ा है कि हर तीसरी महिला या लड़की अपने जीवन में किसी न किसी रूप में यौन हमले का शिकार होती है. लड़कियां अपने ही जानने वालों की गंदी मानसिकता का और महिलाएं अपने ही साथी की हवस का शिकार बनती हैं.
इसके अलावा मारपीट और गालीगलौज भी ऐसी महिलाओं की नियति बन चुकी है. कोविड महामारी के दौरान हुए सव्रे में यह बात सामने आई कि महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा बढ़ गई. यह स्थिति हर मुल्क में बनी. यूनाइटेड नेशन के ही आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में शादीशुदा महिलाओं में केवल 52 प्रतिशत ही अपनी निजी जिंदगी के बारे में खुद निर्णय ले पाती हैं. 48 प्रतिशत की जिंदगी के बारे में उनके परिवार वाले ही निर्णय करते हैं.
जहां तक लड़कियों का सवाल है तो दुनिया के बहुत से देशों में आज भी उनकी राय लिए बगैर उनकी शादी तय हो जाती है. वैवाहिक जिंदगी को लेकर एक अनिश्चितता बनी रहती है. नए जमाने में तो लड़कियों के खिलाफ साइबर अपराध भी बेतहाशा बढ़े हैं.
यूनाइटेड नेशन का ही एक और आंकड़ा मैं आपको बताता हूं. ह्यूमन ट्रैफिकिंग का शिकार होने वालों में 71 प्रतिशत महिलाएं होती हैं. इनमें 4 में से 3 महिलाएं निश्चित रूप से यौन हमले का शिकार होती हैं. ये तो वो आंकड़े हैं जो कागजों या कम्प्यूटर पर दर्ज हुए हैं.
उन आंकड़ों का तो पता ही नहीं जो दुनिया के सामने आ ही नहीं रहे हैं. हकीकत तो यही है कि हमारी आधी आबादी अब भी स्वतंत्रता का इंतजार कर रही है. ऐसा नहीं कि महिलाओं के खिलाफ अत्याचार रोकने के लिए सख्त कानून नहीं हैं. हकीकत तो यह है कि दुनिया भर में इस तरह के कड़े कानून बने हुए हैं. लेकिन इसके बावजूद पुरुष की प्रवृत्ति बदली नहीं है और उसकी हवस का शिकार महिलाएं हो रही हैं.
इसलिए महिलाओं पर अत्याचार रोकने के लिए सख्त कानून तो जरूरी है ही, मानसिकता बदलने का महाअभियान भी चलाना होगा. सबके मन में यह बात गहरे पैठनी चाहिए कि स्त्री हमारी मां है, हमारी बहन है, हमारी जीवनसंगिनी है. स्त्री इस संसार में ईश्वर की प्रतिनिधि रचना है. स्त्री का सम्मान ईश्वर का सम्मान है..!