विजय दर्डा का ब्लॉग: कांग्रेस की ऐसी दुर्दशा आखिर क्यों हो गई?

By विजय दर्डा | Published: June 3, 2019 05:46 AM2019-06-03T05:46:29+5:302019-06-03T05:46:29+5:30

1966 तक संगठन में कार्यकर्ता का बड़ा महत्व था लेकिन उसके बाद समर्पित कार्यकर्ताओं की जगह कांट्रेक्टर आ गए. सभाओं में भीड़ कांट्रेक्टर जुटाने लगे. 1985 से 1990 के बीच बैग संस्कृति ने भी जन्म लिया. कांग्रेस बदलने लगी.

Vijay Darda Blog: Congress went to the plight Why? | विजय दर्डा का ब्लॉग: कांग्रेस की ऐसी दुर्दशा आखिर क्यों हो गई?

विजय दर्डा का ब्लॉग: कांग्रेस की ऐसी दुर्दशा आखिर क्यों हो गई?

इसमें कोई संदेह नहीं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने बहुत मेहनत की लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि परिणाम क्या आया? कांग्रेस क्यों बुरी तरह हार गई? राहुल गांधी का अमेठी से चुनाव हार जाना क्या कोई छोटी घटना है? केवल यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता कि इस चुनाव में मोदी की लहर नहीं, सुनामी थी. सुनामी का जिस तरह अंतिम समय तक पता नहीं चलता, वैसे ही मोदी-सुनामी का पता नहीं चला! इस पराजय का एक कारण मोदी की सुनामी हो सकता है लेकिन इतनी बुरी हार क्या संगठन की विफलता नहीं है? 

जब से समझ पैदा हुई तब से मैं कांग्रेस को बहुत करीब से देख रहा हूं. उसके बाद संसदीय राजनीति में 18 साल रहने का मौका भी मिला. मैं उस दौर को अच्छी तरह जानता हूं  जब कांग्रेस गांव-गांव में थी. जिले का कांग्रेस अध्यक्ष यदि कुछ कहता था तो उसकी सुनी जाती थी. यदि उसने किसी के बारे में कहा कि उसे टिकट नहीं दिया जाए तो उसकी बात मानी जाती थी. 

उस कांग्रेस में सेवादल, महिला कांग्रेस, युवक कांग्रेस, एनएसयूआई जैसे महत्वपूर्ण हिस्से थे. संगठन में जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाषचंद्र बोस, मौलाना अबुल कलाम आजाद, बी.पी. सीतारमैया, वीर वामन दादा जोशी, तुकड़ोजी महाराज, मोरारजी देसाई जैसे लोग थे जो शतरंजी बिछाते थे. सरोजिनी नायडू, कमला नेहरू, अरुणा आसफ अली और इंदिरा गांधी थीं जो महिला कांग्रेस में अत्यंत सक्रिय थीं. चुनाव होते थे तो लोग अपनी गाड़ी लेकर निकलते थे और अपना पेट्रोल खर्च करके चुनाव प्रचार करते थे. कांग्रेस के पास समर्पित कार्यकर्ता हुआ करते थे.   

1966 तक संगठन में कार्यकर्ता का बड़ा महत्व था लेकिन उसके बाद समर्पित कार्यकर्ताओं की जगह कांट्रेक्टर आ गए. सभाओं में भीड़ कांट्रेक्टर जुटाने लगे. 1985 से 1990 के बीच बैग संस्कृति ने भी जन्म लिया. कांग्रेस बदलने लगी. पहले कोई भी बड़ा नेता कहीं जाता था तो सबसे पहले कांग्रेस कार्यालय जाता था क्योंकि तब कांग्रेस कार्यालय को नेता मंदिर मानते थे. धीरे-धीरे सब समाप्त होने लगा. कांग्रेस को बीमारी लग गई! इस बीमारी में संगठन लाइलाज होता चला गया. निश्चय ही इंदिराजी, राजीवजी, सोनियाजी और राहुलजी ने संभालने की कोशिश की लेकिन नेताओं की एक ऐसी फौज जमा हो गई जिसकी प्राथमिकता में पार्टी नहीं, उसके अपने लाभ महत्वपूर्ण थे. 

दस साल के यूपीए के  कार्यकाल की बात करें तो पहले पांच साल बेहतरीन गुजरे लेकिन अगला पांच साल हाथ से गुजर गया. राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने को तैयार नहीं थे. उनके नाम पर कुछ लोगों ने पार्टी में उधम मचा रखा था. एक दूसरे को निपटाने की ऐसी चाल चली जा रही थी जिससे कांग्रेस छलनी हो रही थी. हर पल पार्टी के बारे में सोचने वाले अहमद पटेल और गुलाम नबी आजाद जैसे लोग गोल घेरे से बाहर कर दिए गए. ऐसे लोगों का बोलबाला हो गया जो संगठन की जगह संगीत में तल्लीन थे. संगठन पीछे छूटता चला गया.

माहौल ऐसा हो गया कि मनमोहन सिंह पिसे जा रहे थे और उनका कार्यालय ठप हो गया था. एक के बाद एक घोटालों के आरोप सामने आने लगे. कॉमनवेल्थ गेम, 2जी, कोल, आदर्श सोसायटी, रेलवे के बंसल, अश्विनी कुमार को लेकर मामले उछलने लगे. कांग्रेस ने अपने मिनिस्टर और कई चीफ मिनिस्टर के इस्तीफे करवाए. खुद कांग्रेस ने अपनी छवि खराब की. ऐसा वातावरण बना दिया कि सरकार निकम्मी और भ्रष्ट है. इधर बेरोजगार युवा परेशान थे, किसान तड़प रहा था. इसी दौर में नरेंद्र मोदी सामने आए जिन्होंने अच्छी सरकार का भरोसा दिया. लोगों ने उन्हें शानदार अवसर दिया. विपक्ष में बैठी यूपीए जिसमें कांग्रेस भी थी, सार्थक भूमिका नहीं निभा पाई. मैंने संसद में यह महसूस किया कि सत्तापक्ष के चरित्र और चेहरे को बेनकाब किया जा सकता था लेकिन विपक्ष ने अपने लोगों को ही निपटा दिया. 

अब जरा गौर करें 2019 पर. मोदीजी के 2014 से 2019 के  कार्यकाल में ऑल इज वेल नहीं था. वादे अधूरे थे. कांग्रेस एवं यूपीए में शामिल दलों के लिए अवसर अच्छा था लेकिन गंवा दिया. राहुलजी ने  खूब मेहनत की, लेकिन संगठन के बड़े नेता क्या कदम मिलाकर चल रहे थे?  टिकट बंटवारे में अपने-पराये का खूब खेल हुआ. इसके साथ ही कांग्रेस यह समझ ही नहीं पाई कि मोदीजी देशभक्ति का तुरुप का पत्ता लेकर आ गए हैं. पश्चिम बंगाल से लेकर यूपी, बिहार, राजस्थान और   महाराष्ट्र तक कांग्रेस तितर-बितर हो गई. इसके बावजूद मेरा मानना है कि कांग्रेस खत्म नहीं होगी. कांग्रेस एक विचार है, आत्मा है. आत्मा और  विचारों की मौत नहीं होती. वक्त जरूर खराब हो सकता है.

कांग्रेस के ठीक विपरीत संगठन के स्तर पर भाजपा खुद को मजबूत करती चली गई है. भाजपा के मातृ संगठन आरएसएस ने किसानों से लेकर युवाओं और बुद्धिजीवियों के बीच देश-विदेश में संगठन खड़े किए और पैठ बनाई. कभी अटलजी ने कहा था कि हम 2 से 300 हो जाएंगे जिसे नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने सच कर दिया है. मोदीजी दुनिया में पहचाने जाने वाले नेता हैं. उनके साथ अमित शाह जैसे रणनीतिज्ञ हैं जिनकी संगठन क्षमता अद्वितीय है. कांग्रेस को सोचना पड़ेगा कि वह मुकाबला कैसे करेगी. खोई हुई जमीन कैसे वापस पाएगी. 

और हां, मैं इस बात के लिए मोदीजी को बधाई देना चाहता हूं कि उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में रक्षा और विदेश जैसे महत्वपूर्ण विभाग महिलाओं के हाथ में दिए और अब वित्त जैसा महत्वपूर्ण विभाग भी एक महिला को ही सौंपा है. 

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