वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग: सब को अपनाए आरएसएस
By वेद प्रताप वैदिक | Published: September 3, 2019 11:21 AM2019-09-03T11:21:11+5:302019-09-03T11:21:11+5:30
संघ के बारे में यह विचार बद्धमूल है कि वह मुस्लिम-विरोधी है. भारत के मुस्लिम संगठन भी संघ को कोसते रहे हैं. लेकिन पिछले कुछ वर्षो में दोनों पक्षों के रवैयों में कुछ सुधार हुआ है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जमीयत उलेमा-ए-हिंद के प्रमुखों की मुलाकात को जितना महत्व खबरों में मिलना चाहिए था, नहीं मिला. मेरी राय में मोहन भागवत और मौलाना अरशद मदनी की इस भेंट का महत्व ऐतिहासिक है. ऐसा इसलिए भी है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्नी इमरान खान इधर कई बार कह चुके हैं कि आरएसएस और नरेंद्र मोदी हिटलर और मुसोलिनी के नक्शे-कदम पर चल रहे हैं, वे कश्मीरी मुसलमानों को खत्म करने पर आमादा हैं.
संघ के बारे में यह विचार बद्धमूल है कि वह मुस्लिम-विरोधी है. भारत के मुस्लिम संगठन भी संघ को कोसते रहे हैं. लेकिन पिछले कुछ वर्षो में दोनों पक्षों के रवैयों में कुछ सुधार हुआ है. भागवत और मदनी की भेंट इसका प्रमाण है. यह काम सबसे पहले संघ-प्रमुख कुप्प सी. सुदर्शन ने शुरू किया था. सुदर्शनजी अब से 50-55 साल पहले जब इंदौर में शाखा चलाते थे, तब मैं उनसे कहा करता था कि देश के करोड़ों मुसलमानों को हम यदि अराष्ट्रीय और अछूत मानते रहेंगे तो भारत न तो कभी महाशक्ति बन पाएगा और न ही संपन्न हो पाएगा.
सरसंघचालक बनने पर उन्होंने ‘राष्ट्रीय मुस्लिम मंच’ की स्थापना की. मैं तो वह दिन देखना चाहता हूं जब संघ की शाखाओं में मुसलमान, ईसाई, यहूदी भी जमकर भाग लें. विदेशों में जन्मे मजहबों या विचारधाराओं के अनुयायियों को हम विदेशी मानने लगें या उनकी देशभक्ति पर शक करने लगें, यह सर्वथा अनुचित है. यदि मेरे इस विचार से मोहन भागवत सहमत हैं कि हिंदुत्व ही भारतीयता है और भारतीयता ही हिंदुत्व, तो मैं कहूंगा कि संघ के दरवाजे समस्त भारतीयों के लिए खोल दिए जाने चाहिए.
इसका उल्टा भी लागू होना चाहिए. यानी अपने मुसलमान, ईसाई और यहूदी भाइयों से हम यह क्यों नहीं चाहें कि वे बाहरी मुल्कों की आंख मींचकर नकल न करें, भारतीयता को मजबूती से पकड़े रहें. सच्चे भारतीय होने और सच्चे मुसलमान होने में कोई अंतर्विरोध नहीं है.