ब्लॉग: सिद्धांतहीन राजनीति पर लगना चाहिए अंकुश
By विश्वनाथ सचदेव | Published: April 3, 2024 11:27 AM2024-04-03T11:27:23+5:302024-04-03T11:28:04+5:30
मतदाता भी कुछ घोषित नीतियों और आश्वासनों के आधार पर अपना प्रतिनिधि चुनते हैं और यह मानकर चला जाता है कि सत्ता में होने के अपने कार्य-काल में चुने हुए नेता और राजनीतिक दल उन नीतियों और आश्वासनों के अनुरूप कार्य करेंगे।
गुजराती के प्रतिष्ठित कवि हैं वे उस दिन टेलीफोन पर क्रिकेट मैच देखते हुए अचानक बोले, ’’हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते हैं?’’ क्या नहीं कर सकते हैं हम, जब उनसे यह पूछा तो उन्होंने कहा, “वही, जो क्रिकेट के दर्शक कर रहे हैं’’ फिर उन्होंने समझाते हुए कहा था, हार्दिक गुजरात से खेलता था, वह पाला बदलकर मुंबई की टीम का कप्तान बन गया है। दर्शक इस पलटूराम को स्वीकार नहीं कर रहे, इसलिए उसके खिलाफ नारेबाजी कर रहे हैं। हम अपने राजनेताओं के साथ ऐसा क्यों नहीं कर सकते?
हमें भी उनका बहिष्कार कर देना चाहिए और फिर हम हंस दिए थे पर यह सवाल सिर्फ हंसने वाला नहीं था। चुनाव का मौसम चल रहा है आए दिन नेताओं के पाला बदलने की खबरें आ रही हैं। फलाना नेता फलाना दल छोड़कर फलाने दल में चला गया है, फलाना नेता घरवापसी कर गया है, फलाने नेता ने कल रात दल न बदलने की कसम खाई थी, आज सबेरे वह फिर दलबदलू बन गया है... अखबारों में इस तरह के शीर्षक आम बात हो गए हैं।
टीवी चैनलों पर चटखारे ले-लेकर इस आशय की खबरों को सुनाया-दिखाया जा रहा है न दलबदलुओं को अपनी कथनी-करनी पर शर्म आ रही है और न ही राजनीतिक दलों को कोई संकोच हो रहा है उनका स्वागत करने में, जिन्हें कल तक वह भ्रष्टाचारी, बेईमान, धोखेबाज जैसे विशेषणों से नवाजा करते थे। मेरा गुजराती कवि मित्र ऐसे ही लोगों की बात कर रहा था... पर कौन सुन रहा है उसकी बात?
लेकिन इस आवाज को सुना जाना जरूरी है खास तौर पर जनतांत्रिक व्यवस्था में, जहां मतदाता उम्मीदवार की नीतियों, बातों पर भरोसा करके उसे अपना प्रतिनिधि चुनता है। ऐसे निर्वाचित प्रतिनिधियों का कोई अधिकार नहीं बनता कि वे अपने मतदाता के साथ इस तरह की धोखेबाजी करें।
हां, ऐसे दलबदलुओं को धोखेबाज ही कहा जा सकता है जिनके लिए येन-केन प्रकारेण सत्ता में हिस्सेदारी करना ही राजनीति का उद्देश्य है. और दुर्भाग्य यह है कि इस धोखेबाजी को हमारी राजनीति में ही नहीं, हमारे जीवन में भी स्वीकार कर लिया गया है! जनता की, जनता के लिए, और जनता द्वारा चुनी गई सरकार वाली व्यवस्था में यह मानकर चला जाता है कि चुने हुए प्रतिनिधि कुछ नीतियों-कार्यक्रमों के आधार पर जनता के हित में काम करेंगे।
मतदाता भी कुछ घोषित नीतियों और आश्वासनों के आधार पर अपना प्रतिनिधि चुनते हैं और यह मानकर चला जाता है कि सत्ता में होने के अपने कार्य-काल में चुने हुए नेता और राजनीतिक दल उन नीतियों और आश्वासनों के अनुरूप कार्य करेंगे। दलगत राजनीति वाली जनतांत्रिक व्यवस्था में कुछ नीतियों के आधार पर दलों का गठन होता है और यह अपेक्षा होती है कि राजनीतिक दल अपनी घोषित नीतियों के प्रति ईमानदार रहेंगे पर अक्सर ऐसा होता नहीं। पिछले 75 सालों में हमने राजनीतिक दलों और राजनेताओं की सिद्धांतहीन और अनैतिक राजनीति के ढेरों उदाहरण देखे हैं।
इस समय हमारे देश में 18वीं लोकसभा के लिए चुनाव चल रहे हैं। राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों के चयन में लगे हैं और राजनेता उन राजनीतिक दलों का दामन पकड़ने की कोशिश में हैं जो उन्हें जीत की कच्ची-पक्की गारंटी दे सकते हैं। उम्मीदवारों के चयन का आधार सिर्फ उनके जीतने की संभावनाएं ही हैं। यह बात कोई मायने नहीं रखती कि वे कैसे जीतते हैं-बस जीतना चाहिए।
जनतांत्रिक व्यवस्था सिर्फ एक प्रणाली नहीं है, एक जीता-जागता विचार है। यह प्रणाली बहुमत के आधार पर घोषित नीतियों के अनुसार शासन चलाने के लिए व्यक्तियों-दलों को चुना जाता है। उम्मीद की जाती है कि उन नीतियों का पालन होगा। इस प्रणाली में मतदाता सिर्फ अपना प्रतिनिधि ही नहीं चुनता, निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन के संदर्भ में अपने विचार भी स्पष्ट करता है। मतदाता के इन विचारों का सम्मान होना ही चाहिए पर, इस संदर्भ में हम जो कुछ अपने देश में होता देख रहे हैं, वह कुल मिलाकर निराश ही करता है।
ऐसा नहीं है कि इस विसंगति की ओर कभी, या किसी का ध्यान नहीं गया। ध्यान गया था। इसीलिए कुछ ऐसी व्यवस्थाएं भी बनाई गईं जो दल-बदल से उत्पन्न अराजक स्थिति को कुछ संवारें। लगभग चालीस साल पहले वर्ष 1985 में देश में दल-बदल विरोधी कानून भी बना था। पर तू डाल-डाल मैं पात-पात वाली स्थिति बनती रही। दलबदलुओं को हेयदृष्टि से भी देखे जाने की बात कही जाती है, पर व्यवहार में जो दिख रहा है वह ‘शर्म इनको मगर नहीं आती’ का उदाहरण ही प्रस्तुत करने वाला है।
ऐसे दल-बदलुओं के नाम गिनाने की आवश्यकता नहीं है।
हर दल में ऐसे लोग मिल जाएंगे। मजे की बात यह है कि ऐसा दल-बदल हमेशा समाज और देश की सेवा के नाम पर होता है! हर दलबदलू यह दावा करता है कि वह ईमानदार राजनीति का उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है- दल बदलने में उसका कोई निजी स्वार्थ नहीं है! इस संदर्भ में एक सवाल तो मतदाता से भी बनता है- वह क्यों ऐसे राजनेताओं को समर्थन देता है जिनके दामन पर दलबदलू होने का दाग हो? फिर, कोई व्यवस्था तो ऐसी भी होनी चाहिए जिसमें सिद्धांतहीन राजनीति पर कोई अंकुश लग सके।