एनजेएसी विधेयकः न्यायिक नियुक्ति में पारदर्शिता जरूरी?, कहां है पेंच
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: April 4, 2025 05:15 IST2025-04-04T05:15:16+5:302025-04-04T05:15:16+5:30
दिल्ली हाईकोर्ट के जज यशवंत वर्मा के आवास से नगदी की कथित बरामदगी की कथा सामने आने के बाद से कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच का अघोषित शीतयुद्ध सतह पर आ गया है.

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प्रभु चावला
न्यायशास्त्र अगर रोमनों की देन है तो ‘स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व’ का नारा देने वाले फ्रांसीसी न्याय देने का दावा करते हैं. 18वीं सदी के फ्रेंच दार्शनिक मोंटेस्क्यू ने, जिन्हें लोकतंत्र में पारदर्शिता के सिद्धांत का जनक कहा जाता है, ‘द स्पिरिट ऑफ लॉ’ में लिखा, ‘ताकत के दुरुपयोग को रोकने के लिए जरूरी है कि ताकत पर नजर रखी जाए... लोकतंत्र की शक्ति सिर्फ तभी भ्रष्ट नहीं होती, जब समानता की भावना खत्म हो जाती है, बल्कि तब भी नष्ट होती है, जब अत्यधिक समानता की भावना सामने आती है.’ लोकतंत्र को भाई-भतीजावाद, तानाशाही और विकृति से बचाने के लिए मोंटेस्क्यू ने ही चर्च और राज्य की शक्तियों के पृथक्करण का तर्क दिया था. उनके सिद्धांत आज भी अमिट हैं : विधायिका कानून बनाती है, कार्यपालिका उसे लागू करती है और न्यायपालिका उसकी व्याख्या करती है.
मोंटेस्क्यू का जोर इस बात पर था कि ये तीनों अंग एक दूसरे से पृथक रहें, पर एक दूसरे पर निर्भर भी हों. भारतीय लोकतंत्र के ये तीन अंग स्वतंत्र हैं और एक दूसरे पर निर्भर भी. लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट के जज यशवंत वर्मा के आवास से नगदी की कथित बरामदगी की कथा सामने आने के बाद से कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच का अघोषित शीतयुद्ध सतह पर आ गया है.
इस खुलासे से न्यायपालिका में भूचाल आ गया, तो सत्ता प्रतिष्ठान इसे न्यायपालिका पर अंकुश लगाने के अवसर के रूप में देख रहा है. वह कॉलेजियम प्रणाली के तहत जजों की नियुक्ति को इस स्थिति के लिए जिम्मेदार ठहरा रहा है. केंद्र की भाजपा सरकार ने 99 वां संविधान संशोधन कर एनजेएसी विधेयक पारित किया.
छह सदस्यीय एनजेएसी को, जिसमें प्रधान न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठ जज, केंद्रीय कानून मंत्री तथा प्रधान न्यायाधीश, प्रधानमंत्री और नेता विपक्ष की सहमति से मनोनीत दो सदस्यों का प्रावधान था, कॉलेजियम प्रणाली की जगह लेना था. इसमें न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता का प्रावधान था: अगर दो सदस्यों की भी आपत्ति होती, तो नियुक्ति रोक देने का प्रावधान था.
लेकिन शीर्ष अदालत ने 2015 में चौथे जज के मामले में 4:1 के बहुमत फैसले से एनजेएसी को खारिज कर दिया. बहुमत का फैसला था कि एनजेएसी संविधान की मूल भावना, और उसमें भी न्यायिक स्वतंत्रता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है. तब से सरकार और न्यायपालिका के बीच शीतयुद्ध जारी है.
इस पूरे मामले में संतुलित रुख यह होगा कि कॉलेजियम प्रणाली को खत्म करने के बजाय उसमें सुधार किया जाए, या फिर लोकतांत्रिक मूल्यों का ध्यान रखते हुए एनजेएसी को सुधार कर पेश किया जाए. न्यायिक स्वतंत्रता के साथ-साथ पारदर्शिता का भी ध्यान रखा जाना चाहिए, जिससे कि जजों की नियुक्ति में प्रतिभा, अनुभव, ईमानदारी और लोगों का भरोसा ध्वनित होता हो.
बेहतर समाधान यह है कि न्यायिक नियुक्ति की प्रक्रिया में कार्यपालिका की प्रमुख भूमिका हो, लेकिन निर्णायक भूमिका प्रधान न्यायाधीश की हो. इस मुद्दे पर बहस अब भी अंतहीन है, जबकि इसमें देरी से न्यायपालिका की छवि प्रभावित हो सकती है. 18 वीं सदी के ब्रिटिश जज लॉर्ड मैन्सफील्ड ने कहा था, ‘‘न्याय होना चाहिए, भले ही आसमान टूट पड़े.’’ इस देश में औपनिवेशिक शासन खत्म हुए सात दशक से ज्यादा हो चुके हैं, ऐसे में, न्यायपालिका का आधार अगर बैर के बजाय संधि हो, तो आसमान नहीं टूट पड़ेगा.