विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: अभद्र भाषा से गिरती है सदन की गरिमा
By विश्वनाथ सचदेव | Published: September 29, 2023 03:44 PM2023-09-29T15:44:09+5:302023-09-29T15:44:09+5:30
असंसदीय शब्दों के इस्तेमाल की कहानी छोटी नहीं है, ऐसे शब्दों को लेकर एक पुस्तिका भी प्रकाशित की जा चुकी है और उसी के अनुसार न जाने कितनी बातों को संसदीय कार्रवाई से बाहर किया जा चुका है। आगे भी किया जाएगा. पर सवाल उठता है क्या मात्र इतना करना पर्याप्त है?
संसद का विशेष अधिवेशन बुलाने की आवश्यकता और औचित्य को लेकर अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में सत्तारूढ़ दल के लोग महिला-आरक्षण जैसे ऐतिहासिक विधेयक के साथ विशेष अधिवेशन को जोड़कर नए संसद भवन को भी कुछ और विशेष बनाना चाहते होंगे।
निश्चित रूप से इस विधेयक का पारित होना भारतीय जनतंत्र की एक विशेष उपलब्धि है। वर्षों से, दशकों से कहना चाहिए, यह मुद्दा चर्चा और विवाद का विषय बन रहा है. ऐसा नहीं है कि इस संदर्भ में पहल नहीं हुई, पर हर बार कोई न कोई पेंच पड़ जाता था। इस बार लोकसभा और राज्यसभा दोनों ने लगभग शत-प्रतिशत बहुमत से इसे पारित किया है।
यह बात अपने आप में कम महत्वपूर्ण नहीं है। भले ही इसे तत्काल लागू न कराया जाए, पर फिर भी शुरुआत का स्वागत होना ही चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर इसे लागू करने की दिशा में शीघ्र ही कोई कदम उठाया जाएगा। लेकिन यह विशेष अधिवेशन महिला आरक्षण विधेयक के संदर्भ के साथ ही, दुर्भाग्य से अपशब्दों के इस्तेमाल के लिए भी याद रह जाएगा।
असंसदीय शब्दों के इस्तेमाल की कहानी छोटी नहीं है, ऐसे शब्दों को लेकर एक पुस्तिका भी प्रकाशित की जा चुकी है और उसी के अनुसार न जाने कितनी बातों को संसदीय कार्रवाई से बाहर किया जा चुका है। आगे भी किया जाएगा. पर सवाल उठता है क्या मात्र इतना करना पर्याप्त है?
लोकसभा में बहस के दौरान सत्तारूढ़ दल के एक वरिष्ठ सदस्य ने बहुजन समाज पार्टी के उतने ही वरिष्ठ सदस्य के संदर्भ में जिन शब्दों को काम में लिया है वह इतने घटिया हैं कि उन्हें लिखना भी उचित नहीं माना जाएगा। अध्यक्ष ने माननीय सदस्य के शब्दों को सदन की कार्रवाई से निकाल दिया है, और यह चेतावनी भी दी है कि आगे से फिर कभी भी ऐसे शब्दों को काम में लेंगे तो और कठोर कार्रवाई करनी पड़ेगी।
सत्तारूढ़ दल के एक वरिष्ठ नेता, देश के रक्षा मंत्री, ने तभी अपनी पार्टी के सदस्य की इस शर्मनाक हरकत पर खेद प्रकट करना जरूरी समझा था, पर सवाल अभद्र शब्दों का नहीं, उस बीमार मानसिकता का है जिसके चलते देश का कोई सांसद संसद-भवन में कार्रवाई चलने के दौरान ऐसी घटिया और नितांत आपत्तिजनक भाषा काम में लेते हुए हिचकता नहीं।
सड़क की भाषा और अभिव्यक्ति का देश की संसद में पहुंचना अपने आप में एक शर्म की स्थिति है। राजनीतिक विरोधियों के साथ वाद-विवाद जनतांत्रिक प्रणाली की आवश्यकता ही नहीं, विशेषता भी है। सांसदों में मतभेद होना भी स्वाभाविक है। मतभेदों की अभिव्यक्ति कटु भी हो सकती है, लेकिन एक मर्यादा होनी चाहिए।