'कश्मीर भी पाकिस्तान बनेगा, पण्डित मर्दों के बिना पण्डित औरतों के साथ'

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: January 19, 2018 08:53 PM2018-01-19T20:53:21+5:302018-01-19T21:09:11+5:30

19 जनवरी 1990 को वो दिन जब कश्मीर के पंडितों को अपना घर छोड़ने का फरमान जारी हुआ था।

Story of The day when kashmiri Pandits faced exodus | 'कश्मीर भी पाकिस्तान बनेगा, पण्डित मर्दों के बिना पण्डित औरतों के साथ'

'कश्मीर भी पाकिस्तान बनेगा, पण्डित मर्दों के बिना पण्डित औरतों के साथ'

यह ब्लॉग अंकित दूबे का है। अंकित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र हैं।

आज '19 जनवरी' है और छह दिनों के लिए भारत भ्रमण के लिए आए इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू भी फिलहाल यहीं हैं। इस खास तारीख के साथ बेंजामिन नेतन्याहू का ज़िक्र इसलिए क्योंकि वे उस देश के मुखिया हैं जो दुनिया के सबसे ज़्यादा उत्पीड़ित रहे लोगों का घर है...और कभी 19 तारीख ने भारत के इतिहास में एक ऐसी ही उत्पीड़ित कौम की तस्दीक कराई थी जो अपने मज़हब के चलते कुचली और बाहर फेंक दी गई। बहुत याद दिलाने की ज़रूरत नहीं कि 19 जनवरी की तारीख प्रजातांत्रिक, समता, समानता और बंधुत्व पर टिके भारत के धर्मनिरपेक्ष समाज के लिए किस महत्व का रहा है। जी हां, ये तारीख़ वहीं थी जब झेलम का नीला पानी लाल होने लगा था और घाटी का शून्य से नीचे गिरा पारा हिंसा, आगजनी और नरसंहार की चिताओं की आग से गर्म हो उठा था। 

'ऐ काफिरों ऐ ज़ालिमों कश्मीर हमारा छोड़ दो'

'कश्मीर भी पाकिस्तान बनेगा, पण्डित मर्दों के बिना पण्डित औरतों के साथ'

इस तरह के तमाम नारे मस्जिदों की लाऊडस्पीकरों से आ रहे थे। कुछ लोगों ने दीवार पर लिखी इबारत पढ़ ली और समय रहते समान समेट लिया जबकि कुछ को अपने गैर हिन्दू पड़ोसियों पर अब भी भरोसा था। 19 जनवरी की तारीख उसी भरोसे को हमेशा के लिए तोड़ देने वाली थी जब पूरी की पूरी कश्मीर घाटी वहाँ के सबसे पुराने रहवासियों से खाली हो गई। जो लोग निकाले गए उनके लिए जम्मू के खुले टेंटों वाले शरणार्थी शिविर थे जहाँ से उन्हें फिर से रेशा-रेशा अपनी ज़िंदगी को बुनने की शुरुआत करनी थी। 

तथ्य और आंकड़े कहते हैं कि कभी सऊदी अरब में यहूदी रहा करते थे। ईरान तो अग्निपूजक पारसी धर्म को मानने वालों का देश ही था। अफगानिस्तान में सिख थे सिंध में हिन्दू थे और लाहौर में भी सरदार होते थे। मगर आज कहीं भी इन लोगों के कोई निशान नहीं मिलते। क्योंकि एक निशान ने सबको धो-पोंछकर हमेशा के लिए मिटा दिया। एक खास तरह की मज़हबी सोच आई और बाकी सबको चलता होना पड़ा। उसी कड़ी में कश्मीर भी शामिल हुआ और इस खास तारीख को सभी गैर मुस्लिमों को घाटी से खदेड़ दिया गया। विडम्बना ये है कि जब पण्डितों का घर छूट रहा था तब दिल्ली में बैठे देश के गृह मंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद इसी कश्मीर से थे। 

1947 में देश बंटता है और बड़ी संख्या में हिन्दू-मुस्लिम देशान्तर यात्रा करके अपने लिए एक नया मुल्क़ चुनते हैं। दंगे होते हैं और सदियों का सौहार्द तार-तार होकर रह जाता है। फिर पण्डित नेहरू की अगुवाई में देश का परिपक्व नेतृत्व सब सम्भाल लेता है और उसी के भरोसे अधिकांश मुसलमान भारत में ही रुक जाने का फैसला करते हैं। छिटपुट लड़ाइयों के अलावे कुछ समय बाद इस उपमहाद्वीप में राम-रहीम फिर से साथ-साथ अपने साग-सत्तू में लग जाते हैं। फिर इस देश की तारीख़ में एक मोड़ आता है जब इस महान एकता में स्थाई दरार पड़ जाती है।

बुद्धिमान लोग कहते हैं कि वह तारीख 6 दिसम्बर 1992  थी, जब बाबरी मस्ज़िद को गिरा दिया गया। अकलियतों का अक्सरियत के लोगों से भरोसा उठ गया और देश के सम्प्रदायिक ताने-बाने को अपूरणीय क्षति हुई। भरोसे के नुकसान की इसी कड़ी में आगे 2002 में गोधरा और 2013 में मुजफ्फरनगर के दंगे हुए। 2014 के बाद ऐसी दिल तोड़ने वाली घटनाएँ छिटपुट होती रही हैं। कभी बीफ तो कभी लव जेहाद के नाम पर मुसलमानों को निशाना बनाया जाता है।

मगर इन सबका जिक्र करते हुए हम भूल जाते हैं कि 19 जनवरी 1990 की तारीख बाबरी विध्वंश से कोई पौने तीन साल पहले, गोधरा से बारह वर्ष पूर्व, मुजफ्फरनगर से 23 साल पहले और आज के इन्टॉलरेंस के समय से तीन दशक पहले था। ऐसे में इस कड़ी की पहली घटना में उत्पीड़ित कौम वह नहीं है जो बाद के घटनाओं में है। मतलब पहले प्रहार किन पर हुआ ये कहने की जरूरत नहीं। भारतीय इतिहास के ये सबसे ज़्यादा उत्पीड़ित लोग उसी पण्डित नेहरू के जात-भाई थे जिनके भरोसे उनकी दोषी कौम इस देश में आराम से रुक सकी थी।

मेरी बातों में आपको शायद सम्प्रदायिकता की बू आए मगर सच यहीं है। इस कड़वे सच को हम चखना नहीं चाहते। स्वीकार करना नहीं चाहते कि आज जिस असहिष्णुता के बारे में बात हो रही है उसका पहले-पहल शिकार कौन हुआ था ? इस देश में अल्पसंख्यक कौन है, कहां है और उन्हें किस तरह की सोच से खतरा है, हमारी इन तमाम सोच-समझों को ये खास तारीख सर के बल खड़ा कर देती है।  

अब बेंजामिन नेतन्याहू पर लौटते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि एक पुराने समय में अपनी वैश्विक दृष्टि के साथ यहूदी कौम अपनी जन्मधरती से दूर पूरी दुनिया में फैल गई। फिर आया द्वितीय विश्वयुद्ध का दौर और तेज-तर्रार बुद्धिमान लोग एक झटके में गद्दार करार दे दिए गए। केवल जर्मनी ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में इनका भारी दमन हुआ। कहते हैं कि पीड़ा आपस में जोड़ती है। पूरी ग्लोब पर फैली ये उत्पीड़ित कौम इजरायल के नाम से अपना दर्द बाँटने पुनः एकजुट हुई। कम जमीन और ज़्यादा लोग, ऊपर से संसाधनों की किल्लत।

फिर भी इन्होंने खुद को विश्व के एक प्रमुख देश की हैसियत में ला खड़ा किया। दूसरी ओर भारत भर में फैल चुकी और दर दर की ठोकरें खा रही भारत की सबसे उत्पीड़ित कौम अपने लिए वहीं घर चाह रही है जहाँ जाकर रह सके और एक-दूसरे का सुख-दुख साझा कर सके। मगर कश्मीरी पण्डितों की किस्मत यहूदियों की तरह नहीं रही है। पिछले सालों में जब केंद्र और कश्मीर में एक साथ कमल खिला तब ऐसी आशा थी। इनकी घर वापसी की कोशिश भी हुई मगर घाटी की असहिष्णुता ने दिल्ली के अजातशत्रु नेता को घुटने पर खड़ा कर दिया। एक खास धर्म के प्रति झुकाव रखने वाली पार्टी की सरकार पर यह एक बड़ा प्रश्नचिन्ह भी है। तब से अब तक झेलम में बहुत पानी बह चुका। भगाए हुए लोगों की एक पूरी पीढ़ी जवान हो चुकी है जिसने बर्फ़, लबादे, अंगीठी और शिकारे नहीं देखे। उनके लिए उनके माँ-बाप के सपनों का कश्मीर बहुत प्यारा नहीं होगा। या प्यारा होगा भी तो उनके लिए कश्मीर का मतलब वो नहीं होगा जिसे वो अपने माँ-बाप की तरह हर हाल में पाना चाहते हों।

हाल ही में अशोक पाण्डेय की एक किताब आई है। नाम है - 'कश्मीरनामा'। किताब के अनुसार कश्मीरी पंडितों के घाटी छोड़ने के पीछे उनकी खुद की मंशा ज्यादा जिम्मेदार थी बजाए अलगाववादी ताक़तों और इस्लामिक राज्य के एक खास एजेंडे के। सुनने में आया कि हाल में निकले दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में किताब खूब बिकी भी है। सोशल मीडिया की सूचनाओं के बहुतायत वाले दौर में जब लोग जानना चाहते हैं, समझना नहीं, आशा है कि अब कुछ लोग किताब के हिसाब से 19 जनवरी और कश्मीर की अल्पसंख्यक बिरादरी को नए ढंग से समझेंगे। उस नए ढंग में सहानुभूति तो नहीं होगी। यहीं ठीक भी है। कम से कम कश्मीर और केंद्र में सत्ता की कॉमन पार्टी के लिए। साफ-साफ जिम्मेदारी से बच निकलने के लिए। बाकी हाथ मिलाने के लिए अपने बेंजामिन नेतन्याहू तो हैं हीं...

Web Title: Story of The day when kashmiri Pandits faced exodus

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