ब्लॉग: महाराष्ट्र में चिन्ह और नाम से बढ़ता राजनीतिक वैमनस्य, दोनों गुटों को देना चाहिए परिपक्वता का परिचय
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: February 20, 2023 01:39 PM2023-02-20T13:39:37+5:302023-02-20T13:40:44+5:30
चुनाव आयोग के एक फैसले में बीते शुक्रवार को महाराष्ट्र की दो शिवसेनाओं में से ‘बालासाहेबांची शिवसेना’ को चुनाव चिन्ह ‘धनुष-बाण’ और नाम ‘शिवसेना’ मिल गया. पिछले कई माह से अदालत के अंदर और बाहर चुनाव आयोग में चल रही खींचतान के बीच यह निर्णय सामने आया. हालांकि दूसरी ‘शिवसेना उद्धव बालासाहेब ठाकरे’ ने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए निर्णय को स्वीकार करने से मना कर दिया है.
इस पूरे द्वंद्व में मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने जीत दर्ज की है और अपनी बगावत को सही साबित किया है. किंतु इसे शिवसेना के दोनों गुट सीधे पचा नहीं पा रहे हैं. यही वजह है कि दोनों गुट आमने-सामने आ रहे हैं. पुलिस को बीच-बचाव करना पड़ रहा है. वास्तविकता के धरातल पर सच्चाई चुनाव आयोग का फैसला और भविष्य के लिए उच्चतम न्यायालय के फैसले के इंतजार से अधिक कुछ नहीं है, जिसको दोनों गुटों को समझना होगा.
संस्थाएं या अदालतें कानून-कायदों से चलती हैं. यदि उनका फैसला स्वीकार नहीं होता है तो चुनौती देने के रास्ते खुले रहते हैं. यदि राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे यह मानते हैं कि मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के गुट ने उनका नाम और चुनाव चिन्ह चुरा लिया है तो चोरी से निपटने का कानूनी प्रावधान उपलब्ध है. इसे भावनात्मक भाषणों और कार्यकर्ताओं को उकसा कर वापस नहीं लिया जा सकता है. इससे राजनीतिक वैमनस्य अधिक बढ़ सकता है, जो समाज हित में नहीं होगा.
यदि यह माना जाता है कि लोग ठाकरे गुट के साथ हैं, तो इसके परिणाम चुनावों में अवश्य दिख सकते हैं. किंतु चुनाव तक इंतजार न कर चुनाव आयोग को कोसना सही नहीं है. किसी संस्थान पर सार्वजनिक रूप से अविश्वास जाहिर करना, वह भी तब जब उसका निर्णय मन के खिलाफ हो, उचित नहीं है. इसे केवल ‘खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे’ वाली कहावत से जोड़ कर देखा जा सकता है.
स्पष्ट है कि शिवसेना प्रमुख बालासाहब ठाकरे ने कठिन परिश्रम और विचारधारा के दम पर एक संगठन तैयार किया था. करीब पचास साल के इतिहास में संगठन को अनेक विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, मगर हर बार वह अपनी पुरानी स्थिति में आया. यदि वर्तमान परिदृश्य भी उसी तरह का है तो किसी बात का भय नहीं होना चाहिए और डर नहीं लगने का शोर भी नहीं मचाना चाहिए, क्योंकि वह भी छिपी चिंताओं को दर्शाता है.
इसलिए चुनाव आयोग का फैसला खुले मन से स्वीकार कर राजनीति के स्तर को बनाए रखने की कोशिश की जानी चाहिए, जो लोकतांत्रिक जरूरत भी है. निचले स्तर पर टीका-टिप्पणी और आमना-सामना राजनीतिक दलों को गलत दिशा की ओर मोड़ रहा है. आशा की जानी चाहिए कि शिवसेना के दोनों ही गुट परिपक्वता का परिचय देकर अशांति और वैमनस्य के रास्ते पर नहीं चलेंगे और सुसंस्कृत महाराष्ट्र की छवि को धूमिल नहीं होने देंगे.