शरद जोशी का ब्लॉग: टेलीफोन पर निर्भर होता जीवन

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: December 1, 2018 05:33 AM2018-12-01T05:33:54+5:302018-12-01T05:33:54+5:30

टेलीफोन के विषय में पहले खबरें पढ़ी थीं कि टेलीफोन से विवाह हो चुके हैं- यों प्यार तो होता रहता ही है. क्योंकि फोन पर तकरार, इसरार, सत्कार, उपहार, दिलदार, विस्तार, इनकार, स्वीकार, उस पार, इस पार की बातें होती हैं, प्यार व पारावार की बातें होती हैं. ऐसा माचवे जी का कथन है.

Sharad Joshi's blog: Life depends on telephone | शरद जोशी का ब्लॉग: टेलीफोन पर निर्भर होता जीवन

शरद जोशी का ब्लॉग: टेलीफोन पर निर्भर होता जीवन

इन पंक्तियों के सम्माननीय लेखक ने कभी उष:काल के दर्शन नहीं किए. मेरे एक प्रोफेसर ने अवश्य बताया था कि विदेशी लेखकों ने अपनी पुस्तकों में कहा है कि भारत के ऋषियों ने वेद में लिखा है कि उषा की शोभा जो इधर दिनभर नहीं नजर आती, और बड़ी सुंदर होती है. 

उसकी वजह यही है कि ‘चुभते ही तेरा अरुण बान’ मुझमें कोई फर्क नहीं आता, मैं सोया रहता हूं. प्राचीन काल में मुर्गा अलार्म का बड़ा चलन था पर अब तो रोलर घड़ी भी नींद नहीं खोल सकती.पर बम्बई और दिल्ली में इसकी व्यवस्था हो चुकी है. आज देहली में जीरो या बम्बई में 999 पर रिंग कीजिए और टेलीफोन ऑफिस आपको सुबह उठाने की व्यवस्था कर देगा. सभ्यता मुर्गे से चली और टेलीफोन पर आकर रुकी है.

प्रभाकर माचवे तो कहता है-‘लटका शीश, अटका तार, क्यों हो मौन, टेलीफोन?’ क्योंकि टेलीफोन पर साहित्य लिखने से संदेश काव्य की परंपरा आगे बढ़ती है.

टेलीफोन के विषय में पहले खबरें पढ़ी थीं कि टेलीफोन से विवाह हो चुके हैं- यों प्यार तो होता रहता ही है. क्योंकि फोन पर तकरार, इसरार, सत्कार, उपहार, दिलदार, विस्तार, इनकार, स्वीकार, उस पार, इस पार की बातें होती हैं, प्यार व पारावार की बातें होती हैं. ऐसा माचवे जी का कथन है.

पर अब धर्म की बातें भी होने लगी हैं. अमेरिका में पादरियों ने टेलीफोन द्वारा प्रत्येक वक्ता को धार्मिक सलाह देने की योजना बनाई है. आज उसके सदस्य बनकर जब चाहें तब फोन कर धर्मगुरुओं का मत आपकी समस्या पर जान सकते हैं.

यों पहले से ‘इन्सोम्निया’ के मरीजों की सेवा फोन करता ही था. रात को फोन कानों में लगा मरीज सुनते-सुनते गहरी नींद में सो जाते हैं.

किसी विज्ञानवेत्ता के हृदय में एक धुन आई. वह धुन बाद को यंत्र बन गई. उस यंत्र की बजी घंटियों से अब सुबह देहली और बम्बई उठेंगे यानी जिनके घर टेलीफोन है, वे उठेंगे. इसका खर्च दो कॉल के बराबर होगा.

अब प्रभातियों का युग गया. घंटी के स्वर सुनाई नहीं देते. मां स्वयं बीमार रहती है और पत्नी सोई रहती है. अत: अब सब कुछ यंत्र की घंटी पर निर्भर हो गया है जो सुबह तुम्हें उठावे. अब टेलीफोनी पीड़ा, और टेलीफोनी प्रतिज्ञा की भी वेदना सहन करनी पड़ती है. आप ट्रंक किए बैठे हैं और नाम नहीं आता. कहा- जी, अभी ‘एंगेज’ है. और जब आपका कॉल आता है तो आप प्रसन्न हो जाते हैं. तुम हो नेक. करते वाणी का सदा अभिषेक.

पर यह तो कुछ लोगों की बातें हैं. अधिकांश पर स्वर का अभिषेक मिल का भोंपू ही करता है.  

Web Title: Sharad Joshi's blog: Life depends on telephone

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