लाइव न्यूज़ :

शरद जोशी का ब्लॉग: साहित्य से गायब होते पक्षी

By शरद जोशी | Updated: November 2, 2019 06:00 IST

अब वह जमाना गया! कहानियां सुनाने का काम ‘तोता-मैना’ के हाथ से छीन लिया गया. अब सब कम हो गया, और कहीं-कहीं बांसों का झुरमुट, टी.वी. टी..टुट-टुट सरीखी चीज ही रह गई है. युद्ध-विरोधी आंदोलन चला.

Open in App

कभी-कभी पिछला साहित्य पढ़ते हैं तो लगता है, जैसे चिड़ियाघर में बैठे हों. एकाएक कई पंछी एक साथ चहचहा जाने से हल्ला तो जरूर होता है पर मन में स्फूर्ति-सी लगती है.

आजकल के साहित्य में पंख झड़ते जा रहे हैं. वे पुराने मीठे बोल कभी दूर के एकाध अकेले पेड़ से सुनाई देकर ठिठके रह जाते हैं. यों भी आज के आदमी को पक्षियों के आने-जाने का पता नहीं लगता.  

पिछले वक्त में पक्षी और साहित्य का संबंध यह था कि ‘तू डाल-डाल, मैं पात-पात’. आदमी और पंछी तब साथ-साथ थे. सुमन के शब्दों में, ‘चाहा चहचहाता था-अंधेरी रात में कोई खड़ा खेतों की मेड़ों पर विकल विरहा सुनाता था’; पर अब तो ‘सुमन’ कहते हैं, ‘पपीहा है प्यासा कि दिल का उदासा’. अभी थोड़े दिन पूर्व एक पुरानी रचना पढ़ी थी तो एक जगह यह पढ़ने में आया : ‘मारे खुशी के सब इकट्ठे हुए. कबूतर नगाड़े बजाने लगे. कोयलें नफीरी का स्वर भरने लगीं. गौरैयों ने मजीरे का काम किया. पिढ़कियों ने तबले पर थाप दी. मोर नाचने लगे. चकोरों ने रोशनी का सामान किया.’

अब वह जमाना गया! कहानियां सुनाने का काम ‘तोता-मैना’ के हाथ से छीन लिया गया. अब सब कम हो गया, और कहीं-कहीं बांसों का झुरमुट, टी.वी. टी..टुट-टुट सरीखी चीज ही रह गई है. युद्ध-विरोधी आंदोलन चला. पिकासो ने एक कबूतर बनाया. मैंने सोचा कि अब जरूर ही यह साहित्य में फड़फड़ाएगा. थोड़ी-सी कबूतरी कविताएं बनी थीं पर यह ‘गुटरगूं’ जाने क्यों और आगे बढ़ न सकी!

यानी युद्ध-विरोधी रचनाएं तो काफी लिखी गईं पर कबूतर छतरी पर नहीं आया. अब साहित्य में चिड़ियाघरी प्रवृत्ति का जगना आवश्यक है. ध्वनि के प्रयोग की बात की जाती है मगर चिड़िया उड़ जाने पर ध्वनियां कहां रहेंगी? कवि लोग कहते हैं कि अब कविताओं में ज्यादा पक्षी जंचते नहीं. लोगों की आदतें बदल रही हैं. बेटे अब लड़ाई में नहीं जाते. फिर क्यों बेकार में हंसों और कबूतरों से अपना संदेश भेजें?

पर दोस्तो, जरा प्रयोग करो, सतभैयों और पड़कुलियों की ध्वनि जाकर सुनो. जंगल में जाने में डर लगता हो तो किसी पास के चिड़ियाघर में चले जाओ.आज की कविता में गति लाओ, जिंदगी लाओ, मेरे दोस्त, नहीं तो साहित्य में वह मोहन राकेश की मुर्गेवाली कहानी के शीर्षक की तरह ‘पंखयुक्त ट्रेजेडी’ होकर रह जाएगी.बस, पीहू-पीहू!   (रचनाकाल - 1950 का दशक)

टॅग्स :कला एवं संस्कृति
Open in App

संबंधित खबरें

विश्वलूव्र, मोनालिसा की चोरी और कला की वापसी के रूपक

भारतJammu-Kashmir: कश्मीर में अब तक का सबसे लंबा हस्तलिखित हदीस

विश्वकला में बैंक्सी का लोक सरोकार और कैटेलान का केला

भारतनाट्यशास्त्र के बहाने कलाओं की अंतर्दृष्टि की वैश्विक स्वीकार्यता

बॉलीवुड चुस्कीब्लॉग: स्मरण एक विलक्षण संगीत सम्राट का 

भारत अधिक खबरें

भारतकथावाचक इंद्रेश उपाध्याय और शिप्रा जयपुर में बने जीवनसाथी, देखें वीडियो

भारत2024 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव, 2025 तक नेता प्रतिपक्ष नियुक्त नहीं?, उद्धव ठाकरे ने कहा-प्रचंड बहुमत होने के बावजूद क्यों डर रही है सरकार?

भारतजीवन रक्षक प्रणाली पर ‘इंडिया’ गठबंधन?, उमर अब्दुल्ला बोले-‘आईसीयू’ में जाने का खतरा, भाजपा की 24 घंटे चलने वाली चुनावी मशीन से मुकाबला करने में फेल

भारतजमीनी कार्यकर्ताओं को सम्मानित, सीएम नीतीश कुमार ने सदस्यता अभियान की शुरुआत की

भारतसिरसा जिलाः गांवों और शहरों में पर्याप्त एवं सुरक्षित पेयजल, जानिए खासियत