शरद जोशी की रचना: कर्फ्यू का खौफ और खाकी साम्राज्य

By शरद जोशी | Published: June 15, 2019 03:57 PM2019-06-15T15:57:29+5:302019-06-15T16:18:23+5:30

दिवंगत लेखक शरद जोशी की हर हफ्ते छपने वाली रचनाओं की शृंखला में इस हफ्ते पढ़ें, 'कर्फ्यू का खौफ और खाकी साम्राज्य'

Sharad Joshi Column: Curfew ka khauf aur Khaki Samrajya | शरद जोशी की रचना: कर्फ्यू का खौफ और खाकी साम्राज्य

शरद जोशी की रचना: कर्फ्यू का खौफ और खाकी साम्राज्य

जब शहर में हलचल रहती है, मोटर और तांगों का सिलसिला बना रहता है, तब शहर की आत्मा में हलचल नहीं होती. और जब शहर में कर्फ्यू हो, सड़क पर खाकी साम्राज्य हो; तब आत्मा की हलचल रहती है. आंखें सूनी सड़कों पर घूमती हैं. खिड़कियों से गर्दन जरा से खटके से निकल आती है. जिज्ञासा! सारा शहर जिज्ञासु रिपोर्टर की तरह कान-आंखें खोले खड़ा रहता है, फिर चाहे खबर गलत मिल जाए.

सन्नाती हुई पुलिस की मोटरें, जमीन पर व पीठ पर बजते डंडे, घुड़की और माफी की आवाजों में शहर बोलता है. अंदर ही अंदर केवल टेलीफोन के तार मिलते-जुलते रहते हैं. उस वक्त पुलिस अपनी रौबदार डय़ूटी अदा करती है. शरीफों को गुंडा समझती है और बीच सड़क पर उनकी इज्जत कफ्यरू के हाथ बिक जाती है. शहर आंदोलन के बिना जी सकता है, पर दूध के बिना नहीं, और दूधवालों के पैर कांपते हैं. घर के बाहर आना मना है. ‘चलो, अंदर जाओ.’ - मगर गली के कोने में बने नल पर पानी भरे बिना कैसे चलेगा?

मगर नल पर जाएं कैसे? अपना नल; अपनी गली, अपना चबूतरा, अपना मंदिर अब पराया हो गया. इस कारण अब शहर की एक सड़क को केवल क्रॉस कर लेना ही सबसे बड़ा साहस है, ‘एडवेंचर’ है. तो जब कोई बच्च बीच सड़क पर आकर भंवरा चला देता है, तो बाप का मन कांपता है और मां मुस्करा देती है. मनुष्य मुर्गा नहीं है जिसे दड़बे में रहने में संतोष महसूस हो. वह चलनेवाला जीव है. सारा शहर कैद है. सब गिरफ्तार हैं. ये सब मकान एक बड़े जेलखाने की कोठरियां हैं. बाहर सिपाही घूम रहे हैं. प्रलय में जैसे पुण्यात्माओं को नाव मिलती है, वैसे ही किसी-किसी को पास मिलता है. पास इसलिए कि आदमी सड़क पर जाकर फेल नहीं हो जाए. बिना पास परिक्रमा नहीं कर सकते.

क्योंकि कर्फ्यू है. धरती पर कर्फ्यू है. आसमान पर कर्फ्यू है. आदमी पर कर्फ्यू और पानी की बूंदों पर कर्फ्यू है. कोई बोल नहीं सकता है. कोई गरज नहीं सकता. किसे पता कि यह वक्त बढ़ता जाएगा, ये सड़कें अजनबी बनी रहेंगी- ‘उफ, यह बेदर्द स्याही, यह हवा की चीखें, किसको मालूम है इस शब की सहर हो कि न हो!’ जाने कब वापस नन्हें पैर स्कूल के रास्ते पर जाएंगे? जाने कब तोपखाने की शान आबाद होगी?  

सिटी बसें चलने के इंतजार में रुकी हैं, एक्ट्रेसें परदे पर आने को बेचैन हैं, मगर बंदूक की गोलियों और कर्फ्यू की खामोशियों में सबके अरमान डब्बों में बंद हैं. अब मालूम पड़ रहा है कि जिंदगी क्या होती है! एक छोटी-सी चीज कैसे फुग्गारे-सी फूलती है! एक फुग्गारे पर कैसे डंडा पड़ता है! एक डंडे पर कैसे माचिस जलाई जाती है! एक माचिस कैसे हमारी मनुष्यता राख करती है!

Web Title: Sharad Joshi Column: Curfew ka khauf aur Khaki Samrajya

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