ब्लॉग: नदी ही नहीं, इंसान की भी जान ले रहा रेत खनन

By पंकज चतुर्वेदी | Published: June 4, 2022 09:44 AM2022-06-04T09:44:02+5:302022-06-04T09:46:41+5:30

पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने भी चेतावनी जारी कर कहा था कि यदि रेत का खनन नियंत्रित नहीं किया गया तो इसका संकट पैदा हो जाएगा. रेत बनने में सैकड़ों साल लगते हैं, लेकिन इससे भी ज्यादा तेजी से इसका भंडार खाली हो रहा है.

sand mining rivers environment human lifes | ब्लॉग: नदी ही नहीं, इंसान की भी जान ले रहा रेत खनन

ब्लॉग: नदी ही नहीं, इंसान की भी जान ले रहा रेत खनन

Highlightsबीते सवा सालों के दौरान नदियों से रेत निकालने को लेकर हमारे देश में कम से कम 418 लोग मारे गए।नदी एक जीवित संरचना है और रेत उसके श्वसन तंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा. रेत पर्यावरण का अहम हिस्सा है. यह कई प्रजातियों के लिए आवास के रूप में कार्य करती है.

बीते सवा सालों के दौरान नदियों से रेत निकालने को लेकर हमारे देश में कम से कम 418 लोग मारे गए और 438 घायल हुए. गैर-सरकारी संस्था साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल (एसएएनडीआरपी) द्वारा दिसंबर 2020 से मार्च 2022 तक, 16 महीने में रेत खनन की वजह से होने वाली दुर्घटनाओं और हिंसा के मामलों की मीडिया रिपोर्टिंग के आधार पर किए गए अध्ययन के मुताबिक इनमें 49 मौत खनन के लिए नदियों में खोदे गए कुंड में डूबने से हुई हैं. 

ये आंकड़े बताते हैं कि खनन के दौरान खदान ढहने और अन्य दुर्घटनाओं में कुल 95 मौत हुई और 21 लोग घायल हुए. खनन से जुड़े सड़क हादसों में 294 लोगों की जान गई और 221 घायल हुए हैं. खनन से जुड़ी हिंसा में 12 लोगों को जान गंवानी पड़ी और 53 घायल हुए हैं. 

अवैध खनन के खिलाफ आवाज उठाने वाले कार्यकर्ताओं-पत्रकारों पर हमले में घायल होने वालों का आंकड़ा 10 है जबकि सरकारी अधिकारियों पर खनन माफिया के हमले में दो मौत और 126 अधिकारी घायल हुए हैं. खनन से जुड़े आपसी झगड़े या गैंगवार में सात मौत और इतने ही घायल हुए हैं.

नदी एक जीवित संरचना है और रेत उसके श्वसन तंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा. भीषण गर्मी में सूख गए नदी के आंचल को जिस निर्ममता से उधेड़ा जा रहा है, वह इस बार के विश्व पर्यावरण दिवस के नारे-‘केवल एक धरती’ और ‘प्रकृति के साथ सामंजस्य से टिकाऊ जीवन’ के बिलकुल विपरीत है. मानव जीवन के लिए जल से ज्यादा जरूरी जल-धाराएं हैं. 

नदी महज पानी के परिवहन का मार्ग नहीं होती, वह धरती के तापमान के संतुलन, जल-तंत्र के अन्य अंग जैसे जलीय जीव व पौधों के लिए आसरा होती है. नदी के तट मानवीय संस्कृति के विकास के साक्षी व सहयोगी रहे हैं और ये तट नदियों द्वारा बहा कर लाई गई रेत के धोरों के आधार पर ही बसे हैं.

पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने भी चेतावनी जारी कर कहा था कि यदि रेत का खनन नियंत्रित नहीं किया गया तो इसका संकट पैदा हो जाएगा. रेत बनने में सैकड़ों साल लगते हैं, लेकिन इससे भी ज्यादा तेजी से इसका भंडार खाली हो रहा है. कहा गया कि अनियंत्रित रेत खनन नदियों और समुद्र तटों को नुकसान पहुंचा रहा है तथा छोटे द्वीपों को खत्म कर रहा है. 

रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में कांच, कांक्रीट और अन्य निर्माण सामग्री की खपत पिछले दो दशक में तीन गुना बढ़कर हर साल 50 अरब टन हो गई है. यानी प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 17 किलोग्राम रेत खर्च हो रही है. खपत बढ़ने के कारण नदी के किनारों और समुद्र तटों पर रेत खनन बढ़ता जा रहा है. इससे गंभीर पर्यावरण संकट पैदा हो गया है.

 रेत पर्यावरण का अहम हिस्सा है. यह कई प्रजातियों के लिए आवास के रूप में कार्य करती है. तूफानी लहरों और क्षरण से बचाती है. रिपोर्ट में कहा गया कि रेत का अनियंत्रित इस्तेमाल पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील इलाकों के लिए खतरा पैदा करेगा और जैव विविधता पर दबाव डालेगा. समुद्री तटों के खनन पर प्रतिबंध की जरूरत है.

समुद्र ही नहीं धरती के अस्तित्व के लिए छोटी व मध्यम नदियां भी जरूरी हैं और रेत के कारण उन पर संकट अब इतना गंभीर हो गया है कि सदानीरा कहलाने वाली जल-धाराओं में अब साल में बीस दिन पानी नहीं रहता. उधर रेत के बगैर सरकार के विकास, जीडीपी, उत्पादन आदि को पंख लग नहीं सकते. 

विकास के मायने अधिक पक्का निर्माण, ऊंची अट्टालिकाएं और सीमेंट से बनी चिकनी सड़कें हो चुकी हैं और इन सभी के लिए बालू या रेत चाहिए जो कि जीवनदायिनी नदियों और उसके किनारे रहने वाली आबादी के लिए मौत का पैगाम साबित हो रहा है. 

नदियों का उथला होना और थोड़ी सी बरसात में उफन जाना, तटों के कटाव के कारण बाढ़ आना, नदियों में जीव-जंतु कम होने के कारण पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम होने से पानी में बदबू आना; 

ऐसे ही कई कारण हैं जो मनमाने रेत उत्खनन से जल निधियों के अस्तित्व पर संकट की तरह मंडरा रहे हैं. यमुना-गंगा जैसी नदियों से रेत निकालने के लिए बड़ी-बड़ी मशीनें नदी में उतारी गईं और वहां से निकली रेत को ट्रकों में लादा गया - इसके लिए नदी के मार्ग को बांध कर अस्थायी रास्ते व पुल बना दिए गए. हालात यह हैं कि कई नदियों में न तो जल प्रवाह बच रहा है और न ही रेत.

आज यह समझना जरूरी है कि रेत उगाहना अपने आप में ऐसी पर्यावरणीय त्रासदी का जनक है जिसकी क्षति-पूर्ति संभव नहीं है. देश में वैसे तो रेत की कोई कमी नहीं है - विशाल समुद्रीय तट है और कई हजार किलोमीटर में फैला रेगिस्तान भी, लेकिन समुद्रीय रेत लवणीय होती है जबकि रेगिस्तान की बालू बेहद गोल व चिकनी, जिससे इनका इस्तेमाल निर्माण में होता नहीं. 

प्रवाहित नदियों की भीतरी सतह में रेत की मौजूदगी असल में उसके प्रवाह को नियंत्रित करने का अवरेाधक, जल को शुद्ध रखने का छन्ना और नदी में कीचड़ रोकने की दीवार भी होती है. तटों तक रेत का विस्तार नदी के सांस लेने का अंग होता है. 

नदी केवल एक बहता जल का माध्यम नहीं होती, उसका अपना पारिस्थितिकी तंत्र होता है जिसके तहत उसमें पलने वाले जीव, उसके तट के सूक्ष्म बैक्टीरिया सहित कई तत्व शामिल होते हैं और उनके बीच सामंजस्य का कार्य रेत का होता है. नदियों की कोख अवैध और अवैज्ञानिक तरीके से खोदने के चलते यह पूरा तंत्र अस्त-व्यस्त हो रहा है.

कानून तो कहता है कि न तो नदी को तीन मीटर से ज्यादा गहरा खोदो और न ही उसके जल के प्रवाह को अवरुद्ध करो, लेकिन लालच के लिए कोई भी इनकी परवाह करता नहीं. आज जरूरत इस बात की है कि पूरे देश में जिला स्तर पर व्यापक अध्ययन किया जाए कि प्रत्येक छोटी-बड़ी नदी में सालाना रेत आगम की क्षमता कितनी है और इसमें से कितनी को बगैर किसी नुकसान के उत्खनित किया जा सकता है.

Web Title: sand mining rivers environment human lifes

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