Sanatan Dharma: सनातन के मुद्दे पर कमजोर पड़ता विपक्ष, जगदानंद सिंह और स्वामी प्रसाद मौर्य इस तरह की भाषा का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं?
By अभय कुमार दुबे | Published: September 12, 2023 11:55 AM2023-09-12T11:55:57+5:302023-09-12T11:57:23+5:30
Sanatan Dharma: सनातन नाम की विस्फोटक सुरंग विपक्षी राजनीति की जमीन में तमिलनाडु की स्थानीय राजनीति के कारण प्लांट हुई. सनातन धर्म और ब्राह्मणों के विरोध की राजनीतिक परंपरा तमिलनाडु में बहुत पुरानी है.
Sanatan Dharma: सनातन धर्म से संबंधित राजनीतिक विवाद में इस समय भाजपा मजे ले रही है और विपक्ष चक्कर में फंसा हुआ है. इस मौके का ज्यादा से ज्यादा दोहन भाजपा के पक्ष में जा सकता है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि खुद प्रधानमंत्री ने अपने मंत्रियों से कहा है कि उन्हें सनातन धर्म के प्रश्न पर कड़ी प्रतिक्रिया देनी चाहिए.
प्रधानमंत्री ने ऐसा क्यों कहा, और विपक्षी गठबंधन सनातन के चक्कर में क्यों फंसा- इस सवाल का उत्तर खोजने की जरूरत है. सनातन नाम की विस्फोटक सुरंग विपक्षी राजनीति की जमीन में तमिलनाडु की स्थानीय राजनीति के कारण प्लांट हुई. सनातन धर्म और ब्राह्मणों के विरोध की राजनीतिक परंपरा तमिलनाडु में बहुत पुरानी है. इसकी शुरुआत रामस्वामी नायकर पेरियार ने डाली थी.
वे स्वयं को पश्चिमी शैली में नास्तिक, बुद्धिवादी, धर्मविरोधी बता कर प्रगतिशील और रैडिकल विचारों की दावेदारी करते थे. चूंकि तमिलनाडु में मुट्ठी भर ब्राह्मण सभी फायदे की जगहों पर बैठे हुए थे और सत्ता पर भी उन्हीं का कब्जा रहता था, इसलिए जल्दी ही पेरियार की इस लाइन के इर्दगिर्द गैर-ब्राह्मण शक्तिशाली जातियों का जमावड़ा बनता चला गया.
इस राजनीतिक लाइन की खास बात यह थी कि इसमें दावा कमजोर जातियों के हित का किया जाता था, पर इस राजनीति पर पकड़ मजबूत जातियों की ही थी. पहले जस्टिस पार्टी और फिर द्रविड़ कषगम के जरिये इस मुहिम ने कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेंका.
चूंकि हम उत्तर भारतीय तमिल नहीं जानते, इसलिए हम पेरियार और उनके अनुयायियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली बेहद आक्रामक भाषा से परिचित नहीं हैं. सवाल यह है कि स्टालिन के पुत्र को पेरियार की भाषा इस्तेमाल करने की जरूरत क्यों पड़ी? आज की द्रविड़ राजनीति तो काफी बदल चुकी है. आज तो द्रविड़ पार्टियां बूढ़ों को तीर्थाटन कराने का वायदा करती हैं.
पूरे तमिलनाडु में पौराणिक हिंदू धर्म की पूजा-अर्चना और कर्मकांडीय स्वरूप की उत्तर भारत से भी ज्यादा धूम है. द्रविड़ राजनीति का एक प्रमुख हिस्सा अन्ना द्रमुक की नेता जयललिता भी मंदिर वगैरह जाती थीं. वे अपनी ब्राह्मण जातिगत पहचान को भी नहीं छिपाती थीं. उन्होंने उत्तर भारत की बनिया-ब्राह्मण पार्टी भाजपा से भी जब-तब गठजोड़ करने से भी परहेज नहीं किया.
दरअसल, होता यह है कि द्रमुक के नेताओं को जैसे ही किसी राजनीतिक संकट का आभास होता है, वे तुरंत पेरियार की भाषा का इस्तेमाल करने लगते हैं, और उत्तर भारत के साम्राज्यवाद का प्रश्न भी उठा दिया जाता है. सनातन धर्म को इस साम्राज्यवाद का प्रतिनिधि बताया जाता है. इस समय भाजपा तमिलनाडु में जम कर राजनीतिक हस्तक्षेप कर रही है.
उसने एक तमिल अफसर के. अन्नामलाई को अध्यक्ष बनाया है, और उनके जरिये प्रदेश में एक यात्रा निकाली जा रही है जिसमें उत्तर भारत और भाजपा के खिलाफ किए जाने वाले प्रचार का खंडन किया जा रहा है. दूसरी तरफ स्टालिन सरकार बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के आरोपों का भी सामना कर रही है. इस स्थिति में जरूरी है कि द्रविड़ नेता पुरानी राजनीतिक फिकरेबाजी का इस्तेमाल करें.
लेकिन उत्तर भारत के जगदानंद सिंह और स्वामी प्रसाद मौर्य इस तरह की भाषा का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं? इसका कारण है सामाजिक न्याय की राजनीति में होने वाली फिकरेबाजी का पुराना अभ्यास. यह लफ्फाजी उस समय चल जाती थी, जब मुकाबले में कांग्रेस होती थी और भाजपा का प्रभावी ओबीसीकरण नहीं हुआ था.
आज वक्त पूरी तरह से बदल चुका है. भाजपा ने ऊंची जातियों, पिछड़ों और दलितों के एक अच्छे खासे हिस्से का गठजोड़ बना लिया है जो उत्तर भारत, मध्य भारत और पश्चिमी भारत में उसे सत्ता का सफल दावेदार बनाता है. इसलिए ब्राह्मणवाद विरोध की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले शक्तिशाली ओबीसी जातियों के नेताओं की साख पहले जैसी नहीं रह गई है.
दरअसल, ये लोग पुराने जमाने की राजनीति में जी रहे हैं. राजनीति की टाइम मशीन में ये लोग पीछे अटक कर रह गए हैं. भाजपा जानती है कि आज सनातन धर्म का वैसा विरोध करने का जमाना नहीं है जैसा कभी स्वामी दयानंद सरस्वती के समय में हुआ करता था. पश्चिमी उ.प्र., मध्य उ.प्र., हरियाणा और पंजाब के बहुत से हिंदू उनसे प्रभावित होकर आर्यसमाजी हो गए थे
आज वह धार्मिक विवाद किसी को याद भी नहीं है. आज की स्थिति में तो ज्यादातर आर्यसमाजी स्वयं को सनातन कहने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा चलाई जा रही हिंदू राष्ट्र की परियोजना के साथ खड़े हैं. द्रविड़ों की बातों के पक्ष में एक भी आर्यसमाजी नहीं आने वाला है.
विपक्षी गठजोड़ की समस्या यह है कि वह अभी इस तरह की राजनीति का मुकाबला करने की भाषा विकसित नहीं कर पाया है, और न ही अपना न्यूनतम साझा कार्यक्रम बना पाया है. मोर्चे में राजनीतिक अनुशासन भी बहुत ढीलाढाला है. इस खामी को उसे जल्दी ही दूर करना होगा.
इसके लिए उसे जल्दी ही साझा कार्यक्रम बनाना होगा ताकि ऐसे किसी भी विवाद पर वह कह सकें कि विपक्षी एकता के दायरे में यह विवाद आता ही नहीं. राजनीति के मैदान में अभी और भी कई सुरंगें आएंगी. उनसे सतर्क रहना होगा, वरना लोकसभा चुनाव आते-आते इसी तरह की समस्याओं के कारण विपक्षी मोर्चे की छवि खराब हो चुकी होगी.