रोहित कौशिक का ब्लॉगः पुस्तकें पढ़ने की संस्कृति विकसित करना जरूरी

By रोहित कौशिक | Published: August 12, 2022 01:51 PM2022-08-12T13:51:48+5:302022-08-12T13:52:46+5:30

1910 में बड़ौदा राज्य के शासक संभाजीराव गायकवाड़ ने पुस्तकालय आंदोलन की नींव डाली थी। यहीं पहली बार पुस्तकालय के विकास के बारे में सोचा गया। आंध्रप्रदेश में पूंजीपतियों ने अपने व्यक्तिगत पुस्तकालय स्थापति किए।

Rohit Kaushik blog It is necessary to develop a culture of reading books | रोहित कौशिक का ब्लॉगः पुस्तकें पढ़ने की संस्कृति विकसित करना जरूरी

रोहित कौशिक का ब्लॉगः पुस्तकें पढ़ने की संस्कृति विकसित करना जरूरी

पुस्तकें हमारी सबसे अच्छी मित्र हैं जो हमेशा हमें स्वच्छ और सुदृढ़ मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि पुस्तकें प्राप्त करने का सबसे सरल माध्यम पुस्तकालय ही हैं। पुस्तकालय पुस्तकों के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों में हमारी ज्ञानपिपासा को शांत तो करते ही हैं, साथ ही हमारे अंदर एक नए आत्मविश्वास का संचार भी करते हैं। हमारे देश में विद्यादान सभी दानों में श्रेष्ठ माना गया है। पुस्तकालय ही निःस्वार्थ भाव से विद्यादान करते हैं और तभी इन्हें ज्ञान मंदिर भी कहा जाता है। किसी भी देश की आर्थिक, औद्योगिक, वैज्ञानिक और शैक्षणिक संरचना में पुस्तकालयों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। 

विदेशों में जहां एक ओर पुस्तकालयों के रख-रखाव पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर हमारे देश में अधिकांश पुस्तकालय आर्थिक तंगी और कुप्रबंधन से जूझ रहे हैं। पुस्तकालयों के लिए बजट में अपेक्षित बढ़ोत्तरी नहीं हो पा रही है। यह विडंबना ही है कि आज तक जितनी भी सरकारें आईं, सभी ने पुस्तकालयों की स्थापना और रख-रखाव के प्रति उदासीनता ही दिखाई। इस मामले में जनता भी कम दोषी नहीं है। असल में हमारे देश में अभी तक पढ़ने की संस्कृति ही विकसित नहीं हो पाई है इसलिए अनेक स्थानों पर पुस्तकालयों का समुचित उपयोग भी नहीं हो पा रहा।

प्राचीन समय में ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार समाज के सीमित लोगों को ही था, अतः चुनिंदा लोग ही पुस्तकालयों का उपयोग कर सकते थे। उस समय पुस्तकालयों में हस्तलिखित ग्रंथों की सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था। उन्हें जंजीरों से बांधकर रखा जाता था। आज मुद्रण के क्षेत्र में हुई अभूतपूर्व क्रांति से पुस्तकों की पहुंच जन-साधारण तक हो गई है। अब पुस्तकालयों में भी पुस्तकें सुरक्षार्थ न मानकर अध्ययनार्थ मानी जाती हैं। प्रजातंत्र के आगमन के साथ ही आज सभी को ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार है लेकिन इस सबके बावजूद आज कुछ अपवादों को छोड़कर या तो पुस्तकालय पाठकों को अपनी समुचित सेवा प्रदान करने में असमर्थ हैं या फिर पाठकों में जागरूकता के अभाव से पुस्तकालयों का समुचित उपयोग नहीं हो पा रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद लगभग प्रत्येक क्षेत्र में एक बड़ी क्रांति हुई है। लेकिन आज जिस गति से प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति हुई है, उस गति से पुस्तकालय सेवा का विस्तार नहीं हो सका है।

1910 में बड़ौदा राज्य के शासक संभाजीराव गायकवाड़ ने पुस्तकालय आंदोलन की नींव डाली थी। यहीं पहली बार पुस्तकालय के विकास के बारे में सोचा गया। आंध्रप्रदेश में पूंजीपतियों ने अपने व्यक्तिगत पुस्तकालय स्थापति किए। भारत वर्ष में पुस्तकालयों के विकास की गति धीमी होने के अनेक कारण रहे हैं। शिक्षा विभाग की लापरवाही का अनुमान मात्र इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई राज्यों के बोर्ड के स्कूल-कॉलेजों में अलग से ‘पुस्तकालयाध्यक्ष’ का कोई पद ही नहीं है। किसी भी क्लर्क या अध्यापक को पुस्तकालय की जिम्मेदारी सौंप ‘पुस्तकालयाध्यक्ष’ बना दिया जाता है। ऐसे स्कूल-कॉलेजों में पुस्तकालय की सुविधा नाममात्र ही होती है। पुस्तकालय के नाम पर पुरानी और अनुपयोगी पुस्तकें अलमारी में रख दी जाती हैं। इस तरह से जहां एक ओर छात्र इन पुस्तकों का उपयोग ही नहीं कर पाते हैं वहीं दूसरी ओर ये तथाकथित ‘पुस्तकालयाध्यक्ष’ भी छात्रों को पुस्तकालय सेवा मुहैया कराने में उदासीन रहते हैं।

Web Title: Rohit Kaushik blog It is necessary to develop a culture of reading books

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