नदी-तालाबों को बचाने का लेना होगा संकल्प, अभिलाष खांडेकर का ब्लॉग

By अभिषेक कुमार सिंह | Published: February 2, 2024 06:35 PM2024-02-02T18:35:08+5:302024-02-02T18:35:41+5:30

समस्या की भयावहता को समझने के लिए यह एक आंकड़ा काफी है। वेटलैंड्स को बचाने के लिए तालाबों संबंधी नियमों (2017) में अधिक स्पष्टता और इनके सख्त कार्यान्वयन की आवश्यकता है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों व समाज को इनके संरक्षण का संकल्प लेना चाहिए

Resolve will have to be taken to save rivers and ponds | नदी-तालाबों को बचाने का लेना होगा संकल्प, अभिलाष खांडेकर का ब्लॉग

नदी-तालाबों को बचाने का लेना होगा संकल्प, अभिलाष खांडेकर का ब्लॉग

आज 2 फरवरी को जब दुनिया आर्द्रभूमि (वेटलैंड्स) दिवस मना रही है, यह समय है कि हम व्यक्तिगत रूप से और एक राष्ट्र के रूप में-प्राकृतिक संपदाओं-अपनी आर्द्रभूमियों की रक्षा के लिए दृढ़ संकल्प लें. यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो अपने पतन की कगार के बहुत नजदीक पहुंच जाएंगे। सच कहूं तो ऐसे दिनों का ‘जश्न’ मनाने की जरूरत नहीं है। आर्द्रभूमि (नदियां, झीलें, तालाब, पोखर, खारे पानी के दलदल, मैंग्रोव आदि) का संरक्षण स्वाभाविक रूप से होना चाहिए, क्योंकि यदि वे सब अतिक्रमण के कारण नष्ट हो जाते हैं या बुरी तरह से प्रदूषित हो जाते हैं तो मानव अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।

फिर भी, वैश्विक आधुनिक समाज, जिसका महत्वकांक्षी लक्ष्य सूर्य, चंद्रमा, मंगल और न जाने किन-किन पर विजय प्राप्त करना है, आर्द्रभूमियों के महत्व और उनके द्वारा पोषित बहुमूल्य पारिस्थितिकी तंत्र से अनभिज्ञ है। यह बेहद दुःखद है, किसी भी व्यक्ति को इसके महत्व की जानकारी प्राथमिकता से होनी चाहिए, चाहे वह शिक्षित हो या अशिक्षित। हालांकि अनुभव कहता है कि ग्रामीण पृष्ठभूमि के ‘अशिक्षित’ लोग आर्द्रभूमि के महत्व को संभवत: शहरी भारतीयों के शिक्षित वर्ग से अधिक बेहतर जानते-समझते हैं।

एक क्षण के लिए कल्पना करें कि हमारे क्षेत्र में पेयजल के लिए न तो कोई झील होती, न कोई साफ नदी और न ही कोई अच्छा तालाब, तब क्या होता? अगर पानी नहीं होता तो आज हमारा अस्तित्व ही नहीं होता, यह कड़वी वास्तविकता है। इसी से स्वच्छ प्राकृतिक जल स्रोतों के असीमित महत्व को समझा जा सकता है। भारत में सदियों से नदियों और झीलों के संरक्षण की समृद्ध परंपरा रही है। प्राचीन साहित्य झीलों के निर्माण की वैज्ञानिक तकनीकों और नदी प्रणालियों के संरक्षण के तरीकों से भरा पड़ा है जो सदियों से मौजूद हैं।

सभी मानव बस्तियां जल स्रोतों के किनारे बसीं। हालांकि बढ़ती आबादी, बढ़ते उपभोक्तावाद और जीवन जीने के अत्याधुनिक फैशनेबल तरीकों (ई-कचरा, प्लास्टिक वगैरह) के साथ, हम आसानी से पानी के महत्व को भूल गए हैं, जिससे हर साल विश्व आर्द्रभूमि दिवस (2 फरवरी) की याद दिलाना जरूरी-सा हो गया है। याद रखें, कारखानों में पीने का पानी तैयार करने की अभी तक कोई तकनीक विकसित नहीं हुई है और ऐसे में प्रकृति का सम्मान करना ही जरूरी है। ताजा पानी बहुत दुर्लभ है जो पृथ्वी के कुल पानी का केवल तीन प्रतिशत है। जरा सोचिए इस पर।

इस धरती पर अनगिनत आर्द्रभूमियां हैं लेकिन बहुत कम को छोड़कर लगभग सभी विलुप्त होने की कगार पर हैं. मनुष्यों के अलावा, वे दुनिया के विभिन्न हिस्सों में बहुत बड़ी संख्या में मछलियों, कीड़ों, उभयचर, सरीसृप, पक्षी और वनस्पतियों का संरक्षण करती हैं। आर्द्रभूमियों पर मंडराते खतरे को भांपते हुए, दूरदर्शिता रखने वाले समझदार पर्यावरणविद् वैश्विक आर्द्रभूमियों की सुरक्षा के बारे में विचार-मंथन के लिए ईरानी शहर रामसर में एकत्र हुए थे। वर्ष था 1971. इस तरह रामसर संधि का जन्म हुआ। अंतरराष्ट्रीय महत्व की आर्द्रभूमियों पर सम्मेलन में एकत्र होने के अवसर के कारण उस दिन को विश्व आर्द्रभूमि (वेटलैंड्स) दिवस के रूप में मनाया जाता है।

यह एक अंतरराष्ट्रीय संधि है जिसमें भारत सहित 170 से अधिक देशों ने हस्ताक्षर किए हैं। 70 के दशक का प्रारंभ वह समय था जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण जागृति की शुरुआत हुई ही थी। वर्ष 1972 में मानव निर्मित पर्यावरण पर ऐतिहासिक संयुक्त राष्ट्र आयोजित स्टॉकहोम सम्मेलन दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण प्रयासों में एक और बड़ा मील का पत्थर बना। सुंदर लाल बहुगुणा के कारण वह सुर्खियों में छाया रहा।

रामसर संधि द्वारा निर्धारित इस वर्ष की थीम ‘वेटलैंड्स एंड ह्यूमन वेलबीइंग’ है। इसकी वैश्विक प्रमुख डॉ. मुसोंडा मुंबा ने जिनेवा मुख्यालय से अपने संदेश में कहा : हमें आर्द्रभूमि को प्रदूषित करने से रोकने के लिए सही विकल्प चुनना चाहिए; आर्द्रभूमियों के संरक्षण और स्थायी प्रबंधन के वैश्विक प्रयासों में शामिल होना होगा और स्थानीय स्तर पर आर्द्रभूमि संरक्षण के प्रयासों में भाग लेना होगा।

वह आज इंदौर में हैं, जहां एक गैर-लाभकारी संस्था ‘द नेचर वालंटियर्स’ (टीएनवी) सोसाइटी, जिसका नेतृत्व 83 वर्षीय संरक्षणवादी पद्मश्री भालू मोंढे कर रहे हैं और जिन्होंने सिरपुर झील को बचाने में 40 साल से अधिक समय खपाया है - ने दिखाया है कि कैसे जुनून से भरे हुए लोग एक विशाल शहरी आर्द्रभूमि को बचा सकते हैं। विश्व आर्द्रभूमि दिवस समारोह इंदौर नगर निगम की संपत्ति सिरपुर तालाब में आयोजित किया जाएगा, जिसे एपको संगठन, भोपाल द्वारा वैज्ञानिक रूप से सहयोग देने और भारत सरकार के ठोस प्रयासों के कारण अगस्त 2022 में ‘रामसर साइट’ घोषित किया गया. यह बड़ी उपलब्धि थी।

सिरपुर की सफलता की कहानी अब बड़े पैमाने पर शहरी आर्द्रभूमि की रक्षा के गैर-सरकारी प्रयास के रूप में देश भर में जानी जाती है। ऐसे कई और सिरपुर हैं जो संरक्षित होने की बाट जोह रहे हैं। जब सिरपुर झील मानवजनित दबावों का लगातार सामना कर रही है, दूरदर्शी होलकर महाराजा द्वारा लगभग 140 साल पहले बनाए गए इस सुंदर पक्षी आवास में रामसर कन्वेंशन की शीर्ष व्यक्ति की यात्रा आर्द्रभूमि संरक्षकों के लिये अब उम्मीद की नई किरण जगाती है।

बड़े भारतीय शहर प्रतिदिन 4000 करोड़ लीटर गंदे व प्रदूषित पानी का उत्सर्जन करते हैं। इस कचरे के एक तिहाई से भी कम का शुद्धिकरण सरकारी अमला नहीं कर पाता है। इसका अधिकांश भाग नदियों और झीलों में चला जाता है जो हमें पीने का पानी उपलब्ध कराते हैं। समस्या की भयावहता को समझने के लिए यह एक आंकड़ा काफी है। वेटलैंड्स को बचाने के लिए तालाबों संबंधी नियमों (2017) में अधिक स्पष्टता और इनके सख्त कार्यान्वयन की आवश्यकता है।

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों व समाज को इनके संरक्षण का संकल्प लेना चाहिए...आज भी, कल भी और परसों भी! सरकार को भी सख्ती से पेश आना होगा। वरना ऐसे दिन तो आते-जाते रहेंगे।

Web Title: Resolve will have to be taken to save rivers and ponds

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