ब्लॉग: हंसमुख, दिलदार और विद्वान साथी

By विजय दर्डा | Published: January 22, 2022 11:10 AM2022-01-22T11:10:22+5:302022-01-22T11:13:18+5:30

राज्यभर में 45 से ज्यादा संपादकों को तैयार करने वाले दिनकर रायकर संपादक के तौर पर जितने कठोर थे, उतने ही विनोदी स्वभाव के भी थे. न्यूजरूम में गंभीर माहौल होते ही वह एकाध किस्सा सुनाकर सबको हंसने पर मजबूर कर देते थे.

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ब्लॉग: हंसमुख, दिलदार और विद्वान साथी

Highlightsदिनकर रायकर ‘लोकमत’ में न केवल रमे, बल्कि मराठी पत्रकारिता उनकी जिंदगी का ही हिस्सा बन गई. 2002 से 2006 तक चार वर्ष वह औरंगाबाद संस्करण के संपादक रहे.चार वर्षो के दौरान उन्होंने औरंगाबाद कार्यालय के न्यूजरूम का माहौल ही बदल डाला. 

पत्रकारिता में युवावस्था का दौर इंडियन एक्सप्रेस जैसे अंग्रेजी अखबार समूह में बिताने वाला कोई सेवानिवृत्ति के बाद मराठी पत्रकारिता में उतनी ही अच्छी तरह से रम सकेगा क्या, यह सवाल किसी ने पूछा तो आमतौर पर जवाब नहीं ही होगा. 

दिनकर रायकर ने इस सोच को सरासर गलत साबित किया. सेवानिवृत्ति के बाद वह मराठी अखबारों की दुनिया, यानी ‘लोकमत’ में न केवल रमे, बल्कि मराठी पत्रकारिता उनकी जिंदगी का ही हिस्सा बन गई. 

‘लोकमत’ में उन्होंने संपादक से समूह संपादक और फिर सलाहकार संपादक जैसी महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं. अंतिम सांस तक वह लोकमत परिवार का हिस्सा रहे.

कोल्हापुर की लाल मिट्टी में तैयार और फिर मुंबई में रम जाने वाला यह पहलवान मराठवाड़ा के अकालग्रस्त इलाके में भी न केवल रमा बल्कि उस मिट्टी से उन्होंने बहुत बड़ा नाता तैयार कर लिया. 

मुंबई जैसी ड्रीम सिटी में पूरा करियर बिताने के बाद वह औरंगाबाद जैसे शांत शहर में रमेंगे, ऐसा मुझको नहीं लगा था. मेरे इस अंदाज को दिनकर रायकर ने गलत साबित किया. एक्सप्रेस ग्रुप में फलने-फूलने के बाद दिनकर रायकर ने सेवानिवृत्ति के बाद की इनिंग ‘लोकमत’ में शुरू की.

2002 से 2006 तक चार वर्ष वह औरंगाबाद संस्करण के संपादक रहे. औरंगाबाद शहर की तासीर को समझने के लिए उन्होंने शुरुआती दौर में साथियों के स्कूटर पर गलियों को छान मारा. इन चार वर्षो के दौरान उन्होंने औरंगाबाद कार्यालय के न्यूजरूम का माहौल ही बदल डाला. 

उनकी जिंदगी का फलसफा बहुत ही साफ था, पूरी दुनिया की चिंता होने के बोझ के तले क्यों काम किया जाए? बेहतर है कि काम के दौरान आनंद लेते रहो, आनंद देते रहो. दिनकर रायकर ने अंतिम सांस तक सभी को ऐसा ही आनंद दिया.

बाद में उन्होंने 2006 से 2009 तक सफलता के साथ मुंबई संस्करण की कमान थामी. 2009 से 2020 तक तकरीबन 11 साल तक वह ‘लोकमत’ के समूह संपादक की जिम्मेदारी थामे रहे. 

पत्रकार पर उम्र का बंधन नहीं होता, लेकिन उसे हर बात का न्यूनतम ज्ञान होना आवश्यक है. पत्रकारिता में आने वाली नई पीढ़ी को वह हमेशा यह बताते रहते थे. वह यह भी कहते थे कि गलतियां इंसान से ही होती हैं, लेकिन एक ही गलती दोबारा नहीं होनी चाहिए.

मराठी लोगों को आत्मविश्वास के साथ जीना चाहिए. खासतौर पर गांव की ओर से आने वाले युवकों के अधिक आत्मविश्वास के साथ आगे आने के वह पक्षधर थे. 

‘लोकमत’ परिवार के संपादकीय विभाग के अधिकतर सहयोगी ग्रामीण इलाके से आए. मुंबई में संपादक रहते हुए वह ऐसे युवा साथियों को खासतौर पर फाइव स्टार होटल की प्रेस कांफ्रेंस में भेजा करते थे.  ग्रामीण पृष्ठभूमि के अनेक युवकों को उन्होंने आत्मविश्वास दिया. उनमें से अनेक आज संपादक के तौर पर कामयाबी के साथ काम कर रहे हैं.

राज्यभर में 45 से ज्यादा संपादकों को तैयार करने वाले दिनकर रायकर संपादक के तौर पर जितने कठोर थे, उतने ही विनोदी स्वभाव के भी थे. न्यूजरूम में गंभीर माहौल होते ही वह एकाध किस्सा सुनाकर सबको हंसने पर मजबूर कर देते थे. 

उनके सामने दैनिक अखबार के पन्ने ले जाते समय अच्छे-अच्छे उपसंपादक घबरा जाते थे. कुछ ही मिनटों में पूरा पन्ना पढ़कर वह लाल मार्क से गलतियों को बता देते थे. उनकी नजर से अंक में कोई गलती छूटना नामुमकिन था.

महाराष्ट्र के पहले मुख्यमंत्री से लेकर आज के उद्धव ठाकरे तक सभी मुख्यमंत्रियों के साथ नजदीकी नाता रखने वाले चुनिंदा संपादकों में से वह एक थे. वह जितना संपादक के तौर पर कामयाब रहे, उतने ही कामयाब रिपोर्टर भी रहे. अपने भीतर के पत्रकार को उन्होंने कभी भी मरने नहीं दिया. 

पढ़ने की तूफानी गति और हर खबर पर तत्काल रिएक्ट करने का स्वभाव होने के कारण वह हमेशा खबरों की दुनिया में ही रमे रहते थे. सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विषय कोई भी हो, उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती थी. हर विषय की न केवल उन्हें जानकारी थी, बल्कि उसे व्यक्त करने की कला भी उन्हें पता थी. उनसे मिलने वाला हर व्यक्ति पहली ही मुलाकात में दिनकर रायकर को चाहने लगता था, इसकी यही वजह थी.

कुदरत के नियम के मुताबिक वह उम्र से वृद्ध हो गए थे, लेकिन उनका 25 साल के युवक जैसा उत्साह अंतिम सांस तक कायम रहा. हमेशा उत्साही रहने का राज उन्होंने कभी हमारे साथ साझा नहीं किया. 

राजनीति से लेकर सामाजिक क्षेत्र तक उनके अनगिनत चाहने वाले थे. ‘लोकमत’ में ऐसा नहीं था कि केवल संपादकीय विभाग में ही उनके चाहने वाले थे. वह तो हर विभाग के साथियों के बीच उतने ही लोकप्रिय थे. 

काम के दौरान खुद तनाव नहीं लेने और दूसरों पर भी ऐसा ही करने के लिए जोर देने के उनके स्वभाव के कारण न्यूजरूम उन्होंने जितना गंभीर रखा, उतना ही हंसी-खुशी भरा भी.

वास्तविकता में तो इंडियन एक्सप्रेस से सेवानिवृत्ति के बाद कोई दूसरा पत्रकार होता तो पारिवारिक जीवन में रम चुका होता. दिनकर रायकर ऐसे आम लोगों में से नहीं थे. 

सेवानिवृत्ति के बाद भी उन्होंने तकरीबन 22 वर्ष यानी एक पूरी पारी ही ‘लोकमत’ परिवार के साथ काम किया. सेवानिवृत्ति के बाद ‘लोकमत’ परिवार में आने के बावजूद काम के वक्त में यह निवृत्ति भाव कभी भी दिखाई नहीं दिया. अब यह कमी हमेशा खलती रहेगी.

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