राजेश बादल का ब्लॉग: पार्टियों की जंग में चुनाव आयोग पर भारी दायित्व 

By राजेश बादल | Published: March 12, 2019 05:29 AM2019-03-12T05:29:17+5:302019-03-12T05:29:17+5:30

सत्तर बरस पहले चुनाव आयोग ने देश के सत्नह करोड़ मतदाताओं के लिए सरकार चुनी थी. आज नब्बे करोड़ मतदाताओं के लिए वही काम करना है.

Rajesh Badal's Blog: Heavy liability for Election Commission in Parties | राजेश बादल का ब्लॉग: पार्टियों की जंग में चुनाव आयोग पर भारी दायित्व 

राजेश बादल का ब्लॉग: पार्टियों की जंग में चुनाव आयोग पर भारी दायित्व 

दो-चार दिन देर से सही, लेकिन भारत को अगली लोकसभा चुनाव की तारीखें मिल गईं. काम का दबाव तो होता ही है. देश भर में चुनाव कराना कोई छोटा-मोटा काम नहीं है. संसार का सबसे बड़ा चुनाव. करीब 90 करोड़ मतदाताओं वाला इकलौता गणतांत्रिक देश. किसी अन्य मुल्क में इस तरह चुनाव होते हों तो बताइए. लेकिन  चुनाव दर चुनाव आयोग के सामने चुनौतियां अधिक विकराल और विराट होती जा रही हैं. हर बार चुनाव आयोग बैक फुट पर जाता दिखाई देता है. यक्ष प्रश्न यह है कि क्या आयोग के पास 2019 के हिंदुस्तान में नई परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए कारगर अधिकार और हथियार हैं?  

सत्तर बरस पहले चुनाव आयोग ने देश के सत्नह करोड़ मतदाताओं के लिए सरकार चुनी थी. आज नब्बे करोड़ मतदाताओं के लिए वही काम करना है. बजट और मशीनरी बेशक उसे इस अनुपात में मिलती है कि वह लोकतंत्न का यह अनुष्ठान बिना बाधा के संपन्न करा सकता है. विडंबना है कि वह केवल इवेंट ऑर्गनाइजिंग एजेंसी बन कर रह गया है. वक्त पर तारीखें घोषित करना, उन तिथियों में चुनाव कराना और जीत के बाद उसका प्रमाणपत्न दे देना ही आयोग की दिखने वाली जिम्मेदारी है. यह भारतीय संविधान की भावना के अनुरूप नहीं है. हमने देखा है कि टी.एन. शेषन जैसे आला अफसर ने चुनाव आयोग को सिर्फ जीत का सर्टिफिकेट बांटने वाली एजेंसी से धड़कते हुए ताकतवर लोकतांत्रिक प्रतीक संस्थान में तब्दील किया था. अफसोस! अब उसकी परछाईं भी नहीं दिखाई देती.

भारत की संसद ने भी कभी अपनी ओर से गंभीर जतन नहीं किए, जिससे यह 1952 के एक्सपायरी डेट वाले कानून से मुक्त होकर आज के भारत के लिए जरूरी आधुनिक संस्था बन जाती. इन दिनों  खुल्लम खुल्ला धर्म के आधार पर वोट बांटने का प्रयास होता है. नफरत फैला कर वोट मांगे जाते हैं. जहर भरे प्रतीकों, भाषा और प्रचार का ढंग इस्तेमाल किया जाता है. चुनाव आयोग बेबस  है. उसके पास चेतावनी देने के अलावा कोई अधिकार नहीं है. वह न तो चुनाव निरस्त कर सकता है न संबंधित दल या उम्मीदवार की मान्यता रद्द कर सकता है और न ही उन्हें सजा दे सकता है. इसी तरह सोशल, सैटेलाइट और टी.वी. मीडिया का हाल है. 

जब चुनाव कानून बना, तब टीवी और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं था. लिहाजा सिर्फ प्रिंट माध्यम को ध्यान में रखा गया था. आज सात से आठ चरण में मतदान होता है. अड़तालीस घंटे पहले भले ही प्रचार बंद हो जाए, मगर उस इलाके में टी.वी., रेडियो और सोशल मीडिया के जरिए अगले दौर के इलाके वाला प्रचार तो पहुंचता ही है. लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे छाए रहते हैं.

इसे रोकने की कोई तकनीक आयोग के पास नहीं है. इसी तरह सोशल मीडिया के तमाम अवतारों को रोकना किसी भी मौजूदा कानून के तहत नामुमकिन सा नजर आता है. उसके पास कोई विधि सम्मत अधिकार नहीं हैं. यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है कि  इन दिनों ट्रिक फोटोग्राफी और ग्राफिक्स के बेजा इस्तेमाल से नकली फोटो, वीडियो और घृणा फैलाने के अनेक हथकंडे अपनाए जा रहे हैं. चुनाव आयोग यहां कुछ नहीं कर सकता.

हर चुनाव में पैसे की भूमिका बढ़ती जा रही है. चुनाव में जीत के लिए उम्मीदवार धड़ल्ले से करोड़ों रुपए बहाते हैं. अनेक बार संसद और विधानसभाओं में बहस हुई. बाहर भी अनेक स्वयंसेवी और गैरराजनीतिक संस्थाओं ने इस मुद्दे पर अनेक बार देशव्यापी विमर्श किया. पर कोई परिणाम नहीं निकला. पैसे से वोट खरीदना अब चौंकाता नहीं. शराब बांटना, नकद देना, उपहार बांटना, सामाजिक - धार्मिक यात्नाएं और भोज कराना आम होता जा रहा है. मीडिया के मंचों पर भी अब नकद लेनदेन होने लगा है. 

ढेर सारे व्हाट्सएप समूह बन गए हैं. उसे पार्टी या उम्मीदवार की निंदा और स्तुति लिखने, चुनावी रैलियों की सूचना देने और फर्जी सूचनाएं फैलाने के लिए भुगतान होता है. इसी तरह पेड न्यूज के आरोप से बचने के लिए भी तोड़ निकाल लिए गए हैं. आचार संहिता लगने के पहले ही बड़ा भुगतान हो जाता है. अब चुनाव आयोग की मशीनरी करे भी तो क्या? इस बार तो फीचर फिल्मों का सहारा भी लिया जा रहा है. एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर अगर बड़े पर्दे पर दिखाई जा रही है तो उसे चुनाव आयोग किस तरह रोक सकता है? 

राजनीतिक दलों और नेताओं ने चुनाव प्रचार में जिस बेशर्मी के साथ नैतिकता, लोकतांत्रिक आदर्शो और सिद्धांतों को तोड़ना शुरू कर दिया है, उसमें संसार का कोई भी चुनाव आयोग कुछ नहीं कर सकता. व्यक्ति ही समाज, देश और लोकतंत्न  को चलाने के लिए संस्थाओं का गठन करता है. व्यक्तियों से मिलकर ही ये संस्थाएं मजबूत होती हैं. यदि व्यक्ति ही संस्थाओं को ध्वस्त करने का काम करे तो फिर कौन आकर बचाएगा? बागड़ के खेत को खाने के खतरे बहुत हैं इस बात को भारतीय लोकतंत्न के पैरोकारों को समझना होगा. अनेक संवैधानिक संस्थाओं के पतन की कहानियां हमारे सामने हैं. भारत का चुनाव आयोग उस कतार में अगर खड़ा होगा तो यह हमारे लोकतंत्न के लिए बेहद शर्मनाक होगा. 

Web Title: Rajesh Badal's Blog: Heavy liability for Election Commission in Parties