राजेश बादल का ब्लॉग: सियासत में गलत फैसलों की भरपाई नहीं होती
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: November 9, 2021 10:01 AM2021-11-09T10:01:19+5:302021-11-09T10:02:13+5:30
सरकार समझने को तैयार नहीं है कि वह जिस डाल पर बैठी है, उसी को काटने पर उतारू है. वक्त गुजरने के बाद गलती दुरुस्त करने का लाभ नहीं मिलता. जनता सब समझती है पर बोलती नहीं.
सियासत की भी अपनी मनोवैज्ञानिक समझ होती है. यह कला प्रत्येक राजनेता को यूं ही हासिल नहीं होती. वर्षो की कठिन साधना के बाद ही यह हुनर प्राप्त होता है. लाखों में कोई एकाध बिरला ही होता है, जो वक्त की चाल समझ पाता है. चोटी पर बैठे लीडरों के लिए तो यह और भी कठिन है. ऐसे शिखर पुरुष अपने निर्णयों को हमेशा सही मानते रहते हैं.
सियासत के सफर में उन्हें कई फैसले लेने पड़ते हैं. लेकिन उनमें से कोई एक कब हानिकारक हो जाता है, इसका पता ही नहीं चलता. इनमें कुछ तो उसके अपने हित साधने के लिए भी होते हैं. कभी-कभी उसका अहसास राजनेता को हो जाता है, पर उसके दंभ या अहं के कारण वे बने रहते हैं. कुछ निर्णयों से हो रही क्षति की भरपाई के लिए वह कुछ कदम उठाता है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.
इस मामले में उसकी अपनी गलती तो होती ही है, सरकार में बैठे उसके सहयोगी और नौकरशाह भी सच से उसका संवाद नहीं कराते. वे सोचते हैं कि किसी फैसले में दोष निकालने से उनकी कुर्सी या करियर ही कहीं दांव पर न लग जाए. मौजूदा कालखंड इस मायने में रीढ़विहीन कहा जा सकता है.
हाल ही में पेट्रोल-डीजल के दामों में कटौती का निर्णय कुछ ऐसा ही है. यह फैसला लेने में सरकार से विलंब हुआ लेकिन जिस तरह से लगातार कीमतें बढ़ाई गईं, उनके पीछे कोई ठोस आधार नहीं था. अंतरराष्ट्रीय बाजार में जब कच्चे तेल के मूल्य गिर रहे थे, तब भी भारत में डीजल-पेट्रोल के मूल्य आसमान छू रहे थे.
एक तरफ केंद्र सरकार दावा कर रही थी कि आर्थिक रफ्तार कुलांचे भर रही है, तो दूसरी ओर डायन महंगाई ने अवाम का जीना मुहाल कर दिया था. यदि देश संकट में होता, जंग हो रही होती, कोई दैवीय आपदा आई होती तो लगातार कीमतें बढ़ाने का वाजिब कारण समझ में आता. कोरोना के असाधारण आक्रमण काल को छोड़ दें तो लगातार मूल्यों में इजाफे की वजह समझ से परे है.
विडंबना यह है कि डीजल-पेट्रोल के दाम बढ़ने से रोजमर्रा की जिंदगी में उपभोक्ता वस्तुओं के दाम भी लोगों को रुलाते हैं. दूध, सब्जी, किराना, यातायात किराया, बिजली, पानी, स्वास्थ्य सेवाएं, आवास और औद्योगिक उत्पादन सब महंगा हो जाता है. इस हिसाब से व्यवस्था-नियंताओं से बड़ी चूक हुई.
एक जमाने में प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने अन्न संकट के मद्देनजर हिंदुस्तान से प्रार्थना की थी कि वह एक समय ही भोजन करें तो करोड़ों लोगों ने एक जून का खाना छोड़ दिया था. विकट हालात में जनता भी सरकार को सहयोग करती है.
कमोबेश ऐसा ही कुछ किसान आंदोलन के बारे में है. अफसोस यह है कि लीडरान अपनी राजनीतिक पारी में ढेरों अनुचित और अनैतिक निर्णय लेते हैं मगर किसी अहं या छिपे हित के चलते सही फैसले को ताक में रख देते हैं. किसानों का आंदोलन इसी जिद का शिकार हुआ है.
सरकार समझने को तैयार नहीं है कि वह जिस डाल पर बैठी है, उसी को काटने पर उतारू है. वक्त गुजरने के बाद गलती दुरुस्त करने का लाभ नहीं मिलता. जनता सब समझती है पर बोलती नहीं. उसके बोलने का वक्त मुकर्रर है, उसी समय वह न्यायाधीश की भूमिका निभाती है.
आजादी के बाद इतिहास में ऐसे अनेक साक्ष्य मौजूद हैं. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया. उस दरम्यान महंगाई काबू में आ गई थी, भ्रष्टाचार पर लगाम लगी थी. सरकारी कार्यालयों में बिना घूस काम होने लगे थे. हम लोगों ने पत्रकारिता दायित्व निभाते हुए यह दौर देखा है. विनोबा भावे जैसे संत ने यदि उसे अनुशासन पर्व कहा तो उसके पीछे यही कारण थे.
इसके बाद भी आपातकाल के निर्णय का नुकसान इंदिरा गांधी को उठाना पड़ा. उस समय उनके सलाहकार तथा नौकरशाह रिपोर्ट देते रहे कि वे चुनाव जीत रही हैं. हालांकि खुद इंदिरा गांधी को अंदेशा था कि उनसे बड़ी भूल हुई है इसलिए उन्होंने भरपाई के लिए आम जनता से माफी भी मांगी थी और कुछ निर्णयों को ठीक करने का प्रयास किया था लेकिन तब तक काफी समय निकल चुका था.
उन्होंने 18 जनवरी 1977 को राष्ट्र के नाम संदेश में इशारा भी किया था. वे उस दिन सफाई देने की मुद्रा में थीं पर अवाम ने 1977 के चुनाव में उन्हें सत्ता छोड़ने का आदेश दिया और इंदिरा गांधी के सारे अच्छे काम भुला दिए. इस पराक्रमी नेत्री को पटखनी देते समय मुल्क को याद नहीं रहा कि उस महिला ने देश को अनाज संकट से उबार कर हरित क्रांति की थी. देश में श्वेत क्रांति की थी और दूध उत्पादन में रिकॉर्ड कायम किया था, हिंदुस्तान को परमाणु शक्ति बनाया था और अंतरिक्ष में किसी भारतीय ने अपने कदम उनके कार्यकाल में ही रखे थे.
यही नहीं, बांग्लादेश को आजाद कराकर भारत को एक सीमा से स्थायी खतरे से मुक्ति दिलाई थी और सिक्किम नामक देश को भारत में शामिल करके अपना राज्य बनाया था, जो चीन के लिए करारा तमाचा था.
पंजाब में आतंकवाद का करीब-करीब खात्मा उनके जमाने में ही हो गया था. वास्तव में भारत महाशक्ति के रूप में विश्व मंच पर अवतरित हुआ तो इंदिरा गांधी का योगदान भुलाया नहीं जा सकता. मगर भारतीय मतदाता ने उन्हें उस अपराध के लिए दंडित किया, जिससे उसका अपना जीवन आसान बना था.
एक खराब फैसला बहुत से अच्छे कार्यो पर पानी फेर देता है, इसे समझने के लिए इंदिरा गांधी से बेहतर कोई अन्य उदाहरण नहीं हो सकता. जिस तरह इंसान अपनी जिंदगी में कोई अवसर खोकर दोबारा नहीं पाता, उसी तरह सियासत में भी अवसर निकल जाने के बाद हितकारी और कल्याणकारी निर्णय कोई काम नहीं आते.