राजेश बादल का ब्लॉग: लोकतंत्न में चेहरे पर चुनाव खतरे से खाली नहीं 

By राजेश बादल | Published: April 10, 2019 12:36 PM2019-04-10T12:36:45+5:302019-04-10T12:36:45+5:30

अगर किसी राजनीतिक दल को चुनाव में चेहरा सामने रखने से जबरदस्त कामयाबी मिलती है तो धारणा यह बन जाती है कि पार्टी ने नहीं, बल्कि चेहरे ने जीत दिलाई है. ऐसी सूरत में पार्टी का एक-एक कार्यकर्ता जमीन पर संगठन को मजबूत करने की प्राथमिकता को हाशिए पर डाल देता है.

Rajesh Badal blog: lok sabha Election on face in democracy is not clear from danger | राजेश बादल का ब्लॉग: लोकतंत्न में चेहरे पर चुनाव खतरे से खाली नहीं 

राजेश बादल का ब्लॉग: लोकतंत्न में चेहरे पर चुनाव खतरे से खाली नहीं 

विषय बेहद संवेदनशील है. सत्नहवीं लोकसभा का चुनाव सिर्फ चेहरे की सियासत पर टिक गया है. पांच साल का कार्यकाल, पक्ष-प्रतिपक्ष का मूल्यांकन और देश के सामने खड़े विकराल मुद्दे कहीं हाशिए पर चले गए हैं. ब्रांड सामने रह गया है. ब्रांड को केंद्र में रखकर निर्वाचन मैदान में उतरना किसी भी राजनीतिक दल के लिए खतरे से खाली नहीं है. भारतीय लोकतंत्न का ढांचा इसकी इजाजत नहीं देता. इस संवैधानिक ढांचे में चेहरे को सामने रखकर लड़ना मुल्क की किस्मत से खिलवाड़ करना है.   

अगर किसी राजनीतिक दल को चुनाव में चेहरा सामने रखने से जबरदस्त कामयाबी मिलती है तो धारणा यह बन जाती है कि पार्टी ने नहीं, बल्कि चेहरे ने जीत दिलाई है. ऐसी सूरत में पार्टी का एक-एक कार्यकर्ता जमीन पर संगठन को मजबूत करने की प्राथमिकता को हाशिए पर डाल देता है. उसके अवचेतन में यह बात बैठ जाती है कि अगर प्रधानमंत्नी या मुख्यमंत्नी के नाम पर चुनाव जीतना है तो फिर उसे पांच साल तक पार्टी के संगठन और नेटवर्क को मजबूत करने की जरूरत ही क्या है? 

निर्वाचन आयोग चुनाव की तारीखों का ऐलान करेगा, ब्रांड किसी महानायक की तरह आएगा, मतदाता उसके दीवाने हो जाएंगे और जीत उनकी झोली में होगी. इससे स्थानीय स्तर तक दल का नेटवर्क एक बिखरे-बिखरे अंदाज में काम करता है और उसका सकारात्मक असर नहीं होता. दूसरी ओर पेश किया गया ब्रांड या चेहरा इस भ्रम को पाल लेता है कि उसके कारण ही जीत मिली है अन्यथा पार्टी में तो कोई दम था ही नहीं. इसके बाद ब्रांड के इर्द-गिर्द पार्टी के भीतर एक समानांतर संगठन या लॉबी खड़ी हो जाती है. ब्रांड के समर्थक और पार्टी के परंपरागत कार्यकर्ता कई बार आमने-सामने हो जाते हैं.   

कांग्रेस और भाजपा - दोनों ही दल अतीत में इस अवधारणा का शिकार हो चुके हैं. भारतीय राजनीति में सबसे ताकतवर प्रधानमंत्नी इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भी यही हुआ था. सन 1969 और 1979 के दरम्यान जब इंदिरा गांधी को पार्टी के अंदर स्वीकार्यता नहीं मिली और विभाजन की नौबत आ गई तो अकेले दम पर उन्होंने एक तरह से नई कांग्रेस को जन्म दिया था. उस नई कांग्रेस में इंदिरा गांधी का कद इतना विराट हो गया कि दल एक तरह से बौना नजर आने लगा. 

तात्कालिक लाभ भले ही पार्टी को मिला था मगर उसके दूरगामी परिणामों ने पार्टी के सामने कुछ मुश्किलें भी पेश कीं. कमोबेश यही स्थिति वर्तमान प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में दिखाई दी है. हालांकि यहां पार्टी अध्यक्ष अलग से हैं इसलिए पूरी पार्टी पर एक व्यक्ति के हावी होने का खतरा नजर नहीं आता. पर इसे भी स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि आज भाजपा में भी ब्रांड समर्थक और परंपरागत कार्यकर्ता अनेक अवसरों पर एक दूसरे के पूरक नहीं, बल्कि आमने सामने दिखाई.

मध्य प्रदेश और राजस्थान विधानसभा के पिछले चुनाव के परिणामों का गहराई से विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट हो जाता है. प्रतिकूल परिणाम दोनों दलों ने देखे हैं. इससे सबक लेने के बजाय मौजूदा राजनीति में व्यक्ति केंद्रित सियासत का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है. 

ब्रांड को सामने रखने का एक खतरा और है. राजनीतिक दल पांच साल की अपनी उपलब्धियों को ही लोगों तक ढंग से नहीं पहुंचा पाते. सिर्फ चेहरे के इर्द-गिर्द प्रचार अभियान सिमट जाता है. राजनीतिक मनोविज्ञान यहां काम नहीं करता. पार्टी को भरोसा ही नहीं होता कि वह अपनी उपलब्धियों के नाम पर चुनाव जीत सकती है. वाजपेयी और मनमोहन सिंह की सरकारों के चुनावी मोर्चे पर नाकामी की एक वजह यह भी है. दोनों सरकारों के खाते में बेशक उपलब्धियों का खजाना था, पर उनको पार्टी हित में भुनाया नहीं जा सका. कह सकते हैं कि 2014 का चुनाव एक तरह से मनमोहन सिंह नाम के ब्रांड की नाकामी का कारण था.

हालांकि क्षेत्नीय दलों में ब्रांड पर निर्भरता उनकी मजबूरी भी है. अगर बसपा, सपा, राकांपा, शिवसेना, तेलुगु देशम, तृणमूल कांग्रेस और टीआरएस जैसे अनेक राजनीतिक दलों की अंदरूनी सेहत देखें तो कोई बहुत शुभ संकेत नहीं है. इन दलों के ब्रांड को बाहर कर दीजिए, फिर देखिए. शायद ही कोई पार्टी ब्रांड के बगैर आगे बढ़ पाए. अफसोस यह कि इस चेतावनी को ये क्षेत्नीय दल अभी समझ नहीं पा रहे हैं. कितने ही क्षेत्नीय दल ऐसे हैं जो अपने संगठन का विस्तार नहीं कर पाए और अपने इर्द-गिर्द पार्टी चलाते रहे. बाद में इन पार्टियों को बड़ी पार्टी में विलय करना पड़ा या उनका अस्तित्व ही धीरे धीरे समाप्त हो गया. 

ब्रांड को प्रोजेक्ट करना एक तरह से अधिनायकवाद को प्रोत्साहित करना है. सैकड़ों साल तक सामंती हुकूमतों या राजाओं के कारण इस सोच के बीज हिंदुस्तान की जमीन में हैं और  बड़ी मुश्किल से भारतीय संविधान के बक्से में बंद हुए हैं. अगर बोतल में बंद यह जिन्न राजनेताओं के दिमाग में विकराल रूप धारण कर गया तो एक बार फिर स्वतंत्नता संग्राम छेड़ना आसान नहीं होगा क्योंकि यह संघर्ष तो हमारे अपने लोगों से ही होगा. 

Web Title: Rajesh Badal blog: lok sabha Election on face in democracy is not clear from danger