राजेश बादल का ब्लॉगः बेहतर साख के बाद भी भारत की चुनौती बड़ी
By राजेश बादल | Published: December 8, 2022 03:48 PM2022-12-08T15:48:31+5:302022-12-08T15:49:37+5:30
भारत की शानदार छवि के बावजूद वीटो पावर वाले राष्ट्र बहुमत में होते हुए भी केवल एक मुल्क के विरोध के चलते भारत को स्थायी सदस्यता नहीं दिला पा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के ढांचे में आमूलचूल बदलाव की भारतीय मांग का आधार भी यही है। आपको याद होगा कि पिछले महीने भी फ्रांस और ब्रिटेन ने भारत के पक्ष में आवाज उठाई थी
इस महीने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की कमान भारत के हाथ में है और वह दो साल से इस परिषद के गैर स्थायी सदस्य के तौर पर काम कर रहा है। इस तरह उसके कार्यकाल का यह अंतिम माह है। शुक्रवार को भारत ने पुरजोर ढंग से दुनिया के सामने अपनी बात रखी और तमाम मंचों पर उसे बेहद गंभीरता से लिया जा रहा है। भारत ने साफ-साफ कहा कि विकसित देशों को विकासशील राष्ट्रों की चिंताओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है। विश्व का प्राचीनतम और विशाल लोकतंत्र होने के नाते वह उन सलाहों पर ध्यान देने के लिए बाध्य नहीं है, जो इस राष्ट्र की लोकतांत्रिक प्रणाली पर सवाल खड़े करती हैं। हिंदुस्तान के इस बयान से पश्चिमी देशों का तिलमिलाना स्वाभाविक है। यह उन देशों को भी करारा उत्तर है, जो अपने भीतर जम्हूरियत पसंद नहीं करते, मगर दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में टांग अड़ाने का कोई अवसर नहीं छोड़ते।
यह विडंबना ही है कि जिस चीन को भारत ने संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दिलाने के लिए सारा जोर लगा दिया था, वही अब भारत की राह में रोड़ा बना हुआ है। चीन लगातार भारत की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का विरोधी रहा है। कई बार इतिहास भी सबक सीखने के मौके प्रदान करता है। उस समय अमेरिका ने भारत को चीन का सहयोग करने पर आगाह किया था और कहा था कि हिंदुस्तान को चीन के मामले में सावधान रहना चाहिए। कौन जानता था कि उस समय उसकी यह सलाह आगे जाकर सच साबित होगी। यह बात अलग है कि अब अमेरिका भी रणनीतिक तौर पर भारत का साथ देने की बात तो करता है पर वास्तव में उसकी अपनी नीतियां भी हिंदुस्तान के हित में नहीं हैं। अलबत्ता अमेरिका सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता में भारत का साथ दे रहा है। उसके अलावा फ्रांस, रूस और ब्रिटेन अनेक अवसरों पर पहले ही भारत का समर्थन कर चुके हैं इसलिए भारत बार-बार संयुक्त राष्ट्र के ढांचे में व्यापक फेरबदल पर जोर देता रहा है। केवल एक देश के विरोध के कारण अनेक प्रबल दावेदारों को स्थान नहीं मिल पाता। भारत समेत जापान और ब्राजील जैसे देश इसका खामियाजा भुगत रहे हैं।
वैसे देखा जाए तो संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध सभी राष्ट्रों के बीच भारत की साख हमेशा बेहतर रही है। जब-जब भी अस्थायी सदस्यता के लिए मतदान हुआ, भारत को अभूतपूर्व समर्थन मिलता रहा है। कुछ उदाहरण पर्याप्त होंगे। सन् 1950 में कुल 58 वोटों में से भारत को 56 वोट मिले थे। सत्रह साल बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू विश्व मंच पर नहीं थे और 1967 में भारत को कुल 119 में से 82 मत हासिल हुए। यह सबसे कमजोर स्थिति थी लेकिन जब भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता शिखर पर थी और उन्होंने दुनिया के नक्शे में बांग्लादेश नाम के एक नए देश को जन्म दिलाया, उसके अगले साल यानी 1972 में 116 में से 107 देश भारत के साथ खड़े थे। अगले पांच साल बाद भी ऐसी स्थिति बनी रही। जब 1977 में मतदान हुआ तो कुल 138 देशों में से 132 मुल्कों का वोट भारत को मिला था। अगले दस बरस का अरसा भी हिंदुस्तान की लोकप्रियता के नजरिये से स्वर्ण काल था। इंदिरा गांधी और उनके बाद राजीव गांधी भारतीय राजनीति के क्षितिज पर उभरे और उस साल 155 में से 142 राष्ट्रों का साथ मिला। सन् 2011-12 में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के जमाने में ग्राफ सबसे ऊपर रहा। कुल 191 में से 187 देशों का साथ हिंदुस्तान को मिला। पिछला चुनाव 2021-22 में हुआ था। उस समय नरेंद्र मोदी ही प्रधानमंत्री थे। उस दरम्यान 192 में से 184 राष्ट्रों ने भारत को मत दिया था। अब तक आठ बार सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य बनने का अवसर हिंदुस्तान को मिला है।
भारत की शानदार छवि के बावजूद वीटो पावर वाले राष्ट्र बहुमत में होते हुए भी केवल एक मुल्क के विरोध के चलते भारत को स्थायी सदस्यता नहीं दिला पा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के ढांचे में आमूलचूल बदलाव की भारतीय मांग का आधार भी यही है। आपको याद होगा कि पिछले महीने भी फ्रांस और ब्रिटेन ने भारत के पक्ष में आवाज उठाई थी। फ्रांस का कहना था कि अब समय आ गया है जब संसार की इस सर्वोच्च पंचायत में ताकतवर देशों की भागीदारी बढ़ाई जानी चाहिए। फ्रांस ने भारत के अलावा जर्मनी, ब्राजील और जापान के लिए भी अपना समर्थन व्यक्त किया है। उसने कहा कि भौगोलिक आधार पर भी आनुपातिक प्रतिनिधित्व बढ़ाया जाना चाहिए। फ्रांस ने भारत के सुर में सुर मिलाया कि सुरक्षा परिषद को अन्य देशों और उनके हितों का भी संरक्षण करना चाहिए। इसे ध्यान में रखते हुए कम से कम 25 और राष्ट्रों को जोड़ा जाना चाहिए। अफ्रीकी देशों को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए। इसे ध्यान में रखते हुए भारत की इस चेतावनी में दम है कि इस शीर्ष संस्था में सुधार जितनी देर से होंगे, शेष विश्व का उतना ही नुकसान होगा।
दरअसल चीन सीधे-सीधे संयुक्त राष्ट्र के गठन की मंशा को ही चुनौती दे रहा है। उसने भारत के खिलाफ अभियान छेड़ा हुआ है और पाकिस्तान पोषित आतंकवाद को भी संरक्षण दे रहा है। उसने वीटो का दुरुपयोग करने में कंजूसी नहीं दिखाई है। संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव 1267 को उसने एक तरह से अप्रासंगिक बना दिया है। पंद्रह अक्तूबर 1999 को यह प्रस्ताव अस्तित्व में आया। इसके मुताबिक कोई सदस्य देश किसी आतंकवादी को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने का प्रस्ताव रख सकता है। लेकिन उसे सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता की मंजूरी लेनी होगी। यहां चीन हर बार अपनी टांग अड़ा देता है। ऐसे में इस तरह के प्रस्ताव कोई मायने नहीं रखते।