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राजेश बादल का ब्लॉग: किसानों से हारने में भी सरकार की जीत है

By राजेश बादल | Updated: January 6, 2021 13:14 IST

आंदोलनकारी किसानों से सरकार की चर्चा का कोई नतीजा कैसे निकलता? परिणाम तो उस बातचीत से निकलता है, जिसमें देने वाला पक्ष वास्तव में समाधान चाहता हो. इस मामले में हुकूमते हिंद ने ऐसा एक भी संकेत नहीं दिया कि वह हल चाहती है और किसानों को वाकई कुछ देना चाहती है.

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लगभग डेढ़ महीने से चल रहे किसान आंदोलन में अब तक करीब 60 कृषक अपनी जान गंवा चुके हैं. बरसात और तेज सर्दी जैसी विषम परिस्थितियों में चल रहा यह आंदोलन संसार के अपने किस्म के अनूठे जमीनी आंदोलनों में शुमार हो गया है. सात दौर की बातचीत के बाद भी स्थिति जस की तस है. लगता है कि सरकार ने इस मामले में अन्नदाताओं को शारीरिक और मानसिक रूप से थका देने तथा लंबे समय तक विरोध प्रदर्शन को खींचने की रणनीति अपनाई है. हो सकता है कि इस नीति में वह कामयाब भी रहे, मगर इस तरह मिलने वाली जीत में भी उसकी पराजय छिपी है. आंदोलनकारी किसानों से सरकार की चर्चा का कोई नतीजा कैसे निकलता? परिणाम तो उस बातचीत से निकलता है, जिसमें देने वाला पक्ष वास्तव में समाधान चाहता हो. इस मामले में हुकूमते हिंद ने ऐसा एक भी संकेत नहीं दिया कि वह हल चाहती है और किसानों को वाकई कुछ देना चाहती है. अलबत्ता यह उपकार उसने किसानों पर अवश्य किया कि बातचीत के दरवाजे खोले रखे. यही क्या कम है. वह अनेक दौर की बातचीत नहीं भी करती तो बेचारे अन्नदाता क्या कर लेते. सत्ता की कोशिश तो आमतौर पर आंदोलनकारियों को थका देने की रहती है. फिर किसान कौन से अपवाद हैं.

दरअसल आंदोलन के दूरगामी परिणाम सरकार में बैठे नुमाइंदे नहीं देख पा रहे हैं. इसका मानसिक असर प्रदेशों के किसानों में भी दिखाई देने लगा है. दूरस्थ अंचलों के किसान भी व्यवस्था के रवैये से हताश और कुंठित होने लगे हैं. दिसंबर महीने में ही सर्वाधिक पिछड़े इलाकों में से एक बुंदेलखंड के चार किसानों ने आत्महत्याएं कर लीं. सभी किसान अपने पवित्न काम के प्रति समाज और व्यवस्था की असंवेदनशीलता से क्षुब्ध थे. उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में बंटे बुंदेलखंड क्षेत्न में बीते तीन महीनों में छह किसान अपने प्राण दे चुके हैं. अफसोस की बात है कि इन मार्मिक कथाओं के बारे में समाज के माथे पर भी कोई शिकन नहीं है. जान देने वालों में दमोह के दो, पन्ना का एक और छतरपुर जिले का एक किसान था. 

छतरपुर जिले में मातगवां के मुनेंद्र लोधी की दर्दनाक दास्तान तो सिहरन पैदा करती है. फांसी लगाने से पहले उसने मृत्युपूर्व बयान लिखा. उसने लिखा कि खेती तथा आमदनी के अन्य स्रोत ठप हो जाने के कारण वह 88000 रुपए का बिजली बिल नहीं भर पाया था. इसलिए अफसरों ने कुर्की कर ली. आटाचक्की व मोटरसाइकिल जब्त कर ली और गांव वालों के सामने अपमानित किया. फांसी से पहले उसने प्रधानमंत्नी को पत्न लिखा. उसने इसमें लिखा कि बड़े-बड़े कारोबारी घोटाले करते हैं. सरकार उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाती. पर एक गरीब पर थोड़ा सा भी कर्ज हो तो कुर्की कर ली जाती है. मेरी चक्की और मोटरसाइकिल जब्त कर ली. उसका दु:ख नहीं है. मगर जिस तरह गांव वालों के सामने बेइज्जत किया गया, वह असहनीय है. मैंने जब चक्की का कनेक्शन लिया था तो सिक्योरिटी के 35000 रुपए जमा किए थे, लेकिन बिजली विभाग ने सिर्फ 5000 रुपए की रसीद दी. 

बिजली का बिल नहीं भर पाने की मजबूरी भी उसने लिखी - उसकी एक भैंस करंट लगने से मर गई, तीन भैंस चोरी चली गईं, इस साल खरीफ फसल खराब हो गई. इसी बीच कोरोना के कारण लॉकडाउन लग गया. कोई काम नहीं मिला न ही चक्की चली. इस कारण बिल नहीं भर सके. मुनेंद्र ने लिखा कि मरने के बाद मेरे शरीर का एक-एक अंग शासन के सुपुर्द कर दिया जाए, जिन्हें बेचकर वह बकाया रकम वसूल कर ले. दिल दहलाने वाली इस घटना का सबसे दर्दनाक पहलू यह है कि मृतक किसान का पिता बिजली महकमे का ही सेवानिवृत्त कर्मचारी है और उसने भी अधिकारियों को पत्न लिखा था कि उसकी पेंशन से बिजली बिल की बकाया राशि वसूल कर ली जाए, लेकिन उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. किसी भी जिम्मेदार लोकतंत्न के माथे पर यह बदनुमा दाग नहीं तो और क्या है?

विडंबना यह है कि भारतीय अन्नदाताओं की समग्र तस्वीर से हुकूमत भी बेखबर नहीं है. नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि 2019 में प्रतिदिन 28 किसानों और 89 खेतिहर या दिहाड़ी श्रमिकों ने आत्महत्या की है. आत्महत्या के आंकड़ों में शीर्ष पर पंजाब और हरियाणा के किसान नहीं आते, इसके बाद भी अगर इन राज्यों से किसान आंदोलन मुखर हुआ है तो सीधा अर्थ यही है कि खेती के सरोकारों को लेकर समूचे मुल्क के किसान एक मंच पर खड़े हैं. उन्हें सियासी चश्मे से बांट कर देखने से सरकार का भला हो जाए, लेकिन देश का भला नहीं होने वाला है. अंतत: सरकार को किसान की बात सुननी ही पड़ेगी. 

महात्मा गांधी ने ग्राम स्वराज में 1933 में लिखा था, ‘‘अगर मेरा बस चले तो हमारा गवर्नर जनरल किसान हो, हमारा प्रधानमंत्नी किसान हो, सब कोई किसान होगा. क्योंकि यहां का राजा किसान है. मुङो बचपन में कविता पढ़ाई गई थी- हे किसान! तू बादशाह है. किसान जमीन से अन्न पैदा न करे तो हम खाएंगे क्या? हिंदुस्तान का सच्चा राजा तो वही है. लेकिन आज हम उसे गुलाम बनाकर बैठे हैं. आज किसान क्या करे? एमए पास करे? बीए पास करे? ऐसा उसने किया तो किसान मिट जाएगा. बाद में वह कुदाली नहीं चलाएगा. जो आदमी अपनी जमीन से अन्न पैदा करता है और खाता है, वह यदि जनरल बने, मंत्नी बने तो हिंदुस्तान की शक्ल बदल जाएगी. आज जो सड़ांध फैली हुई है, वह मिट जाएगी.’’

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