आरएसएस के नक्श-ए-कदम पर राहुल गांधी?, कांग्रेस सेवा दल पर फोकस कर रहे कांग्रेस सांसद
By हरीश गुप्ता | Updated: April 17, 2025 05:14 IST2025-04-17T05:14:38+5:302025-04-17T05:14:38+5:30
आखिरकार, सेवा दल की स्थापना भी 1923 में नारायण सुब्बाराव हार्डिकर ने की थी और इसलिए, ‘आरएसएस सेवा दल से दो साल छोटा है.’

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राहुल गांधी का सपना है कि कांग्रेस को फिर से महान बनाया जाए. वह जल्दबाजी में नहीं हैं और पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए दशकों तक काम करने को तैयार हैं क्योंकि वह चाहते हैं कि पार्टी वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध हो. वह चाहते हैं कि कांग्रेस सेवा दल एक कैडर आधारित संगठन हो और भाजपा के आरएसएस को पार्टी का जवाब हो. राहुल गांधी ने अपने शुरुआती दिनों में पार्टी के अग्रणी संगठनों - सेवा दल, भारतीय युवा कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ (एनएसयूआई) का पुनर्गठन करने की कोशिश की. आखिरकार, सेवा दल की स्थापना भी 1923 में नारायण सुब्बाराव हार्डिकर ने की थी और इसलिए, ‘आरएसएस सेवा दल से दो साल छोटा है.’ इसके पहले अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरू थे. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी भी इस पद पर रहे.
राहुल गांधी उसी भावना को पुनर्जीवित करना चाहते हैं. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में सेवा दल ने शायद अपनी जगह खो दी है. पार्टी अब इसे जिला इकाइयों के माध्यम से पुनर्जीवित करना चाहती है ताकि इसके माध्यम से प्रमुख निर्णय लिए जा सकें और कैडर निर्माण को मजबूत किया जा सके. संभावित परिवर्तन उस प्रणाली से जुड़ा है जो 1960 के दशक में एआईसीसी में बदलाव से पहले लागू थी.
कांग्रेस भले ही अपनी राजनीतिक प्रधानता के लिए 750 से अधिक जिला कांग्रेस कमेटी (डीसीसी) को पुनर्जीवित और मजबूत करने का सहारा ले रही हो, लेकिन सबक बड़ी कीमत चुकाकर सीखा गया है. हालांकि, यह कहना आसान है, करना मुश्किल है क्योंकि डीसीसी को शक्ति देने से एआईसीसी से डीसीसी तक शक्ति के केंद्रीकरण की प्रक्रिया उलट जाएगी.
एक समय था जब उम्मीदवारों के चयन में डीसीसी का हुक्म चलता था और कोई भी राष्ट्रीय नेता उनकी सिफारिशों को वीटो नहीं कर सकता था. अब यह एक मृगतृष्णा प्रतीत होती है और हमें 2026 में आने वाले राज्य विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी के नवीनतम गुब्बारे का पहला परीक्षण देखने के लिए इंतजार करना होगा.
माया क्यों कर रहीं बसपा को निष्क्रिय?
राजनीतिक विश्लेषक इस बात से हैरान हैं कि मायावती अपनी ही पार्टी का मृत्युलेख क्यों लिख रही हैं. वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि मायावती बहुजन समाज पार्टी को इसलिए खत्म कर रही हैं क्योंकि उनके भाई आनंद कुमार और पार्टी प्रवर्तन निदेशालय के मामलों का सामना कर रहे हैं. यह व्यापक रूप से माना जाता है कि मायावती बहुत दबाव में हैं क्योंकि उन्हें कथित भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच कर रही ईडी और अन्य केंद्रीय सरकारी एजेंसियों द्वारा कार्रवाई का डर है. लेकिन मायावती के भाई के खिलाफ मामला 2009 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए के शासनकाल में दर्ज किया गया था.
तब से गंगा में बहुत पानी बह चुका है और यह हमेशा की तरह अदालतों में उलझा हुआ है, कई सालों तक किसी ने उनकी कोई सुनवाई नहीं की. यह भी एक रहस्य है कि 2007 में अपने दम पर यूपी जीतने के बाद, 2012 से बसपा का पतन शुरू हो गया और आज पार्टी के पास लोकसभा की एक भी सीट नहीं है और यूपी में एकमात्र विधायक हैं.
यह तर्क दिया जाता है कि वर्ष 2014 से 30 से अधिक विपक्षी नेता भ्रष्टाचार की जांच का सामना कर रहे हैं और कई के भाजपा में शामिल होने के बाद मामले सुलझ गए, कुछ को राहत मिल गई और बाकी अदालतों में अटके हुए हैं. इन 30 राजनेताओं में से 10 कांग्रेस से हैं; एनसीपी और शिवसेना से चार-चार; टीएमसी से तीन; टीडीपी से दो; और सपा, वाईएसआरसीपी और अन्य से एक-एक.
फिर भी, यह समझना मुश्किल है कि आनंद कुमार के खिलाफ ईडी के मामले के कारण, मायावती अपनी पार्टी को निष्क्रियता की ओर बढ़ा रही हैं, दलित मतदाताओं के बीच इस गिरावट को रोकने का कोई प्रयास नहीं कर रही हैं और जानबूझकर इस वोट बैंक को भाजपा के हाथों में जाने दे रही हैं.
जल्दबाजी में निष्कासन और फिर वापसी से उन्होंने यह धारणा और मजबूत कर दी है कि वह पार्टी को पुनर्जीवित करने की इच्छुक नहीं हैं. हालांकि उन्होंने नेताओं को बैठकों में धन इकट्ठा करने से रोक दिया है और रिश्तेदारों को पद देने से मना कर दिया है, फिर भी बसपा की गिरावट जारी है. वह हाशिये पर एक मामूली खिलाड़ी क्यों बनी रहना चाहती हैं? रहस्य बरकरार है.
भाजपा थरूर को लेकर उत्सुक नहीं
कांग्रेस के हाई-प्रोफाइल सांसद शशि थरूर के भविष्य की योजनाओं के बारे में दिए जा रहे बयानों पर आखिरकार राजीव चंद्रशेखर को भाजपा की केरल इकाई का अध्यक्ष नियुक्त किए जाने के साथ विराम लग गया. भाजपा नेतृत्व ने स्पष्ट संकेत दिया कि थरूर की अपनी योजनाएं हो सकती हैं, लेकिन तिरुवनंतपुरम से लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी के उम्मीदवार के रूप में उनका स्वागत नहीं है.
पता चला है कि 2024 में उनसे मामूली अंतर से हारने वाले राजीव चंद्रशेखर 2029 के चुनावों में फिर से चुनाव लड़ेंगे. दूसरे, थरूर की कार्यशैली भाजपा के अपने चरित्र के अनुकूल नहीं है. दूसरी ओर, राहुल गांधी ने हाल ही में एआईसीसी सत्र में थरूर को राजनीतिक प्रस्ताव का समर्थन करने की अनुमति देकर सबको चौंका दिया. ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने उन्हें सही पक्ष में रखने के लिए सचेत प्रयास किया है.
अपनी शैली के अनुरूप, थरूर ने अपनी धुन छेड़ी और पार्टी से नकारात्मकता से दूर रहने का आह्वान किया, यह संकेत देते हुए कि मोदी सरकार के खिलाफ पार्टी का कड़ा अभियान काम नहीं कर रहा है. थरूर चाहते थे कि पार्टी युवाओं और देश को भविष्य और उम्मीद की पार्टी के रूप में संदेश दे. यह साफ है कि राहुल गांधी केरल में विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी में दरार नहीं चाहते.
और अंत में
क्या आप जानते हैं कि बिहार में भाजपा के कितने प्रवक्ता हैं? इस आंकड़े पर यकीन करना ही होगा. बिहार में भाजपा के 101 प्रवक्ता हैं, जहां इस साल के अंत में चुनाव होने हैं. यह संख्या बढ़ भी सकती है क्योंकि पार्टी किसी गुट या जाति को नाराज नहीं करना चाहती. यह अलग बात है कि इतने सारे प्रवक्ता होने से नुकसान ही हुआ है क्योंकि वे आपस में ही झगड़ते रहते हैं. वरिष्ठ भाजपा नेता इस बात से चिंतित हैं कि ‘बहुत सारे रसोइये शोरबा बिगाड़ देते हैं’.






