आस्था बनाम संवैधानिक नैतिकता का सवाल
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: November 11, 2018 01:12 AM2018-11-11T01:12:53+5:302018-11-11T01:12:53+5:30
ट्रैफिक पुलिस का एक अदना सा सिपाही चौराहे पर हाथ उठाकर बड़ी-बड़ी गाड़ियां रोक देता है. उसे यह शक्ति कानून देता है.
(लेखक-एन. के. सिंह )
ट्रैफिक पुलिस का एक अदना सा सिपाही चौराहे पर हाथ उठाकर बड़ी-बड़ी गाड़ियां रोक देता है. उसे यह शक्ति कानून देता है. देश में प्रति 740 लोगों पर मात्न एक पुलिसवाला है. इसीलिए जुमला है कि सरकार इकबाल से चलती है. सुप्रीम कोर्ट के पास भी अपने आदेशों और फैसलों को मनवाने के लिए कोई एजेंसी नहीं होती. संवैधानिक व्यवस्था के तहत आदेशों का अनुपालन सरकार के हाथ में होता है. कोई सरकार अगर यह कह दे ‘जाओ, नहीं करेंगे’ तो फिर क्या होगा? जो अवमानना का आदेश अदालत द्वारा होगा उसका भी अनुपालन सरकार को ही करना होता है.
अब एक दूसरी स्थिति देखें. अगर अदालत कोई आदेश देती है और जनता उसे नजरंदाज करते हुए अपने मन के हिसाब से करती है और सरकार (या सत्ताधारी दल के नेता) सख्ती तो छोड़िए, जनता को इसके लिए समर्थन देती है तो फिर इस व्यवस्था को ढहने से कौन रोक सकता है? हाल की दो घटनाएं लें. सुप्रीम कोर्ट ने प्रदूषण की खतरनाक स्थिति देखते हुए देश की राजधानी दिल्ली में दीपावली पर पटाखे न जलाने के या मात्न शाम के दो घंटे और वह भी ‘हरित पटाखे’ जलाने के आदेश दिए. इस पर्व को राम की रावण पर या अच्छाई की बुराई पर जीत के रूप में हर्ष प्रदर्शन के लिए आतिशबाजी की परंपरा के साथ मनाया जाता रहा है.
यानी आस्था का प्रश्न है. यह आस्था या परंपरा तब बनी होगी जब दिल्ली की आबादी इतनी नहीं थी, गगनचुंबी इमारतें नहीं बनी थीं. आज देश की राजधानी एक गैस चेंबर सी बन गई है. दिवाली के अगले दिन प्रदूषण के आंकड़े कुछ जगहों पर 1800 माइक्रॉन अर्थात मानदंडों से 30 गुना ज्यादा रहे. यह स्थिति सांस की बीमारी ही नहीं मौत की दावत साबित हो सकती है. लेकिन पुलिस मूकदर्शक के रूप में खड़ी रही और आस्था जीतती रही. भले ही इस जीत में आस्थावानों की मौत का बुलावा भी रहा. बुराई पर बुराई की जीत में बदल गई दीपावली.
इसके कुछ ही दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने ‘संवैधानिक नैतिकता’ का सिद्धांत प्रतिपादित किया (हालांकि यह पहले से भी प्रजातंत्न के मूल तत्वों में रहा है), जब उसके सामने सबरीमला का मामला आया. इस मामले में आस्था और परंपरा कहती है कि रजस्वला की उम्र वाली महिलाओं का मंदिर में जाना (यानी 10 साल से 50 साल तक की आयु) वर्जित है. उधर संविधान के अनुच्छेद 14 में ‘ विधि के समक्ष समानता’ को मौलिक अधिकार में रखा गया है. अब अगर मान लें कि हजार साल पहले कोई परंपरा बनी और आस्था बनकर संस्था के रूप में विकसित हो गई (मसलन दक्षिण भारत के एक समुदाय में सैकड़ों शिशुओं को एक पहाड़ी पर बने मंदिर से नीचे फेंका जाता है जहां कुछ लोग चादर लेकर उन्हें रोकते हैं. अक्सर कई बच्चों की मौत हो जाती है) तो क्या आज हमें उसे जारी रखना चाहिए?
सुप्रीम कोर्ट जब ट्रिपल तलाक की प्रथा खत्म करने के आदेश देता है तो जो वर्ग स्वागत करता है वही सबरीमला में आस्था से छेड़खानी न करने की चेतावनी देता है. ऐसे में जब देश के सर्वोच्च न्यायालय के सामने यह प्रश्न आता है कि दलित को मंदिर में जाने का अधिकार है कि नहीं, या महिलाएं शारीरिक कारणों से क्यों मंदिर में दर्शन से अपने जीवन के 40 साल वंचित रखी जाएं या मेले में जानवरों के साथ ज्यादती (जल्ली-कट्टू) को धर्म का अभिन्न अंग और आस्था का प्रश्न बना कर समाज मूक दर्शक बना रहे तो कैसे वह अदालत हाथ पर हाथ धरे बैठी रहे? उस पर देश के एक बड़े राजनीतिक वर्ग की यह चेतावनी कि ‘सर्वोच्च न्यायालय आस्था के साथ छेड़खानी न करे’ यही दिखाती है कि हम आदिम सभ्यता की ओर फिर मुड़ रहे हैं.
यहां एक समस्या और भी है. अगर एक वर्ग की आस्था दूसरे वर्ग की आस्था से टकरा रही है तो समाज, संविधान और उसकी संस्थाएं क्या चुपचाप देखती रहें और दोनों वर्ग एक दूसरे के खून के प्यासे बने रहें? हम अक्सर देखते हैं कि पुलिस के लिए एक भारी समस्या बन जाती है जब दो समुदायों के त्यौहार एक ही दिन पड़ते हैं और दोनों एक ही सड़क से, एक ही समय जुलूस निकालने की जिद पर अड़े रहते हैं. कुछ ही माह पहले बिहार में इस मामले में तीन जगह दंगे हो चुके हैं. अगर सुप्रीम कोर्ट को आस्था से ‘छेड़-छाड़’ नहीं करना चाहिए तो फिर पुलिस को भी यह अधिकार नहीं है. तब सोचिए देश में शांति की क्या हालत होगी? दरअसल, भारतीय समाज में इस बात की शिक्षा पाठ्यक्र म में दी जानी चाहिए कि पहली आस्था संविधान पर होनी चाहिए और कभी भी अगर धार्मिक आस्था और संवैधानिक व्यवस्था के बीच, अर्थात अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 25 (अंत:करण, धर्म के आचरण, प्रचार और प्रसार की स्वतंत्नता) में टकराव हो तो सम्मानपूर्वक व्यक्तिगत स्वतंत्नता को व्यापक समाज की स्वतंत्नता के आगे समर्पित कर देना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने यही सिद्धांत सबरीमला के मामले में प्रतिपादित किया है.