पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: कल्याणकारी राजनीति पर जनता की मुहर

By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: February 12, 2020 06:02 PM2020-02-12T18:02:22+5:302020-02-12T18:02:22+5:30

Punya Prasun Vajpayee's blog: Public seal on welfare politics | पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: कल्याणकारी राजनीति पर जनता की मुहर

मनीष सिसोदिया के ट्विटर से साभार.

Highlightsहार के बाद क्या कोई कह सकता है कि मोदी की राजनीति की मियाद भी पूरी हो गई क्योंकि भाजपा के हार की कई तस्वीरें हैं, जिसमें सबसे बड़ी तस्वीर मोदी का कद भाजपा से बड़ा होना है. अगर केजरीवाल को डिगा नहीं सका तो इसका मतलब साफ है कि शिक्षा, स्कूल, अस्पताल, पानी, बिजली पर दिल्ली के खजाने से रुपए लुटाने में कोई कोताही न बरतने का लाभ ही केजरीवाल को मिला.

दिल्ली विधानसभा के चुनाव में जनादेश देश की राजनीति को बदलने की ताकत के साथ उभरा है! ध्यान दें तो दिल्ली में जाति या धर्म ही नहीं बल्कि अमीर-गरीब के बीच भी केजरीवाल सेतु बन गए. झोपड़पट्टी बहुल 14 सीटें हों या रईस और सरकारी बाबुओं की कॉलोनी समेटी 11 सीटें, या फिर मिडिल क्लास और छोटे व्यापारियों की बहुसंख्यक वोटरों वाली 17 सीटें, सभी जगह केजरीवाल का जादू चला.

दिल्ली में केजरीवाल की जीत वैकल्पिक राजनीति से कहीं ज्यादा वैकल्पिक इकोनॉमी की जीत है. एक तरफ राष्ट्रवाद की चादर ओढ़े मोदी की राजनीति तो दूसरी तरफ कल्याणकारी योजनाओं तले केजरीवाल की अर्थव्यवस्था. जिस दौर में मोदी निजीकरण को ही जीडीपी से लेकर रोजगार और औद्योगिक विकास से लेकर बाजार के लिए महत्वपूर्ण मान चुके हैं, तब केजरीवाल ने वेलफेयर स्टेट का मतलब क्या होता है, ये अमल में लाना शुरू किया.

जाहिर है ये सोच जितने सरोकारों के साथ आम लोगों से दिल्ली में जुड़ी उसने एक झटके में केजरीवाल की साख बनाम मोदी की साख की प्रतिद्वंद्विता खड़ी कर दी. एक तरफ मोदी के वादे थे तो दूसरी तरफ केजरीवाल सरकार के कार्य. वोटरों से संकेत यही उभरा कि दिल्ली के चुनाव परिणाम अब न सिर्फ भाजपा बल्कि तमाम क्षत्रपों के सामने चुनौती है कि वह कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को दुबारा अपना लें. साथ ही समानांतर सवाल ये भी है कि केजरीवाल की जीत बीते छह बरस से मोदी की उस सियासी लकीर का अंत है जिसमें धार्मिक ध्रुवीकरण ही राजनीति का केंद्र बिंदु बन गया है. संदेश साफ है कि ध्रुवीकरण की राजनीति देश में अनंतकाल तक चल नहीं सकती है. क्या दिल्ली का जनादेश वाकई देश की राजनीति को बदलने की ताकत के साथ उभरा है और अब मोदी-शाह की सत्ता को भाजपा के भीतर से चुनौती मिल सकती है. या संघ परिवार के भीतर कोई कुलबुलाहट मोदी सत्ता को लेकर दिखाई दे सकती है. जाहिर है ये सारे सवाल हैं जिसने वैकल्पिक इकॉनॉमी के तीन सवाल को चाहे-अनचाहे जन्म दे दिए हैं- पहला, राष्ट्रवाद की सियासी परिभाषा तभी मान्य होगी जब अर्थशास्त्र अनुकूल हो. दूसरा, कॉर्पोरेट घरानों को लाभ देते हुए बाकियों को खामोश करने से अर्थव्यवस्था पटरी पर आएगी नहीं. तीसरा, बैंकिंग सेक्टर को  सरकारी योजनाओं में फंसाकर सार्वजनिक उपक्रम को कौड़ियों के मोल बेचने की सोच से भी अर्थव्यवस्था पटरी पर आएगी नहीं. यहीं से दिल्ली के फैसले के बाद की राजनीतिक लकीर शुरू होती है जिस पर अभी तक मोदी सरकार आंखें मूंदे रही या कहें केजरीवाल ने इसी शून्यता के बीच सरकारी स्कूल और मोहल्ला क्लिनिक का प्रयोग कर राजनीति की अपनी लकीर कहीं बड़ी खींच दी.

ध्यान दें तो दिल्ली में जाति या धर्म ही नहीं बल्कि अमीर-गरीब के बीच भी केजरीवाल सेतु बन गए. झोपड़पट्टी बहुल 14 सीटें हों या रईस और सरकारी बाबुओं की कॉलोनी समेटी 11 सीटें, या फिर मिडिल क्लास और छोटे व्यापारियों की बहुसंख्यक वोटरों वाली 17 सीटें, सभी जगह केजरीवाल का जादू चला. मुस्लिम बहुल इलाकों की 9 सीटों पर भी केजरीवाल का असर रहा. बिहार-उ.प्र.-बंगाल-झारखंड से दिल्ली में रोजगार की तलाश में पहुंचने वाले पूरबिया वोटर वाली 19 सीटों पर भी आम आदमी पार्टी का असर रहा. यानी राजनीति की जो बिसात शाहीन बाग के नाम पर हिंदू वोटरों को अलग करती. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अमित शाह के साथ खड़े होकर चुनावी रैलियां करने पर पूरबिया वोटरों को बांट देती या दर्जनभर कैबिनेट मंत्रियों के साथ पांच राज्यों के सीएम और सैकड़ों सांसदों का दिल्ली की गलियों में घूमना भी अगर केजरीवाल को डिगा नहीं सका तो इसका मतलब साफ है कि शिक्षा, स्कूल, अस्पताल, पानी, बिजली पर दिल्ली के खजाने से रुपए लुटाने में कोई कोताही न बरतने का लाभ ही केजरीवाल को मिला.

यहीं से सबसे बड़ा सवाल खड़ा होता है कि क्या वाकई टैक्स पेयर का पैसा भाजपा शासित राज्य या दूसरे क्षत्रप अपनी सुविधाओं में उड़ा देते हैं. दिल्ली के बजट में जितना पैसा शिक्षा, हेल्थ, बिजली, पानी पर खर्च का दिखाया गया, वही खर्च किया गया. इन सारी योजनाओं को सरकारी स्तर पर पूरा किया गया. यानी प्राइवेट सेक्टर के सामने प्रतिस्पर्धा करते हुए दिल्ली सरकार आगे निकली जबकि केंद्र सरकार की ही नीतियों को परखें तो तमाम सार्वजनिक उपक्रम ही नहीं बल्कि तमाम विदेशी आर्थिक समझौतों में भी कॉर्पोरेट को ही ज्यादा भागीदारी दी गई  इसीलिए देश की जीडीपी जिस दौर में सबसे नीचे आ गई, उस दौर में सरकार के कॉर्पोरेट मित्रों के टर्न-ओवर में सबसे ज्यादा बढ़े और मुनाफा सबसे ज्यादा हुआ. तो क्या जनता की ऐवज में कॉर्पोरेट को लाभ हुआ या फिर मोदी राजनीति के तौर-तरीकों ने जन-सरोकारों को छोड़ा और केजरीवाल ने राजनीति के सरोकारों को कल्याणकारी योजनाओं के जरिए साधा.  

हार के बाद क्या कोई कह सकता है कि मोदी की राजनीति की मियाद भी पूरी हो गई क्योंकि भाजपा के हार की कई तस्वीरें हैं, जिसमें सबसे बड़ी तस्वीर मोदी का कद भाजपा से बड़ा होना है. क्षत्रपों की उपयोगिता भी मोदी-शाह के पसंद-नापसंद पर है. फिर भाजपा के अध्यक्ष जेपी नड्डा हैं लेकिन दिल्ली की बिसात अमित शाह ही बिछाते रहे. हर्षवर्धन या विजय गोयल को दरकिनार कर मनोज तिवारी को तरजीह दी. शाहीन बाग का प्रयोग खुले तौर पर वोटों के ध्रुवीकरण के लिए मोदी-शाह ने किया. अराजक राजनीति करने से वित्त राज्यमंत्री अनुराग सिंह ठाकुर और दिल्ली के सांसद प्रवेश वर्मा तक नहीं चूके. जो कि युवा हैं और दोनों ही पूर्व मुख्यमंत्रियों के बेटे हैं तो संकेत साफ है जो भाजपा शहरी पार्टी है, व्यापारियों की पार्टी है, हिंदुओं की पार्टी है. वही इन्हीं अपनों के बीच धराशायी हुई है जो कि उसके भविष्य की राजनीति के लिए खतरे की घंटी है.

Web Title: Punya Prasun Vajpayee's blog: Public seal on welfare politics

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