पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: क्या छात्र आंदोलन की जमीन तैयार हो चली है?

By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: December 20, 2019 08:42 AM2019-12-20T08:42:30+5:302019-12-20T08:42:30+5:30

क्या पहली बार छात्न उन सारे मुद्दों को उठाने के लिए तैयार हो रहा है जो मुद्दे कमोबेश हर समुदाय विशेष से जुड़े हैं लेकिन एक तरफ राजनीतिक शून्यता तो दूसरी तरफ कॉलेज-यूनिवर्सिटी में छात्नसंघ चुनाव न होने की स्थिति में वह खामोश रहा.

Punya Prasun Vajpayee blog: Is the ground of student movement ready? | पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: क्या छात्र आंदोलन की जमीन तैयार हो चली है?

पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: क्या छात्र आंदोलन की जमीन तैयार हो चली है?

भारत 21 वीं सदी में सबसे बड़े छात्न आंदोलन की दिशा में बढ़ रहा है? क्या नागरिकता का सवाल छात्न आंदोलन की एक ऐसी जमीन तैयार कर रहा है जो राजनीतिक सत्ता को चुनौती देने लगी है? क्या देश की बिगड़ती इकोनॉमी ने शिक्षा से लेकर रोजगार तक के ऐसे सवालों को जन्म दे दिया है जिसमें छात्न अपने वजूद के ही खत्म होने की परिस्थितियां देख रहा है.

क्या पहली बार छात्न उन सारे मुद्दों को उठाने के लिए तैयार हो रहा है जो मुद्दे कमोबेश हर समुदाय विशेष से जुड़े हैं लेकिन एक तरफ राजनीतिक शून्यता तो दूसरी तरफ कॉलेज-यूनिवर्सिटी में छात्नसंघ चुनाव न होने की स्थिति में वह खामोश रहा. या फिर नागरिकता के सवाल ने अर्से बाद छात्नों के हाथों में आंदोलन की वह ट्रिगर थमा दी है जो सामाजिक-राजनीतिक अंतर्विरोध तले अभी तक दब जाती थी.

कभी जाति तो कभी धर्म की राजनीति छात्नों को खेमों में बांट देती थी. पर नागरिकता का सवाल सीधे संविधान की आत्मा से जुड़ा है तो खेमे टूट रहे हैं. और जेएनयू, जामिया, बीएचयू, इलाहबाद, उस्मानिया, एएमयू, जाधवपुर सरीखे दर्जनों विश्वविद्यालयों के भीतर छात्नों के सवाल अब जिस तरह उठ रहे हैं उसमें ये कहना या सोचना गलत होगा कि सवाल सिर्फनागरिकता संशोधन अधिनियम या सिटिजन रजिस्टर का है. या फिर मसला सिर्फ मुस्लिमों से जुड़ा है.

दरअसल भारत पहली बार उन परिस्थितियों से गुजर रहा है जहां संसद की ताकत संविधान और लोकतंत्न को भी अपने तरीके से परिभाषित करते हुए संविधान और लोकतंत्न की दुहाई देने से नहीं हिचक रही है.

तो समझना जरूरी है कि आखिर जामिया यूनिवर्सिटी में पुलिस के घुस कर लाठी बरसाने को शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे भी जालियांवाला बाग से क्यों जोड़ रहे हैं. संसद की मुहर लगने के बाद भी छह राज्य नागरिकता संशोधन अधिनियम लागू करने से इंकार क्यों कर रहे हैं.

फिर 1985 में हुए असम आंदोलन में छात्न अगर संस्कृति और भाषा को अपने वजूद से जोड़ कर आंदोलन करने उतरे थे और 861 आंदोलनकारियों को खोने के बाद उन्हें असम समझौता मिला तो 2019 में असम आंदोलन से जुड़े छात्नों का मिजाज अपने राजनीतिक हक को न गंवाने देने के लिए भी संघर्ष कर रहा है और राजनीतिक सत्ता से प्रभावित होती छात्नों की जिंदगी से जुड़े मुद्दों को भी अब अपनी राजनीतिक ताकत तले पाने की ललक आंदोलन कर रहे छात्नों की आंखों में है.

संघर्ष की यह ललक देशभर के छात्नों के साथ उनके अपने दायरे में कैसे अलग-अलग तरीके से उभर रही है ये बेरोजगारी से भी समझा जा सकता है और आर्थिक मोर्चे पर सरकार के फेल होने के बाद कमोबेश हर सेक्टर में छिनती नौकरियों से भी जाना जा सकता है.

छात्नों के भीतर का आक्रोश जेएनयू और आईआईएमसी में फीस बढ़ोत्तरी के आंदोलन से भी जाना जा सकता है और नई शिक्षा नीति के जरिए शिक्षा के निजीकरण की तरफ बढ़ते कदम से भी जाना जा सकता है. जहां शिक्षा उन्हीं के लिए होगी जिनकी जेब शिक्षा को खरीद पाने लायक होगी. यानी शिक्षा महंगी हो रही है.

दूसरी तरफ शिक्षा के लिए सरकार के पास बजट नहीं है. हालात इतने बुरे हैं कि घोषित बजट में भी तीन हजार करोड़ की कटौती की गई. उच्च शिक्षा व यूनिवर्सिटी के लिए सरकार के पास पूंजी नहीं है. उच्च शिक्षा का स्तर गर्त में जा रहा है. रोजगार मिल नहीं रहे हैं. जो नियुक्तियां हो भी रही हैं वह सत्ता से प्रभावित हैं.

यानी सवाल कई हैं और इस दौर में तमाम सवालों से दो-दो हाथ करने की स्थिति में छात्न तब सामने आ रहे हैं जब राजनीतिक वैचारिक शून्यता चरम पर है. सत्ता ने विपक्ष को इस तरह सिमटा दिया है कि संसदीय राजनीति भी शून्यता के दौर में जा फंसी है. संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका सत्तानुकूल है. और सत्ता भी चंद हथेलियों में कैद है.

तो क्या यह शून्यता ही छात्न आंदोलन की जमीन तैयार कर रही है. और अगर ऐसा हो रहा है तो समझना ये भी होगा कि पहली बार छात्न संघर्ष पारंपरिक छात्न राजनीति को नकार चुका है. छात्न स्वत:स्फूर्त निकले हैं. कोई सांगठनिक ताकत के तौर पर उनकी मौजूदगी नहीं है. पुरानी युवा लीडरशिप खत्म हो चुकी है.

अब छात्न नेतृत्व के संघर्ष में नहीं फंस रहे हैं बल्कि वह खुद को नए तरीके से संघर्ष को व्यापक बनाने का ऐलान उस सोशल मीडिया के जरिए कर रहे हैं जिसकी ताकत का एहसास पारंपरिक नेताओं ने नहीं समझा.

सबसे युवा भारत का सच यह  भी है कि करीब चार करोड़ छात्न कॉलेज-विश्वविद्यालय में हैं. 18 से 23 बरस के छात्नों की तादाद 70 फीसदी है. देश भर की 799 यूनिवर्सिटी हों या 39071 कॉलेज या फिर 11 हजार से ज्यादा वैसे सरकारी शिक्षा संस्थान जहां छात्नों का नामांकन सिर्फ डिग्री पाने के लिए होता है.

वहां पढ़ रहे छात्नों के सामने यह संकट है कि डिग्री हासिल करने के बाद रोजगार कहां मिलेगा. स्व रोजगार के लिए शुरू की गई मुद्रा योजना का सच भी यही है कि बीते तीन साल (2017-2019) में करीब 28 हजार करोड़ रुपए एनपीए खाते में चले गए. यानी दुनिया की सबसे बड़ी शिक्षा प्रणाली से निकलने वाले छात्न भारत में ही सबसे ज्यादा बेरोजगार हैं.

Web Title: Punya Prasun Vajpayee blog: Is the ground of student movement ready?

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