पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: जिम्मेदारीपूर्ण लोकतंत्र का पैमाना क्या हो?

By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: March 12, 2019 01:22 PM2019-03-12T13:22:10+5:302019-03-12T13:22:10+5:30

देश में कुल सरकारी नौकरी 1,72,71,000 है.  संसद से लेकर गांव के मुखिया तक के पास जितने पावर हैं जितना बजट है, जितनी सुविधा है और उनके मातहत काम करने वाले देश में सरकारी नौकरियों में जितनी नियुक्तियां हैं

Punya Prasoon Vajpayee blog: What is the scale of responsible democracy? | पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: जिम्मेदारीपूर्ण लोकतंत्र का पैमाना क्या हो?

पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: जिम्मेदारीपूर्ण लोकतंत्र का पैमाना क्या हो?

जब देश की राजनीति चुनाव को देखते हुए ऐसे हालात पैदा कर दे कि जवान भी इस उलझन में आ जाए कि उसकी शहादत देश के लिए है या सरकार के लिए, या फिर किसी वोटर को लगने लगे कि उसके वोट को कोई सत्ता पाने के लिए इस्तेमाल करता है और सत्ता में आने के बाद वादे पूरा नहीं करता या फिर मीडिया भी डर को कम करने की बजाय डराने लगे और तथ्यों कोपरखने के बजाय उस रेटिंग को देखने लगे तब क्या वाकई यह सवाल किया जा सकता है कि देश के चुनाव में सिमटे लोकतंत्न का मतलब है सिर्फ सियासत को लाभ हो.

फिर देश का सच क्या है जरा इसे समङों. संसद से गांव तक चुने हुए नेताओं की संख्या 3,38,905 है. देश में कुल सरकारी नौकरी 1,72,71,000 है.  संसद से लेकर गांव के मुखिया तक के पास जितने पावर हैं जितना बजट है, जितनी सुविधा है और उनके मातहत काम करने वाले देश में सरकारी नौकरियों में जितनी नियुक्तियां हैं वह दोनों संख्या मिला भी दीजिएगा तो भी दो करोड़ तक ही पहुंच पाएंगे और अगर चुने हुए नुमाइंदे यह कहें कि प्राइवेट क्षेत्न को भी तो विकसित सरकारी नीतियों से ही किया गया है तो फिर प्राइवेट क्षेत्न को संभाले कॉर्पोरेट, उद्योगपति, बिजनेसमैन की तादाद और उनके मातहत काम करने वालों को जोड़ दें तो ये संख्या भी दो करोड़ पार नहीं करती.  

सबसे बड़ा सवाल यही है कि 130 करोड़ के देश को चार करोड़ लोग चला रहे हैं या फिर सिर्फ चार करोड़ लोगों की जिंदगी ही सिस्टम से चलती है. यानी असंगठित क्षेत्न में न्यूनतम रोजगार जो सरकार ने तय किया वह मिलता नहीं. जहां 45 करोड़ लोग काम करते हैं. 12 करोड़ किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पाता. फिर जब देश के 80 करोड़ से ज्यादा वोटरों के सामने सरकार बनाने के लिए चुनावी लोकतंत्न होता है तो फिर उसी लोकतंत्न के तहत सरकार सभी वोटरों के लिए आसान जिंदगी मुहैया क्यों नहीं करा पाती है. 

इसी तरह शिक्षा, हेल्थ, घर और सुरक्षा को लेकर भी जनता सरकार की तरफ क्यों देखे. सरकार का शिक्षा बजट 93,000 करोड़ का है तो शिक्षा में निजी क्षेत्न का बजट 7,80,000 करोड़ का है. हेल्थ सर्विस का सरकारी बजट 49,878 करोड़ का है, जबकि प्राइवेट हेल्थ सर्विस का बजट साढ़े छह लाख करोड़ का है जो 2020 तक 18 लाख करोड़ का हो जाएगा. तो फिर सरकारी स्वास्थ्य सिस्टम का मतलब बचा क्या.  इसी तरह घरों को लेकर भी हालात को समङों तो प्रधानमंत्नी आवास योजना के तहत 2022 तक 4 करोड़ 30 लाख घर बनाने का लक्ष्य रखा गया लेकिन बीते चार बरस में दो लाख सरकारी घर भी नहीं बने.

सरकार अगर जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ कर प्राइवेट सेक्टर पर टिक जाए और वोट की नीतियों से अगर निजी क्षेत्न में भी नौकरी खत्म होने लगे तो फिर एंबिट कैपिटल की नई रिसर्च रिपोर्ट को समझना चाहिए जो कहती है कि देश में बढ़ती बेरोजगारी से न केवल असमानता बढ़ेगी बल्किअपराधों और सामाजिक तनाव में भी वृद्धि हो सकती है.

Web Title: Punya Prasoon Vajpayee blog: What is the scale of responsible democracy?