आखिर क्यों इस देश में 'बेटी बचाओ' जैसे कैंपेन की ज़रुरत पड़ रही है?
By मोहित सिंह | Published: June 28, 2018 11:50 AM2018-06-28T11:50:32+5:302018-06-28T11:50:32+5:30
सेव टाइगर्स और सेव एनवायरमेंट जैसे कैंपेन तक तो ठीक था आखिर ऐसा क्या हुआ देवी पूजने वाले इस देश में कि 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' जैसे कैंपेन की ज़रुरत पड़ रही है.
ग्लोबल एक्सपर्ट्स के अनुसार महिलाओं के लिए भारत दुनिया का सबसे खतरनाक देश है। यह रिपोर्ट 26 जून को जारी की गयी है जिसमें कहा गया है कि महिलाओं के खिलाफ यौन अपराध और जबरन उनसे काम करवाए जाने में भारत विश्वभर में सबसे आगे है.
अभी इस रिपोर्ट को आये महज दो दिन हुए है कि आज सुबह खबर मिली, मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में एक आठ साल की बच्ची का रेप करके उसका गला काट दिया गया. आसिफा गैंगरेप इस देश पर एक बड़े कलंक की तरह से दर्ज हो गया है, उन्नाव रेप केस ने भी पूरे देश में हलचल मचा रखा था, जहां अपने रेप के खिलाफ आवाज़ उठाने पर पीड़िता के पिता को मौत की सज़ा मिली।
ना जाने, कितने ही जाने - अनजाने केस जो महिलाओं और बेटियों के खिलाफ होते आ रहे अत्याचार के गवाह हैं. देश में पनप रहे इस रेप कल्चर का सबसे बड़ा कारण पुरुष समाज और इसकी औरतों के प्रति मानसिकता है. हमारे देश में हमेशा से महिलाओं को पुरुषों से कमतर आंका गया है. भारतीय महिला घर की चहार दीवारी में रहने वाली एक ऐसी भोग की वस्तु की तरह देखी जाती रही है जिसका अस्तित्व सिर्फ परिवार को पालने, वंश को आगे बढ़ाने और पुरुष के यौन लालसा को पूरा करने में है.
एक बेटी जब पैदा होती है तो एक नयी पीढ़ी का जन्म होता है. यही बेटी आगे चल कर एक नए समाज का सृजन करती है. लेकिन वह समाज कैसा होगा इसका निर्णय हमेशा एक पुरुष करता है एक महिला नहीं। यहाँ तक भी ठीक था, लेकिन भविष्य के सामाज की एक जननी को पैदा होने से पहले ही कोख में मार दिया जाता है. इस हद तक कि सरकार को भ्रूण निरीक्षण के खिलाफ कानून पारित करना पड़ता है. जो बेटियां कोख में मरने से बच जाती हैं उनके पैदा होने पर घर भर में मातम छा जाता है.
पैदा होने से लेकर मृत्यु तक एक बेटी, एक महिला को उनके नारी होने का अहसास हर मोड़ पर कराया जाता है. क्यों होश सँभालने के बाद से ही उनका एक फिक्स टाइम टेबल बना दिया जाता है - घर से बाहर कितना देर रहना है, घर कितने बजे तक वापस आ जाना है, क्या पहनना है, कितना अंग दिखना है और ना जाने क्या - क्या। एक पुरुष होने के कारण कभी मुझे ऐसे शेड्यूल का सामना नहीं करना पड़ा. घर का बेटा है तो उसको तो हर जुर्म माफ़ है, वह कभी भी आ जा सकता है, कुछ भी पहन सकता है कुछ भी कर सकता है. माफ़ कीजियेगा, ऐसा दोहरा व्यवहार ज्यादातर माँओ को ही करते देखा गया है. अब यह एक माँ का खौफ है या जो उन्होंने बचपन से देखा सीखा उसी परम्परा को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी, यह नहीं पता.
एक बेटी जब घर से बाहर निकलती है तो उसकी सुरक्षा भी एक आईना है इस समाज की मानसिकता का. आखिर क्यों इस देश में बेटियों के माता - पिता उनकी सुरक्षा को लेकर चिंतित रहते हैं? क्यों उनको कही भी सुरक्षित आने जाने की स्वक्षन्दता नहीं मिलती। क्यों उनको लेने और छोड़ने के लिए घर का एक पुरुष हमेशा तैनात रहता है चाहे वो स्कूल - कॉलेज जाना हो या किसी दोस्त के घर? क्यों माँ - बाप को हमेशा बेटियों को लेकर एक डर रहता है कि सही सलामत घर पहुंच जायें या घर की इज़्ज़त समाज में ख़राब ना कर दें. ऐसा कोई भी डर उनमें बेटों को लेकर कभी नहीं होता है.
इस देश में तो अब नाबालिक बच्चियां भी सुरक्षित नहीं रह गयी हैं. 2016 में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के एक सर्वे में यह दावा किया गया था कि 2015 की तुलना में उस साल 82% ज्यादा रेप केसेज़ दर्ज किये गए हैं और 95% रेप केस में घर के ही पुरुष, रिश्तेदार या पारिवारिक मित्र शामिल रहे हैं. जिस देश में बच्चियां अपने घर में ही सुरक्षित ना हो, वह पर 'बेटी-बचाओ' कैंपेन चलना तो बेहद ज़रूरी है.
घर से बाहर निकलते ही इन बेटियों को घटिया फब्तियों के बाण झेलने पड़ते हैं, कहीं आवारा लड़के पीछे पड़े होते हैं और मना करने पर चेहरे पर ऐसिड फेंक देते हैं तो कहीं विकृत मानसिकता के लोग उनको देखकर सरेआम हस्तमैथुन करना शुरू कर देते हैं. और अगर कोई लड़की इन सब परेशानियों को झेलते हुए समाज के बनाये नियम के उलट अपनी ज़िन्दगी जीना शुरू करती है तो समाज उसके चरित्र का आंकलन करना शुरू कर देता है.
सरकार को 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' या 'बेटी पढ़ाओ-बेटी बढ़ाओ' कैंपेन की बजाय 'बेटी - बचाओ' कैंपेन पर ही फोकस करना चाहिए क्यूंकि पढ़ने और बढ़ने से पहले उनका बचना ज़रूरी है - घर में और घर के बाहर.