ब्लॉगः खून या तो युद्ध में बहता है या 'संघर्ष' में, पीरियड्स पर एक लड़के की सोच
By कोमल बड़ोदेकर | Published: February 6, 2018 07:22 PM2018-02-06T19:22:21+5:302018-02-06T20:15:41+5:30
एक रूढ़िवादी प्रथा आज भी वैसी ही चल रही है जैसी सदियों पहले या 50 साल पहले तक होती थी, जिसे हम मासिक धर्म, डाउन होना या पीरियड्स के रूप में जानते हैं।
एक समय था जब भारत में कई रूढ़िवादी मान्यताएं थीं जो समय के साथ खत्म हो गईं। इनमें सती प्रथा, महिलाओं का घूंघट, दहेज प्रथा, बाल विवाह, भ्रूण हत्या, रंगभेद और जातिवाद जैसी कई कुरीतियां शामिल हैं। हालांकि सती प्रथा को छोड़ दें तो ये प्रथाएं अघोषित रूप से भारत के किसी कोने में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में आज भी चल रही हैं, लेकिन यह जानकर हैरानी होगी कि एक रूढ़िवादी प्रथा आज भी वैसी ही चल रही है जैसी सदियों पहले या 50 साल पहले तक होती थी, जिसे हम मासिक धर्म, कुछ दिनों के लिए महिलाओं-लड़कियों का मंदिरों और रसोई में प्रवेश निषेध, 5 दिन तक बाल न धोना, डाउन होना या पीरियड्स के रूप में जानते हैं।
ये यौन समस्याओं या गुप्त रोग की तरह, एक ऐसा मुद्दा है जिस पर लोग खुलकर बोलने से बचते हैं, लेकिन अक्षय कुमार की अपकमिंग फिल्म 'पैडमैन' ने इस मुद्दे पर लोगों की सोच को बदलने में काफी सकारात्मक भूमिका निभाई है। मेरी भी सोच बदली है। इस हद तक कि मैं इस मुद्दे पर लिख रहा हूं। धीरे-धीरे ही सही लोगों को पता चल रहा है कि यह समस्या नहीं बल्कि एक नेचुरल प्रोसेस है।
मुझे नहीं पता कि 'उन दिनों' की पीड़ा क्या होती है, हां लेकिन इतना जरूर पता है कि खून या तो संघर्ष के दौरान बहता है या युद्ध के दौरान। हर महीने एक महिला भी अपने आप से 4-5 दिन तक 'द्वंद' करती है। रक्त पात भी होता है, लेकिन वह निरंतर (पद्मावत में बताई गई राजपूत की गौरवगाथा के मुताबिक 'सर कट जाए लेकिन धड़ दुश्मनों से लड़ता रहे') 'संघर्ष' करती है। अपने घरवालों से सास से, पति से परिवार से पड़ोसियों और समाज से। लेकिन सबसे ज्यादा संघर्ष करती है वह अपने आप से। बिना विरोध किए ही वह चुपचाप संघर्ष करती है। चलते हुए। सामान्य तौर पर बात करते हुए। टीवी देखते हुए। बैठते हुए या सोते समय।
इस नेचूरल प्रोसेस के दौरान दर्द से कराहते हुए भगवान का नाम तो ले सकती है लेकिन मंदिर में अपने आप ही उसका प्रवेश वर्जित हो जाता है। वह किचन में बर्तन मांझ तो सकती है लेकिन किचन में खाना नहीं बना सकती। कहीं न कहीं देखा जाए तो एक ही घर में कुछ दिनों के लिए उसके लिए एक अघोषित 'लक्ष्मण रेखा' अपने आप ही खिंच जाती है। जिसे वह चाहकर भी नहीं लांघती। हांलाकि मुझे नहीं पता कि उस दौरान उन्हें कितना दर्द होता होगा लेकिन कुछ दिन के लिए उनके साथ होने वाला 'भेदभाव' मैं बखूबी समझ सकता हूं कि शारीरिक पीड़ा के अलावा उन्हें मानसिक तौर पर भी अपने ही घर और समाज में जिल्लत झेलनी पड़ती है। वो चाहकर भी अपने साथ होने वाली उस 'हिंसा' के खिलाफ आवाज नहीं उठाती। वो समाज में चीख-चीख कर दलील नहीं दे सकती कि मेरे 'पीरियड्स' चल रहे है और ये एक नेचुरल प्रोसेस है।
हांलाकि देखा जाए तो डिजिटल इंडिया में लोगों की सोच में काफी बदलाव हुआ है, लेकिन शहरों से महज कुछ दूरी पर ही बसे गांव में अब भी 'उन दिनों' वाली महिलाओं को हेय दृष्टि से देखा जाता है। शहरों में उनके लिए पैड उपलब्ध है। जागरुकता की कमी के चलते कई जगह अब भी कपड़ा और पत्ते जैसी चीजें इस्तेमाल की जा रही है, लेकिन उस ग्रामिण और गरीब भारत या उन आदिवासी इलाकों का क्या जहां आज भी दो महिला केवल एक ही लुगड़ा (एक खास तरह की साड़ी) पहनकर अपना दिन काट लेती हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार के पास ऐसे पिछड़े या अति पिछड़े इलाकों और वहां की दयनीय स्थित की जानकारी न हो, लेकिन फिर भी सब खामोश है पता नहीं क्यू?
2011 की जनगणना के आंकड़ों पर गौर करे तो भारत की आबादी 121.09 करोड़ है। इसमें 58.64 करोड़ यानी करीब 48.46 महिलाएं और बच्चियां शामिल है। समय के साथ इनकी संख्या में बढ़ोतरी भी हुई है। अगर देखा जाए तो भारत में करीब 30 फीसदी आबादी ऐसी है जो सैनटरी पैड का इस्तेमाल करती है और पैड उन आधारभूत चीजों में से एक है जिनमें रोटी, कपड़ा और मकान शामिल है। इस लिहाज से जहां सरकार को इसे योजनाबद्ध तरीके से आसानी से उपलब्ध करवाना चाहिए वहीं वह दोहरा रवैया अपनाकर सेनेटरी पैड पर 12 फीसदी जीएसटी चार्ज कर रही है।
कुछ कथित राष्ट्रनिर्माता और धर्म के ठेकेदार कुछ खास तरह के मुद्दों जैसे बीफ बैन, गौहत्या, धर्मिक भावनाएं और कथित लव जिहाद के नाम पर सड़कों पर मारकाट करने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं लेकिन सेनेटरी पैड पर 12 फीसदी जीएसटी चार्ज करने वाली सरकार के खिलाफ, मंदिरों में पीरियड्स के दौरान होने वाले प्रवेश वर्जित के खिलाफ, घर में अघोषित रूप से खिंच जाने वाली 'लक्ष्मण रेखा' के खिलाफ कब अपनी आवाज बुलंद करेंगे। समाज में एक बेहतर और सकारात्म शुरुआत करने वाले 'पैडमैन' को बधाई। उम्मीद है जल्द ही समूचे भारत की सोच बदलेगी कि पीरियड्स 'कुरीति' नहीं एक नेचुरल प्रोसेस है।