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ब्लॉग: संस्कृति की सजीव संवाहक होती है हमारी मातृभाषा

By प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल | Updated: February 21, 2022 15:43 IST

इसके लिए केजी से पीजी तक शिक्षा के विभिन्न प्रारूपों, विभिन्न स्तरों में मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा की संभावनाओं की तलाश करनी ही पड़ेगी, तभी हम भारत के युवाओं में, भारत के लोगों में सृजनात्मक कल्पनाओं को पुनर्स्थापित कर सकेंगे।

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मातृभाषा अभिव्यक्तिका सशक्त माध्यम व संस्कृति की सजीव संवाहक होती है। यह व्यक्तित्व के निर्माण, विकास और उसकी सामाजिक व सांस्कृतिक पहचान बनाती है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा भाषाई और सांस्कृतिक विविधता के बारे में जागरूकता फैलाने और बहुभाषावाद को बढ़ावा देने के लिए हर साल 21 फरवरी का दिन दुनियाभर में अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाया जाता है। बहुभाषिकता भारतीय संस्कृति का मूल स्वभाव है।

21 फरवरी 2022 को हम इस बात पर संतोष जरूर व्यक्त कर सकते हैं कि अब भारत के लोगों ने भी मातृभाषा के महत्व और उसकी ताकत को समझा है। पहली बार मातृभाषा में शिक्षा को नीतिगत रूप से बल दिया गया है। पहली बार शिक्षा नीति में यह स्वीकार किया गया है कि शिक्षण प्रक्रिया को तेज, परिणामकारी और लक्ष्योन्मुखी बनाने के लिए मातृभाषा से बेहतर कोई विकल्प नहीं हो सकता।

पहली बार शिक्षा के अंदर भारत की बहुभाषिकता की ताकत की पहचान की गई है। वस्तुत: मातृभाषा न केवल साहित्य, संगीत और संस्कृति से जुड़े हुए जीवन के पक्षों को प्रगल्भ बनाती है, श्रेष्ठ बनाती है अपितु विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में भी नव नवोन्मेष, नित नई कल्पनाओं की संभावनाओं की वृद्धि करती है।

दुनिया के पैमाने पर चीन, कोरिया, जापान, रूस और अब तो कजाकिस्तान, तजाकिस्तान, यूक्रेन और न जाने कितने पूर्वी यूरोप के छोटे-छोटे देश, इन सबने अपनी मातृभाषा को अपने लोगों की शक्ति के रूप में स्वीकृति दी है, जो संतोष और सुख तो देता ही है, सभ्यतागत विकास के भी बेहतर अवसर उपलब्ध कराता है।

आज भारत की भाषाओं, भारत के जन की मातृभाषाओं की चर्चा की जाए तो यह संविधान की आठवीं अनुसूची की 22 भाषाओं तक सीमित नहीं है। अपितु भाषा के रूप में 105 से भी अधिक भाषाएं भारत की ताकत हैं. इसमें बोलियों, उपबोलियों की चर्चा की जाए, उनकी गणना की जाए तो यह संख्या सात-आठ सौ पहुंचती है। जिसमें किसी न किसी रूप में मनुष्य के शिक्षण का कार्य चलता है पर इन्हें शिक्षित नहीं माना जाता है। 

हम मातृभाषा के स्थान पर विदेशी भाषा को स्वीकृति दिए हुए एक ऐसे राष्ट्र के रूप में उभरे हैं जो अभी भी औपनिवेशिक मानसिकता, मानसिक गुलामी से मुक्तिनहीं प्राप्त कर सका है। विज्ञान और तकनीक किसी भाषा विशेष और विशेषकरअंग्रेजी में ही हो सकता है, इस प्रकार की मूर्खताओं को हमने जड़बद्ध रूप से मान्य किया है।

हम यह जरूर कह सकते हैं कि नई शिक्षा नीति की उद्घोषणा के बाद भारत की विविध भाषाओं को लेकर एक विश्वास का, एक उत्साह का, स्वीकृति और स्वागत का वातावरण निर्मित हुआ है, लेकिन ये सब भावात्मक स्तर पर ही सीमित न हो अपितु यथार्थ के धरातल पर उतरे, इसके लिए केजी से पीजी तक शिक्षा के विभिन्न प्रारूपों, विभिन्न स्तरों में मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा की संभावनाओं की तलाश करनी ही पड़ेगी, तभी हम भारत के युवाओं में, भारत के लोगों में सृजनात्मक कल्पनाओं को पुनर्स्थापित कर सकेंगे।

भारत की हर भाषा में ज्ञान की एक विशिष्ट ज्योति है। यह विशिष्ट ज्योति ही भारत में एकीकृत बहुलता मूलक समाज का निर्माण करता है। एकबद्ध, एक लक्ष्य, एक जन के रूप में सोच सकने वाले समाज का निर्माण करता है। मातृभाषा की ताकत को मां की दूध की ताकत समझना चाहिए। उसमें जो पोषण की क्षमता है, वह किसी और दूध में नहीं है।

वैसे ही मातृभाषा में ज्ञान को समृद्ध करने, उपयोगी बनाने और नई-नई संभावनाओं के द्वार खोलने में, मातृभाषा की जो भूमिका है वैसी भूमिका किसी अन्य आयातित और आरोपित भाषा की नहीं हो सकती है। विश्व मातृभाषा दिवस ऐसी ही एक संभावना के द्वार खोलता है।

टॅग्स :हिन्दीCulture Commission
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