ब्लॉग: यशवंत सिन्हा और विवाद, देखना होगा कसौटी पर कितना खरे उतरते हैं विपक्ष के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार?

By अनिल जैन | Published: July 12, 2022 09:52 AM2022-07-12T09:52:55+5:302022-07-12T09:54:53+5:30

विपक्षी दलों से यह सवाल तो पूछा ही जा सकता है कि आखिर यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति का उम्मीदवार क्यों बनाया गया. इसका औचित्य या आधार क्या है? क्या केवल मौजूदा भाजपा सरकार के खिलाफ बयानबाजी ही इसकी वजह है?

opposition presidential candidate Yashwant Sinha and controversy | ब्लॉग: यशवंत सिन्हा और विवाद, देखना होगा कसौटी पर कितना खरे उतरते हैं विपक्ष के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार?

कसौटी पर कितना खरे उतरेंगे यशवंत सिन्हा (फाइल फोटो)

 राष्ट्रपति पद के लिए सत्ताधारी पक्ष की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू का चुना जाना तय है. उनकी जगह भाजपा किसी और को भी उम्मीदवार बनाती तो उसके जीतने में भी कोई समस्या नहीं आती. लेकिन प्रतीकों की राजनीति करने में माहिर भाजपा ने द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार बना कर जहां एक ओर यह जताने की कोशिश की है कि वह आदिवासियों की परम हितैषी है, वहीं उसने इस बहाने विपक्षी खेमे में सेंध लगाकर कुछ क्षेत्रीय पार्टियों का समर्थन भी द्रौपदी मुर्मू के लिए हासिल कर लिया. 

इस सबके अलावा सबसे बड़ी बात यह है कि उसने 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर ओडिशा, पश्चिम बंगाल और झारखंड में राजनीतिक जमीन को मजबूत करने का दांव भी चला है, क्योंकि इन राज्यों में संथाल जाति के आदिवासी बड़ी संख्या में निवास करते हैं और द्रौपदी मुर्मू भी इसी समुदाय से आती हैं.

लेकिन भाजपा के बरअक्स विपक्षी पार्टियों ने अपने उम्मीदवार का चयन करने में ज्यादा सोच-विचार नहीं किया. ले-देकर उन्हें सिर्फ गोपाल कृष्ण गांधी का ही नाम याद आया, जो पिछली बार उपराष्ट्रपति के चुनाव में विपक्ष के उम्मीदवार थे. इस बार जब उन्होंने इनकार कर दिया तो एच.डी. देवगौड़ा, शरद पवार और फारुक अब्दुल्ला जैसे निस्तेज नामों पर विचार किया गया था लेकिन इन तीनों ने भी जब इनकार कर दिया तो ममता बनर्जी के सुझाव पर उनकी पार्टी के नेता यशवंत सिन्हा को उम्मीदवार बना दिया गया.

मगर यशवंत सिन्हा की पालकी के कहार बने विपक्षी दलों से यह सवाल तो पूछा ही जा सकता है कि आखिर यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने का औचित्य या आधार क्या है? क्या उन्होंने सिर्फ इसलिए विपक्ष का चेहरा बनने की पात्रता हासिल कर ली है कि अब वे भाजपा छोड़ चुके हैं और भाजपा सरकार के खिलाफ लगातार बयान देते रहे हैं? आज जो पार्टियां विपक्ष में हैं, वे लगभग सभी 20 साल पहले भी विपक्ष में थीं और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में यशवंत सिन्हा वित्त मंत्री व विदेश मंत्री थे. 
कांग्रेस, वामपंथी और समाजवादी पृष्ठभूमि की पार्टियों को याद करना होगा कि उन्होंने तब यशवंत सिन्हा पर कैसे-कैसे आरोप लगाए थे. क्या भाजपा छोड़ देने के बाद वे उन आरोपों से मुक्त हो गए?

यशवंत सिन्हा ने केंद्र में मंत्री रहते गुजरात दंगों पर कभी अपना मुंह नहीं खोला. यह भी कौन भूल सकता है कि 2012-13 के दौरान भाजपा के जो नेता नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की मुहिम छेड़े हुए थे, उनमें यशवंत सिन्हा भी एक थे.

उनके वित्त मंत्री रहते हुए जो आर्थिक घोटाले हुए वह भी कम महत्वपूर्ण मामला नहीं हैं. यशवंत सिन्हा के वित्त मंत्री रहते यूटीआई घोटाला हुआ था. वह ऐसा घोटाला था, जिसमें सरकारी खजाने की बजाय सीधा नुकसान आम आदमी को हुआ था. करीब 20 हजार करोड़ रुपए के उस घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति बनी थी और उस संयुक्त संसदीय समिति ने अपनी मसौदा रिपोर्ट में इस घोटाले की जिम्मेदारी यशवंत सिन्हा पर डाली थी. 

आज के विपक्ष के कई बड़े नेता उस संयुक्त संसदीय समिति की जांच में शामिल थे. टैक्स हैवेन देशों से पैसे की राउंड ट्रिपिंग को लेकर भी उस समय उन पर कई आरोप लगे थे. कहने की आवश्यकता नहीं कि यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर विपक्ष ने सत्ताधारी पार्टी के मुकाबले अपनी नैतिक और वैचारिक हार मान ली.

यह सही है कि राष्ट्रपति के चुनाव में हमेशा ही सत्तापक्ष का उम्मीदवार जीतता रहा है, इसके बावजूद विपक्ष ने पहले कभी ऐसा कोई उम्मीदवार मैदान में नहीं उतारा जिसके साथ कई विवाद और गंभीर आरोप नत्थी हो. राष्ट्रपति पद के लिए 1952 में जब पहली बार चुनाव हुआ तब तो संसद और विधानसभाओं में संख्याबल के लिहाज से विपक्ष आज के मुकाबले भी बेहद कमजोर था, लेकिन उसने डॉ. राजेंद्र प्रसाद के मुकाबले संविधान सभा के सदस्य रहे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री के.टी. शाह को अपना उम्मीदवार बनाया था. 

राष्ट्रपति पद के लिए 1957 में दूसरे और 1962 में हुए तीसरे चुनाव में सत्तापक्ष के उम्मीदवार क्रमश: डॉ. राजेंद्र प्रसाद और डॉ. राधाकृष्णन के खिलाफ विपक्ष ने अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था.

जाकिर हुसैन का अपने कार्यकाल के दूसरे ही साल में निधन हो जाने की वजह से 1969 में राष्ट्रपति पद के लिए पांचवां चुनाव हुआ, जिसमें सत्तारूढ़ कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी थे और उनके खिलाफ तत्कालीन उप राष्ट्रपति वी़ वी. गिरि निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरे थे. अब तक हुए सभी चुनावों में सिर्फ चौथे और पांचवें चुनाव को छोड़ कर बाकी सभी चुनाव एकतरफा ही रहे. लेकिन विपक्ष ने सभी चुनावों में साफ-सुथरी छवि के व्यक्तियों को ही अपना उम्मीदवार बनाया, भले वे राजनीतिक रहे हों या गैर राजनीतिक. 

अलबत्ता सत्ता पक्ष के कतिपय उम्मीदवारों के साथ जरूर कुछ विवाद या आरोप जुड़े रहे. लेकिन इस बार पहला मौका है जब विपक्ष ने ऐसे नेता को उम्मीदवार बनाया है जिसका नैतिक और वैचारिक धरातल बेहद कमजोर है और कई आरोप उस पर चस्पां हैं.

Web Title: opposition presidential candidate Yashwant Sinha and controversy

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