भाजपा के लिए उत्तर-पूर्व के प्रांत उपजाऊ नहीं, इस आग्रह को मोदी के नेतृत्व में हिंदुत्ववादियों ने गलत साबित किया

By अभय कुमार दुबे | Published: January 4, 2023 02:56 PM2023-01-04T14:56:58+5:302023-01-04T14:58:17+5:30

सरमा के नेतृत्व में भाजपा को पूरा यकीन है कि इन तीनों चुनावों में उसकी ही विजय होगी। जाहिर है कि कांग्रेस और माकपा अब उत्तर-पूर्व में पहले जैसी ताकत नहीं रहे हैं। पर भाजपा जानती है कि वह जरा सी भी चूकी तो ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस उसे अपदस्थ कर देगी।

North-East is fertile for the BJP Hindutvawadis under leadership of Modi have proved | भाजपा के लिए उत्तर-पूर्व के प्रांत उपजाऊ नहीं, इस आग्रह को मोदी के नेतृत्व में हिंदुत्ववादियों ने गलत साबित किया

भाजपा के लिए उत्तर-पूर्व के प्रांत उपजाऊ नहीं, इस आग्रह को मोदी के नेतृत्व में हिंदुत्ववादियों ने गलत साबित किया

देश की राजनीति में नरेंद्र मोदी के उदय से पहले माना जाता था कि भारतीय जनता पार्टी और हिंदुत्व की विचारधारा के लिए उत्तर-पूर्व के प्रांत उपजाऊ नहीं हैं। मान्यता यह बनती थी कि भले ही भाजपा देश के अन्य हिस्सों में जीत हासिल कर ले, पर उत्तर-पूर्व में कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी और अन्य क्षेत्रीय शक्तियों की राजनीति ही चलेगी। लेकिन मोदी के नेतृत्व में हिंदुत्ववादियों ने इस आग्रह को गलत साबित किया। इसमें उनकी मदद कांग्रेस नेतृत्व की लापरवाही और लंबे कम्युनिस्ट शासन के खिलाफ पनपने वाली एंटीइनकम्बेंसी ने भी की। इस संदर्भ में दो-तीन घटनाएं याद करने वाली हैं। पहली है असम की गोगोई सरकार के खिलाफ असंतोष व्यक्त करने और आलाकमान को अपनी राय से वाकिफ कराने आए कांग्रेस के तत्कालीन नेता हेमंत विश्व सरमा और राहुल गांधी की बहुचर्चित मुलाकात। कहा जाता है कि  पहले तो राहुल ने सरमा को मिलने का समय ही बहुत मुश्किल से दिया, और जब दिया भी तो वे बात करते समय अपने कुत्ते को बिस्कुट खिलाते रहे। नतीजा यह निकला कि सरमा भाजपा में चले गए। जो भाजपा उन्हें भ्रष्टाचारियों का सम्राट कहती थी, उसी ने उन्हें अपना नेता घोषित करके उन्हीं के नेतृत्व में चुनाव लड़ा। हिंदुत्ववादियों ने असमी समाज के सांप्रदायिक विभाजन का भी जम कर इस्तेमाल किया। असम गण परिषद जैसी स्थानीय ताकत उनके साथ गठजोड़ में चली गई। सरमा का भाजपा में जाना हिंदुत्वादियों की व्यापक योजनाओं के लिए वरदान साबित हुआ। उनके नेतृत्व में ही भाजपा ने उत्तर-पूर्व लोकतांत्रिक गठजोड़ (एनईडीए) खड़ा किया। जाहिर है कि भाजपा ने उत्तर-पूर्व पर विशेष रूप  से ध्यान दिया। वहां की राजनीति की जरूरतों को पूरा करने के लिए और वहां की पार्टियों के साथ गठजोड़ प्रक्रिया में जाने के लिए एक अलग सांगठनिक बंदोबस्त को अंजाम दिया।

उधर त्रिपुरा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का बहुत लंबा शासन अपनी ही विफलताओं के बोझ से डगमगा रहा था। लगातार विपक्ष में रहने वाली स्थानीय कांग्रेस की बहुत सी शक्तियों ने इस मौके का लाभ उठाकर भाजपा का दामन थाम लिया। त्रिपुरा में इस तरह एक कांग्रेस-युक्त भाजपा का उभार हुआ। उसने इंडीजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) के साथ गठजोड़ करके वाममोर्चे को करारी शिकस्त दी। 2018 में हुए इस सत्ता परिवर्तन को नए चुनावों में तीन तरफ से चुनौती मिलने वाली है। पहली चुनौती त्रिपुरा इंडीजिनस प्रोग्रेसिव अलायंस (टीआईपीआरए) की तरफ से मिलेगी। प्रद्योत विक्रम माणिक्य देव के नेतृत्व में सक्रिय इस गठजोड़ का प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा है। भाजपा की गठजोड़ सरकार से टूट कर मंत्री और विधायक इसकी तरफ गए हैं। आईपीएफटी में भी टूट के लक्षण हैं, और भाजपा में भी। यही देख कर भाजपा ने अपना मुख्यमंत्री भी बदला है। बिप्लव कुमार देब की जगह मानिक साहा को दी गई है। दूसरी चुनौती कांग्रेस की बची हुई ताकतों और मार्क्सवादियों के संभावित गठजोड़ से मिल सकती है। और तीसरी चुनौती तृणमूल कांग्रेस के हस्तक्षेप से निकलती है। मेघालय की राजनीति असम की पुलिस और नागरिकों के बीच सीमा  पर हुई हिंसक झड़पों से गरमा रही है। इसमें छह लोगों की जान गई थी और कई लोग घायल हो गए थे। ईसाई बहुल मेघालय में मेघालय डेमोक्रेटिक अलायंस की सरकार है जिसे भाजपा समर्थन दे रही है। इसका नेतृत्व नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) के हाथ में है। इसने वादा किया है कि वह असम के साथ सीमा विवाद सुलझाएगी। नए चुनाव में भाजपा और एनपीपी ने अलग-अलग लड़ने का फैसला किया है। तृणमूल कांग्रेस भी यहां सारी सीटों पर लड़ेगी।

नगालैंड में पिछला चुनाव ‘इलेक्शन फॉर सोल्यूशन’ बनाम ‘नो सोल्यूशन-नो इलेक्शन’ के नारों को केंद्र में रखकर हुआ था। झगड़ा इस बात का है कि इसाक-मुइवाह की नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नगालिम अलग झंडा और अगल संविधान की मांग कर रही है। केंद्र सरकार इसे मानने के लिए तैयार नहीं है। भाजपा ने वहां चुनाव ‘इलेक्शन फॉर सोल्यूशन’ के नारे के साथ लड़ा था। अन्य राजनीतिक ताकतों की दलील थी कि चुनाव का बायकॉट तब तक किया जाना चाहिए जब तक समस्या का कोई हल न निकल आए। अगले चुनाव के लिए भाजपा ने नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) के साथ गठजोड़ कर लिया है। वह बीस और एनडीपीपी चालीस सीटों पर लड़ेगी। नगा पीपुल्स फ्रंट के एनडीपीपी के साथ जुड़ जाने के बाद स्थिति यह है कि इस राज्य पर भाजपा की मदद से यह मोर्चा एक ऐसी सरकार चला रहा है जिसके खिलाफ कोई विपक्षी पार्टी नहीं है। फ्रंटियर नगालैंड के नाम से अलग राज्य बनाने की मांग भी हवा में है जिसकी पैरोकारी ईस्टर्न नगालैंड पीपुल्स ऑर्गनाइजेशन (ईएनपीओ) द्वारा की जा रही है।

सरमा के नेतृत्व में भाजपा को पूरा यकीन है कि इन तीनों चुनावों में उसकी ही विजय होगी। जाहिर है कि कांग्रेस और माकपा अब उत्तर-पूर्व में पहले जैसी ताकत नहीं रहे हैं। पर भाजपा जानती है कि वह जरा सी भी चूकी तो ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस उसे अपदस्थ कर देगी। लोकसभा चुनाव के लिए भी उत्तर-पूर्व के राज्य भाजपा के लिए जरखेज साबित हुए हैं। पिछले चुनाव में उसने अपने सहयोगियों के साथ 25 में से 18 सीटें जीत ली थीं। कहना न होगा कि इन तीन राज्यों का चुनाव 2024 की संघर्ष की पूर्व-पीठिका तैयार कर रहा है।

Web Title: North-East is fertile for the BJP Hindutvawadis under leadership of Modi have proved

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